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चतुर्विशति तीर्थकर
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की व्यवस्था देवों द्वारा की जाती है । सौधर्मेन्द्र के आदेश से धनपति अपनी विक्रिया के द्वारा समवशरण की रचना करता है।' समवशरण सभा के १२ कोष्ठों में सभी प्रकार के प्राणियों के बैठने की व्यवस्था होतो है । मध्य में गंधकुटी होती है। गंधकुटी में स्थित सिंहासन पर तीर्थंकर अंतरीक्ष विराजमान होते हैं। उनके मस्तक पर त्रिछत्र होता है । प्रहंत अवस्था में तीर्थकर के चौदह अतिशय होते हैं। प्रशोकतरु, चामरधारी, देवदुंदुभि,, देवतानों द्वारा पुष्पवृष्टि, प्रभामण्डल, आदि का अंकन तीर्थकर प्रतिमा में पाया जाता है । समवशरण के प्रतीहार
जिनेन्द्र पूजा विधान के अवसर पर मण्डप के रक्षक प्रतीहारों की स्थापना की जाती है। जिनपूजामण्डप वस्तुतः समवशरण की प्रतिकृति होता है जिसकी रक्षा व्यन्तर जाति के देव किया करते हैं।
प्रतीहार देवतानों में से जया, विजया, अजिता और अपराजिता ये चार देवियां क्रमशः पूर्वादि द्वारों की प्रतीहारिणी होती हैं। इन देवियों के चार-चार हाथ बताये गये हैं। उन हाथों के प्रायुध, पाश, अंकुश, अभय मोर मुद्गर हैं । जंभा, मोहा, स्तंभा पोर स्तंभिनी, ये देवियां विदिशाओं में स्थित होती है। इसी प्रकार प्रभा, पद्मा, मेघमालिनी, मनोहरा, चंद्रभाला, सुप्रभा जया, विजया और व्यक्तांतरा ये देवियां अपने अपने वर्ण की अर्थात अरुण, कृष्ण, श्वेत आदिक ध्वजाएं ग्रहण करती हैं।'
___ मंडप के द्वारपालों का कार्य कुमुद, अंजन, वामन और पुष्पदन्त, ये चार प्रतीहार करते है । कुमुद पूर्व द्वार पर स्थित होता है, अंजन दक्षिण द्वार पर, वामन पश्चिम द्वार पर और पुष्पदन्त उत्तर द्वार पर स्थित हाता है । 'कुमुद पंचमुख होता है, उसका पासन स्वस्तिक है । कुमुद हाथ में हेमदण्ड धारण करता है।'
१. तिलोयपण्णत्ती, ४/७१०. २. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ५७८-५७६ तथा अन्य ३. प्रतिष्ठासारोदार, ३/२१६-२२५ ४. प्रतिष्ठासारोबार, ३/२०८-२०६; प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ २०६-११ ५. प्रतिष्ठासारोदार, २/१३६-१४२ ६. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ६५८