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षष्ठ अध्याय
विद्यादेवियां श्रुतदेवता सरस्वती
तिलोयपण्णत्ती में अनेक स्थलों पर श्रुतदेवी (सरस्वती) के रूप (प्रतिमाओं) का उल्लेख मिलता है।' मथुरा के जैन शिल्प में प्राचीनतम सरस्वती प्रतिमा प्राप्त हुई है जो लेखयुक्त है। बीकानेर तथा अन्य कई स्थानों की जन सरस्वती प्रतिमाएं सुप्रसिद्ध हैं।
श्रुतदेवता या सरस्वती की प्रतिमानों के निर्माण और उनकी पूजा की परम्परा जैनों में अति प्राचीन कालसे चली आ रही है। सरस्वती द्वादशांग श्रुतदेव की अधिदेवता है । भगवान् जिनेन्द्र के वस्तुतत्त्वनिरूपण को उनके गणधरों ने बारह अंगों में संग्रहीत किया था जिसे द्वादशाग पागम या श्रुत कहा जाता है। जिनेन्द्र की वाणी होने के कारण श्रत जिनेन्द्र के समकक्ष प्रामाणिक और पूज्य माना जाता है। इसलिये श्रुत को भी देव की संज्ञा प्राप्त हो गयी । कालान्तर मे श्रत की अधिदेवता के रूप में श्रतदेवता या सरस्वती के मूर्त रूप की कल्पना हुयी। सरस्वती को भारती, वाणी प्रादि अनेक नामों से स्मरण किया जाता है।
जैनों की सरस्वती प्रतिमा जैनेतरों की सरस्वती प्रतिमा से विशेष भिन्न प्रकार की नही होती। प्राचीन कालमे भारत के सभी धर्मावलम्बियों में सरस्वती की एक समान प्रतिष्ठा थी । मल्लिषेण ने अपने भारतीकल्प' में सरस्वतीवन्दना करते हुये लिया है कि हे देवि, साम्य, चार्वाक, मीमांसक, सौगत तथा अन्य मत-मतान्तरों को मानने वाले भी ज्ञानप्राप्ति के हेतु तेरा ध्यान करते है । मल्लिषेण ने वाणी (सरस्वती) को त्रिनेत्रा और जटाभालेन्दुमण्डिता कहा है । वर्ण श्वेत होता है और वह सरोजविष्टर पर आसीन होती है । सरस्वती के चार हाथों में से एक हाथ अभय मुद्रा में होता है और दूसरा हाथ ज्ञानमुद्रामें । शेष दो हाथों के आयुध क्रमशः अक्षमाला और पुस्तक हैं।'
१. ४/१८८१ तथा अन्यत्र । २. जैन सिद्धान्त भवन पारा का हस्तलिखित ग्रन्थ क्रमांक झ/८० ३. पही