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________________ जैन प्रतिमाविज्ञान कौटिल्य के अर्थशास्त्र (२,२०, २--३) में ८ परमाणु =१ रथरेणु और ८ रथरेणु - १ लिक्षा का मान बताया गया है । बृहत्संहिता में रेण और लिक्षा के बीच बालाग्र का भी विचार किया गया है। तदनुसार ८ परमाणु = १ रजांश, ८ रजांश-१ वालाग्र और ८ बालाग्र=१ लिक्षा का क्रम होता है। आठ यवमध्यों का अंगुल कहते हुये भी अर्थशास्त्रकार ने बताया है कि सामान्यतया मध्यम कद के पुरुष की मध्य अंगुली के मध्य भाग की मोटाई एक मंगुल का मान है। तिलोयपण्णत्तीकार ने तीन प्रकार के अंगुल बताये हैं, उत्संधांगुल, प्रमागांगुल और अात्मांगुल ।' उन्होंबताया है कि जो अंगुल उपयुक्त परिभाषा से सिद्ध किया गया है वह उन्मेधसूच्यंगुल है। प्रमाणांगुल पाँच सौ उत्सेधाँगुल के बराबर होता है तथा भरत और ऐगवत क्षेत्र में उत्पन्न मनुष्यों के अपने अपने काल के अंगुल का नाम प्रात्मागुल है। उपयुक्त तीन प्रकार के अंगुलो में से पांच मौ उत्मेधमूच्यंगुल के बराबर वाले अंगुल के मान में प्रतिमानों का निर्माण किया जा सकना वर्तमान काल के लिये असंभव तो है ही, पर पाठ यवमध्य वाले अंगुल और स्वकीय अंगुल के मानवाली प्रतिमाओं का निर्माण भी शास्त्रीय मानयोजना के अनुसार अव्यावहारिक था । स्वकीयागुल मान से यह स्पष्ट नहीं होता कि वह मूति निर्माण कराने वाले का अंगुल होना चाहिय अथवा शिल्पी का अंगुल । दोनों के अंगुल की मोटाई में ग्राधिक्य और न्यनता की संभावना हो सकती है। ऐसी स्थिति में, यह प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में प्रतिमा निर्माण कार्य के लिये न तो पाठ यव वाले अंगुल क. मान को और न शिल्पकार अथवा निर्माता के अंगुल वाले मान को ही सुनिश्चित मान माना जा सका था। एक ही समय में और संभवतः एकली शिल्पी द्वारा निमित भिन्न-भिन्न प्रतिमाएं छोटी और बड़ी मिलती है। यदि उपर्युक्त मानयोजना के अनुसार वे निर्मित की गयी होती तो उनका मान एक सा होना चाहिये था । इसलिये यह मानना पड़ेगा कि उपयुक्त मानो के अतिरिक्त एक और मान को वास्तविक मान्यता प्राप्त थी १. अर्थशास्त्र, २,२०,७ २. तिलोयपण्णी , १११०७
SR No.010288
Book TitleJain Pratima Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchand Jain
PublisherMadanmahal General Stores Jabalpur
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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