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________________ जैन प्रतिमाविज्ञान प्राचीन हो और महा प्रत्यंगो के भंग होने का फल बताते हुये ठक्कुर फेरु ने कहा है कि नखभंग होने से शत्रुभय, संगुली-भंग मे देशभंग, बाहु भंग होने से बंधन, नासिका भंग होने से कुलनाश और चरण भंग होने से द्रव्यक्षय होता है । किन्तु इन्ही ग्रन्थकार का यह भी मत है कि जो प्रतिमाएँ सौ वर्ष से अधिक पुरुषों द्वारा स्थापित की गयी हो, वे यदि विकलॉग भी हो पूजनीय है । ग्राचार दिनकरकार ने भी यह मत स्वीकार उन्होने उन प्रतिमाओं को केवल चैत्य में रखने योग्य कहा है, गृह में पूज्य नहीं ।" जावें तब भी किया है, किन्तु १६ भग्न प्रतिमा के जीर्णोद्धार के संबंध मे भी विभिन्न ग्रन्थों में उल्लेख मिलते है । रूपमण्डन मे धातु, रत्न और विलेप की प्रतिमाओं के अंगभंग होने पर उन्हे संस्कार योग्य बताया है किन्तु काष्ठ और पाषाण की प्रतिमानों के जीर्णोद्धार का निषेध किया गया है । ठक्कर फेरु केवल धातु और लेप की प्रतिमा के जीद्धार के पक्ष में है, वे रत्न, काष्ठ और पापाण की प्रतिमाओं को जीर्णोद्धार के अयोग्य मानते है ।" प्रचारदिनकरकार भी इसी मत के समर्थक हैं । निर्वाणकलिका मे शैलमय विम्व के विसर्जन की विधि बतायी है। किन्तु स्वर्णबिम्व को पूर्ववत निर्मित कर पुनः प्रतिष्ठेय कहा गया है । " जिन प्रतिमा के लक्षण जैन प्रतिष्ठाग्रन्थो और बृहत्संहिता, मानसार, समरागणसूत्रधार, अपराजितपृच्छा, देवतामूत्तिप्रकरण, रूपमण्डन आदि ग्रन्थों मे जिन प्रतिमा के लक्षण बताये गये है । जिन प्रतिमाएं केवल दो आसनों मे बनायी जाती हैं, एक तो कायोत्सर्ग ग्रामन जिसे खड्गासन भी कहते है और द्वितीय पद्मासन । इसे कही कही पर्यक ग्रासन भी कहा गया है । इन दो आमनों को छोड़कर किसी अन्य आसन मे जिनप्रतिमा निर्मित किये जान का निषेध किया गया है । १. वास्तुसार प्रकरण, २/४४ २. वही २ / ३६ ३. प्राचारदिनकर, उदय ३३ ४. १/१२ ५. वास्तुमारप्रकरण, २ / ४१ ६. उदय ३३ ७. पत्र ३५
SR No.010288
Book TitleJain Pratima Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchand Jain
PublisherMadanmahal General Stores Jabalpur
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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