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जैन प्रतिमाविज्ञान
जयमेन ( वसुविन्दु) के प्रतिष्ठापाठ मे शासन देवो की अर्चा-पूजा का उल्लेख नहीं है पर श्राशावर के प्रतिष्ठामारोद्धार, नेमिचन्द्र के प्रतिष्ठातिलक, पादलिप्नमूरि की निर्वाणकलिका और वर्धमानमूरि के प्रचारदिनकर जैसे ग्रन्थों मे शासन देवताओ को यथोचित बनि प्रदान किये जाने का विधान किया गया है ।
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श्री उमाकान्त शह के अनुसार, आठवी शताब्दी ईस्वी में जैन साहित्य में, और नौवी शताब्दी ईस्वी मे जैन प्रतिमा निर्माण में शाभन देवताओ का प्रवेश हुआ। इतने पर भी सभी देव देवियों की कल्पना एक साथ नहीं, बल्कि क्रमण हुयी थी । श्वेताम्बर ग्रन्था मा मन देवताग्रा की सम्पूर्ण सूची सर्वप्रथम हेमचन्द्र के प्रभिधानचिन्तामणि में मिलती है। उन देवताम्री के स्वरूप मवधी विवरण निपटाकरूपचरित्र में उपलब्ध होते है ।
अम्बिका
दिगम्बर परम्परा के ग्रात्रयनिगन (८ वी शताब्दी) के हरिवशपुराण में अ र श्वेताम्बर परम्परा के बाप मूर की चतुविशतिना (८००८६५ ईस्वी) में अम्बिका का दणन मिलता है। तदनुस र वह देवी द्विभुजा है । जिनसेन आचार्य के उसी इलाक में अप्रतिचका का भी उल्लेख है ।"
हरिभद्रसूरि ने श्रावश्यकनिर्युक्ति का टीका में ५ भी श्रम्बा कूप्माण्डी विद्या का उल्लेख किया है पर उसके वाहन आदि का विवरण नहीं दिया है । इससे पूर्व मे भी विशेषावश्यक महाभाग्य की क्षमाश्रमण महत्तरीय टीका मे यस्मिन्मन्त्रदेवता स्त्री सा विद्या श्रम्बाकूपमाण्डया : उल्नख तो मिलता है पर
१. निलोयपण्णत्ती मे दी गयी यक्ष-यक्षियो को सूत्री के संबंध मे श्री शाह का मन है कि वह अश पश्चात्काल गे जोडा गया था ।
२. श्री शाह निर्वाणकलिका को ११ वी १२ वी शताब्दी की कृति मानते है ।
३. हरिवशपुराण, जिल्द २, मर्ग ६६, श्लोक ४४
४. गृहीतचक्राप्रतिचक्रदेवता तथोर्ज्जयन्तालय सिंहवाहिनी
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शिवाय यस्मिन्निह सन्निधीयते क्व तत्र विघ्नाप्रभवन्ति शान्त्यं ।। ५. श्लोक ६३१