________________
मंदिर और प्रतिमाएँ
जयमेन ने जिन विम्व को गॉन, नासाग्रदृष्टि, प्रशस्तमानोन्मानयुक्त, ध्यानारूढ एवं किञ्चित् नम्रग्रीव बनाया है । कायोत्सर्ग आसन में हाथ लम्बा - यमान रहते है एवं पदमासन प्रतिमा में वामहस्त की हथेली दक्षिण हस्त की हथेनी पर रखी हुयी होती है। जिन प्रतिमा दिगम्बर, श्रीवृक्षयक्त नखकेशविहीन, परम शान्त, वृद्धत्व तथा बाल्य रहित, तरुण एवं वैराग्य गुण मे भूषित होती है । वसुनन्दि और प्रशाधर पंडित' ने भी जिन प्रतिमा के उपर्युक्त लक्षणो का निम्पण किया है। विवेक विलास मे कायात्सर्ग और पद्यामन प्रतिमाओ के सामान्य लक्षण बताये गये है ।"
सिद्धपरमेष्ठी की प्रतिमाम्रो मे प्रातिहार्य नही बनाये जाते । अर्हत्प्रतिमा म उनका होना आवश्यक है । और सिद्ध, दोनों की मूल प्रतिमाएं बनायी तो समान जाता है पर अष्ट प्रातिहार्यो के हान सवा न होने की अवस्था में उनकी पहचान होती है । ग्रर्हत् अवस्था की प्रतिमा म प्रातिहार्यो के साथ दाये और यक्ष, बाने प्रोर यक्षी और पादपाठ के नीचे जिनका लालन भी दिखाया जाता है । निलोयपण्णत्ती में भी गिलमन तथा यक्षयुगल मे युक्त जिन प्रतिमाया का वर्णन है। ठाकर फेंक ने तीर्थकर प्रतिमा के ग्रासन और परिकर का विस्तार से वर्गान किया। मानमार में भी जिन प्रतिमाम्रो क परिकर आदि का वर्णन प्राप्त है । अपराजितपच्छा मे यक्ष-यक्षी, लाछन और प्रातिहार्यो की योजना का विधान है । सूत्रधार मंडन के दानो ग्रन्थो मे जिन प्रतिमा को छत्रत्रय, अशोकद्रुम, देवदुन्दुभि, निहासन, धर्मचक्र यादि मे युक्त बताया गया है ।
१ प्रतिष्ठापाठ, ५०
२. प्रतिष्ठासार सँग्रह ४ / १,२,४
३. प्रतिष्ठामारोद्धार, १/६३
४. विवेक विलाम १ / १२८-- १३०
५. प्रतिष्ठासारमग्रह, ४।७०
६. प्रतिष्ठामारोद्धार, १ / ७६-७७
१७
७. वास्तुसारप्रकरण, २/२६--३८ ८. अपराजित पृच्छा, १३३/२६-२: