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जैन प्रतिमाविज्ञान
देवगढ़ किले के जैन मंदिर (क्रमांक १२ ) में यक्षियों की नामयुक्त प्रतिमाएं हैं। पर वे प्रतिमाएं भी नौवीं शताब्दी ईस्वी से पूर्व की प्रतीत नहीं होतीं ।
श्री उमाकान्त शाह का मन है कि ईस्वी १००० के पश्चात् ही यक्षों और यक्षियों की कल्पना विकसित हो सकी थी और बारहवी शताब्दी ईस्वी में दिगम्बर श्रौर श्वेताम्बर दोनों ही परम्परा की सूचियों ने पूर्णता प्राप्त कर ली थी ।
देवगढ़ की यक्षियां
देवगढ़ के जैन मंदिर में यक्षियों की प्रतिमानों के पट्ट पर उनके नाम उत्कीर्ण किये हुये हैं । उत्कीर्ण लेखों की लिपि ६५० ईस्वी के लगभग की प्रतीत होती है । उन नामों से ज्ञात होता है कि उस समय तक यक्षियों की एक सूची तैयार हो चुकी थी । देवगढ़ की यक्षीप्रतिमाएं दिगम्बर श्राम्नाय की हैं। इसलिये उनके नामों की तुलना तिलोयपण्णत्ती में प्राप्त नामों से करके क्रमिक विकास का अध्ययन किया जा सकता है । वे नाम इस प्रकार हैं:
क्रमांक तीर्थंकर
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
ε.
१०.
११.
१२.
१२.
१४.
१५.
१६.
१७.
ऋषभनाथ
अजितनाथ
संभवनाथ
श्रभिनन्दननाथ सरस्वती
सुमतिनाथ
पद्मप्रभ
सुपार्श्वनाथ
चन्द्रप्रभ
पुष्पदन्त
शीतलनाथ
श्रेयांसनाथ
वासुपूज्य
विमलनाथ
देवगढ़ की यक्षी
चक्रेश्वरी
अनंतनाथ
धर्मनाथ
शान्तिनाथ
कुन्थुनाथ
सुलोचना
सुमालिनी
बहुरूपी
श्रियदेवी
वह्निदेवी
प्रभोग रोहिणी
सुलक्षणा
अनंतवीर्या
तिलोयपण्णत्ती की यक्षो
चक्रेश्वरी
रोहिणी
प्रज्ञप्ति
वज्रशृंखला
वज्रांकुशी
अप्रतिचका
पुरुषदत्ता
मनोवेगा
काली
ज्वालामालिनी
महाकाली
गोरी
गांधारी
रोट्या
अनन्तमती
सुरक्षिता
श्रियदेवी या अनंतवीर्या मानसी
अरकरभि
महामानसी