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जैन प्रतिमाविज्ञान
उन्नत होता है । जयसेन (वसुविन्दु) के प्रतिष्ठापाठ में भी जिनप्रतिमा के तालमान संबंधी विवरण उपलब्ध हैं। वे प्रायः वसुनन्दि के समान ही हैं। जयसेन ने भ्रू-लना को ४ अंगुल आयत, मध्य में स्थूल, छोर में कृश अर्थात् धनुषाकार कहा है । नेत्रों की पलकें ऊपर-नीचे नदी के तटों के समान होती हैं। प्रोष्ठ का विस्तार ४ अंगुल, जिसका मध्यभाग १ अंगुल उच्छित होता है। चिबुक ३३ अंगुल, उसके मूल से लेकर हनु तक का अन्तर ४ अंगुल । कर्ण पोर नेत्र का अंतर भी ४ अंगुल । प्रादि आदि
पद्मासन जिनप्रतिमा का उत्सेध कायोत्सर्ग प्रतिमा से आधा अर्थात् ५४ अंगुल बताया गया है। उसका तिर्यक् आयाम एक समान होता है। एक घुटने से दूसरे घटने नक, दायें घुटने से बायें कंधे तक, बायें घुटने से दायें कंधे तक और पादपीठ से केशांत तक चारों सूत्रों का मान एक बराबर बताया गया है। वसुनन्दि के अनुसार, पद्मासन प्रतिमा के बाहयुग्म के अंतरित प्रदेश में चार अंगुल का ह्रास तथा प्रकोष्ठ से कूपर पर्यन्त दो मंगुल की वृद्धि होती है।'
वास्तुसारप्रकरण के द्वितीय प्रकरण में पद्मासन और कायोत्सर्ग जिन प्रतिमानों के मान संबंधी विवरण श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार दिये गये हैं । वास्तुसारप्रकरण के रचयिता ठक्कर फेरु पद्मासन प्रतिमा को समचतुरस्र संस्थान युक्त कहते हैं । तदनुसार उसके चारों सूत्र बराबर होते हैं किन्तु उनके अनुसार पद्मासन प्रतिमा ५६ अंगुल मान की होती है जो इस प्रकार हैं :
भाल ४ अंगुल नासा ५ अंगुल वचन ४ अंगल ग्रीवा ३ अंगुल
१२ अंगुल नाभि १२ अंगुल गुह्य १२ मंगल जानु ४ अंगुल
योग ५६ अंगुल' १ प्रतिष्ठासारसंग्रह, ४/६८ २. वास्तुसारप्रकरण, २/८
हृदय