________________
जैन प्रतिमाविज्ञान
प्राणियों के आभ्यंतर मल को गलाकर दूर करने वाला और आनंददाता होने के कारण मंगल पूजनीय है। पूजा के समान मंगल के भी छह प्रकार जैन ग्रन्थकारों ने बताये हैं। वे ये हैं, १. नाम मंगल, २. स्थापना मंगल, ३. द्रव्यमंगल, ४. क्षेत्र मंगल, ५. काल मंगल और ६. भाव मंगल ।' कृत्रिम और अकृत्रिम जिन बिम्बों को स्थापना मंगल माना गया है। प्रवचन सारोद्धार और पद्मानंद महाकाव्य में जिनेन्द्र की प्रतिमाओं को स्थापना जिन या स्थापना अहंत की संज्ञा दी गयी है । जयमेन के अनुसार, जिन बिम्ब का निर्माण कराना मंगल है। भाग्यवान् गृहस्थों के लिए अपने (न्यायोपात्त) धन को सार्थक बनाने हेतु चैत्य और चैत्यालय निर्माण के बिना कोई अन्य उपाय नही है।
जिन प्रतिमा के दर्शन कर चिदानंद जिन का स्मरण होता है । अतएव जिन बिम्ब का निर्माण कराया जाता है। बिम्ब में जिन भगवान् और उनके गुणों की प्रतिष्ठा कर उनकी पूजा की जाती है । जन मान्यता है कि प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभनाथ के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने कैलास पर्वत पर बहत्तर जिन मंदिरों का निर्माण करवाकर उनमें जिन प्रतिमाओं की स्थापना कराई थी और तब से जैन प्रतिमाओं की स्थापनाविधि की परम्परा चली।
स्थापनाविधि या प्रतिष्ठाविधि का विस्तार से अथवा संक्षिप्त वर्णन करने वाले पचासों ग्रन्थ जैन साहित्य में उपलब्ध है । यद्यपि वे सभी मध्यकाल की रचनाएँ है, पर ऐसा नही है कि उन ग्रन्थों की रचना से पूर्व जन प्रतिमाओं का निर्माण नहीं होता था। अतिप्राचीनकाल से जैन प्रतिमाओं का निर्माण और उनकी स्थापना होती रही है, इस तथ्य की पुष्टि निश्शंक रूपेण पुरातत्त्वीय प्रमाणों और प्राचीन जैन साहित्य के उल्लेखों से होती है । आवश्यक चूणि ग्रादि ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर के जीवनकाल मे, उनके दीक्षा लेने से पूर्व, उनकी चन्दनकाप्ठ की
१. तिलायपण्णत्ता, १/१८. २. वही, १/२०. ३. प्रवचनसारोद्धार, द्वार ४२; पद्मानन्द महाकाव्य, १/३. ४. जयसेन कृत प्रतिष्ठापाठ, ७१५. ५. वही, २२. ६. वही, ६२-६३.