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जैन प्रतिमाविज्ञान
उपर्युक्त प्रकार विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार देव भी क्रमशः प्राची, अपाची, प्रतीची और उदीची दिशाओं में स्थित होते है ।' ये देव व्यन्तर निकाय के हैं । वे जम्बूद्वीप की चार दिशाओं मे स्थित इन्ही नाम के द्वारों के रक्षक हैं । द्वारों के नाम पर ही इनके नाम पड़े हैं । अनावृत और तुम्बरु नामक यक्षों के संबंध में आगे विवरण दिया जावेगा।
जया, विजया, जयन्ती और अपराजिता का विवरण विष्णुधर्मोत्तर' में भी मिलता है । वहां ये देवियां चतुर्वक्त्रा और द्विभुजा बतायी गयी है । प्रत्येक के बायें हाथ में कपाल किन्तु जया के दायें हाथ में दण्ड, विजया के दायें हाथ में खड्ग, जयन्ती के दायें हाथ में अक्षमाला भोर अपराजिता के दायें हाथ में भिन्दिपाल बताया गया है । जया का वाहन नर, विजया का कोशिक, जयन्ती का तुरग और अपराजिता का मेघ । जया का वर्ण श्वेत, विजया का रक्त, जयन्ती का पीन और अपराजिता का कृष्ण है । इन्हें मातृ कहा गया है । इनके बीच मे महादेव तुम्बर (श्वेतवर्ण) स्थित होते है जो चतुर्मुख और वृषारूढ़ है । जया और विजया की स्थिति तुम्बरु के दक्षिण ओर तथा जयन्ती और अपराजिता की उनके वाम मोर कही गई है । हेमचन्द्र प्राचार्य ने तुम्बरु को समवशरण के अन्त्य वप्र के प्रतिद्वार में स्थित बताया है । वह जटामुकुटयुक्त, खट्वागी और नरमुण्डमालाधारी होता है ।'
रूपमण्डन' में इन्द्र, इन्द्रजय, माहेन्द्र, विजय, धरणेन्द्र, पद्मक, सुनाभ और सुरदुन्दुभि ये आठ वीतराग जिनेन्द्रदेव के प्रतीहार कहे गये है। इन्द्र और इन्द्रजय के प्रायुध फल. वज्र अंकश और दण्ड, माहेन्द्र और विजय के दो हाथो में वज, और दो मे फल और दण्ड, सुनाभ और दुन्दुभि निधिहस्त तथा धरणेन्द्र और पद्मक विफण या पचफण मर्पछत्रधारी है । तीर्थकरों को निर्वाणभूमिया
आयु कर्म के उदय की अवधि समाप्त होने पर तीर्थकर सभी प्रकार के अधातिया कर्मो गे भी मुक्त होकर सिद्ध अवस्था प्राप्त करते है । ऋषभनाथ,
१ प्रतिष्ठामारोद्धार, ३/१९५-१६६ २. जंबूदीवपण्णत्तिसंगहो, १/३८-३६,४२; तिलोयप० ४/१-१२,७५ ३. तृतीय खण्ड, अध्याय ६६, ५-११. ४. विषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १ सर्ग १ ५. ६/२८-३३