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________________ एकादश अध्याय नव ग्रह सकलचन्द्र गणी के प्रतिष्ठाकल्प मे आदित्य, चन्द्र, भौम, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु क्रमश: छठे तीर्थकर पद्मप्रभ, अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभ, द्वादश तीर्थकर वासुपूज्य, षोडश तीर्थकर शान्तिनाथ, प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ, नवम तीर्थकर मुविधिनाथ, बीमवे तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ, बाईसव तीर्थंकर नेमिनाथ और तेईमवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के शासनवामी कहे गये हैं । प्राचारदिनकर' के अनुसार मार्तण्ड (सूर्य) की शान्ति के लिये पद्मप्रभ की, चन्द्र की शान्ति के लिये चन्द्रप्रभ की, भूमिपुत्र, (मंगल) की शान्ति के लिये वासुपूज्य की, बुध की शान्ति के लिये प्रष्ट जिनेन्द्र – विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, मरनाथ, नमिनाथ और वर्धमान-की, बहम्पति की शान्ति के लिये ऋषभनाथ, अजितनाथ, मंभवनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ. सुपार्श्वनाथ, शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ की, शुक्र की शान्ति के लिये सुविधिनाथ की, दानि की शान्ति के लिये मुनिसुव्रतनाथ की, गहु की गान्ति के लिये नेमिनाथ की और केतु की शान्ति के लिये मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ की पूजा करनी चाहिय । ग्रहों को सभी भारतीय धर्मो ने किमी न किसी रूप में मान्यता दी है। जैन परम्परा में पूर्व में पाठ ग्रहा की गणना की जाती थी। पश्चात्काल में उनकी संख्या नव हयी। जे० एन० बनर्जी का मत है कि भारतीय मूर्ति विधान मे अन्तिम ग्रह केतु बाद में जोड़ा गया था।' प्राचारदिनकर ने सूर्य को पूर्व दिशा का अधीश, चन्द्र को वायव्य दिशा का, मंगल को दक्षिण दिशा का, बुध को उत्तर का, गुरु को ईशान का, शुक्र को प्राग्नेय का, शनि को पश्चिम का और राहु को नैर्ऋत्य दिशा का अधीश बताया है जबकि उक्त ग्रन्थ के अनुसार केतु राहु का प्रतिच्छन्द है। सकलचन्द्र गणी के प्रतिष्ठाकल्प में चन्द्र को प्रतीची पौर मंगल को वारुण दिशा से सम्बद्ध किया गया है। १. उदय ३५, शान्त्यधिकार । २. बौद्धों ने भी नवग्रहों को स्वीकार किया है । ३. डेवलपमेण्ट प्राफ हिन्दू आइकोनोग्राफी, पृष्ठ ४४४ ।
SR No.010288
Book TitleJain Pratima Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchand Jain
PublisherMadanmahal General Stores Jabalpur
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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