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सप्तम अध्याय
शासनदेवता चौबीम यक्षों और उतनी ही यक्षियों की गणना शासन देवताओं के समूह में की गयी है । ये यक्ष-यक्षी तोर्थकरों के रक्षक कहे गये हैं। प्रत्येक तीर्थंकर से एक यक्ष और एक यक्षी मंबद्ध है । तीर्थकर प्रतिमा के दायें और यक्ष की
और बायें प्रोर यक्षी की प्रतिमा बनाये जाने का विधान है ।' पश्चात् काल में स्वतंत्र रूप से भी यक्ष-यक्षियों की प्रतिमाएं बनाई जाने लगी थी । यद्यपि तांत्रिक युग के प्रभाव से विवश होकर जैनो को इन देवों की कल्पना करनी पड़ी थी किन्तु इन्हें जैन परंपरा में सेवक या रक्षक का ही दरजा मिला, न कि उपास्य देव का । प्राशाधर पंडित ने सागारधर्मामृत में लिखा है कि प्रापदायों से प्राकुलित होकर भी दार्शनिक श्रावक उनकी निवृत्ति के लिये शासन देवताओं को नहीं भजता, पाक्षिक श्रावक ऐसा किया करते हैं । सोमदेव सूरि ने स्पष्ट किया है कि तीनों लोकों के इप्टा जिनेन्द्र देव और व्यन्तरादिक देवतानों को जो पूजाविधान में समान रूप से देखता है, वह नरक में जाता हैं । उन्होंने स्वीकार किया है कि परमागम में, शासन की रक्षा के लिये शासन देवताओं की कल्पना की गयी है।
यक्ष यक्षियों की प्रतिमाएं सर्वागसुन्दर, सभी प्रकार के प्रलंकारों से भूषित और अपने अपने वाहनों तथा प्रायुधों से युक्त बनाने का विधान है । वे करण्ड मुकुट और पत्रकुण्डल धारण किये जाय: ललितासन में बनायी जाती है ।
चतुर्विंशति यक्ष शासन-यक्षो का सूचियां तिलोयपण्णत्ती, प्रवचनसारोद्धार, अभिधानचिन्तामणि, प्रतिष्ठासारसंग्रह, प्रतिष्ठासारोद्धार, प्रतिष्ठातिलक, निर्वाणकलिका, माचारदिनकर प्रादि प्रादि जैन ग्रन्थों में तथा अपराजितपृच्छा मौर रूपमण्डन जैसे अन्य वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों में मिलती हैं । तिलोयपण्णत्ती, प्रतिष्ठासारसंग्रह, अभिधान चिन्तामणि और अपराजितपृच्छा में वणित सूचियां यहां दी जा रही है।
१. वसुनान्द, ५/१२ २. उपासकाध्ययन, ध्यान प्रकरण, श्लोक ६६७-६६६ । ३. वसुनन्दि, ४/७१