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________________ शासन यक्ष ६६ किन्तु श्वेताम्बर ग्रन्थो मे सर्वत्र गोमेध नाम ही मिलता है । तेईसवे तीर्थकर पार्श्वनाथ के यक्ष का नाम दिगम्बर परम्परा ने धरण या धरणेन्द्र है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में पार्श्व । श्वेताम्बर परम्पा के प्रवचनमारोद्धार मे उमे वामन कहा गया है । उपर्युक्त चतविंशति यक्षों के ग्रासन, वाहन, प्रायुध प्रादि का प्रतिमाशास्त्रीय विवरण दोनो परम्पराम्रो के ग्रन्थों के अनुसार नीचे दिया जा रहा है । गोमुख प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ के शासन यक्ष गोमुख का वर्ण स्वर्ण जैसा पीत है" । दिगम्बर परम्परा में इस यक्ष को वषवाहन और श्वेताम्बर परम्परा मे गजवाहन माना गया है । आचारदिनकर में इसे वृषवाहन के साथ द्विरदगोयुक्त श्रौर अपराजित पृच्छा में वृषवाहन कहा गया हे । दिगम्बर परम्परा मे गोमुख को यथानाम तथास्वरूप अर्थात् वृषमुख या गोवाक बताया जाता है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार इसके मस्तक पर धर्मचक्र होता है । रूपमण्डन मे यह यक्ष गजानन है' पर अपराजित पृच्छाकार वृषमुख बताते है ।" यक्ष गोमुख चतुर्भुज है | श्वेताम्बरों के अनुसार उसके दाय हाथा में से एक वरद मुद्रा में होता है और दूसरा अक्षमालायुक्त | बायें हाथों के श्रायुध मातुलिंग और पाश होते है ।" अपराजित पृच्छा और रूपमण्डन में भी यही आयुध बताये गये है किन्तु वहा दाये और बायें हाथों का अलग अलग उल्लेख नही किया गया है । वमुनन्दि न अलग थलग हाथों के श्रायुधा का उल्लेख न करते हुये परशु, बीजपूर, प्रक्षसूत्र और परद, ये चार प्रायुध बताय है । प्राशाधर' और नेमिचन्द्र' ने उपरले बाये हाथ मे परशु उपरने दाये हाथ में अक्षमूत्र, १. अपराजित पृच्छा में श्वतव बनाया है, वह भूल है । २. प्रशाधर ने वृषचक्रशीर्षम् और नेमिचन्द्र ने मूर्ध्नाधितधर्मचक्रम् कहा है । जान पडता है कि गोमुख को धर्म (वृप) का रूप दिया गया है जो वृषमुख हुआ करता है । ३. ६/१७ ४. २२१/४३. ५. ग्राचारदिनकर, निर्वाणत्र लिका, त्रिषष्टिशलाका प्रपचरित्र आदि मे । ६. प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५ / १३-१४. ७, प्रतिष्ठासारोद्धार, ३ / १२६ ८. प्रतिष्ठातिलक, पृष्ठ ३३१ ।
SR No.010288
Book TitleJain Pratima Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchand Jain
PublisherMadanmahal General Stores Jabalpur
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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