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________________ जैन प्रतिमाविज्ञान के मंत्राधिराजकल्प में यक्ष-यक्षियों तथा अन्य देवताओं की आराधना की गई है। बप्प भट्टि, विजयकीर्ति और उनके शिष्य मलयकीर्ति के सरस्वतीकल्प, भट्टारक अरिष्टनेमि का श्रीदेवीकल्प, भट्टारक शुभचन्द्र का अम्बिकाकल्प, यशोभद्र उपाध्याय के गिप्य श्रीचन्द्रसूरि का अद्भुतपदमावतीकल्प, ये सभी तांत्रिक प्रभावयुक्त हैं । इनमें देवियों के वर्ण, वाहन, प्रायुध आदि का विषरण उपलब्ध होने से वे जैन प्रतिमाशास्त्रीय अध्ययन के लिये उपयोगी हैं । लोकानुसरण करते हुये जैन आचार्यों ने ६४ योगिनियों और ६६ क्षेत्रपालों की स्ततियां और उनकी पूजाविधि मंबंधी कृतियों की भी रचनाएँ की थी। श्रावकाचार युग में श्रावकाचार ग्रन्थों, संहितानों और प्रतिष्ठापाठों की रचनाएं हुयीं । इन्द्रनन्दि और एकसंधि भट्टारक की जिनसंहितामों की प्रतियां उत्तर भारत में पारा, दक्षिण में मूड बिद्री और पश्चिम में राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध हुई हैं। उपासकाध्ययन नामक श्रावकाचार ग्रन्थ का उल्लेख अनेक कृतिकारों ने यथास्थान किया है। पूज्यपाद द्वारा रचित उपासकाध्ययन का भी उल्लेख मिलता है। मोमदेवसूरि के यशस्तिलक चम्पू के एक भाग का तो नाम ही उपासकाध्ययन है । वसुनन्दि ने उपासकाध्ययन का उल्लेख किया है पर उनका तात्पर्य किस विशिष्ट कृति से है यह ज्ञात नही हो सका है । स्वयं वसुनन्दि ने भी श्रावकाचार विषयक स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना की थी । चामुण्डराय ने अपने चारित्रसार में 'उक्तं च उपासकाध्ययने' लिखकर एक श्लोक उद्धृत किया है किन्तु वह श्लोक किसी उपलब्ध ग्रन्थ में मूलतः नहीं मिला है। प्रतिष्ठाग्रन्थों में से जयसेन या वसुविन्दु कृत प्रतिष्ठापाठ मे शासन देवताओं और यक्षों की पूजा का विधान नही मिलता । इस प्रतिष्ठापाठ की प्रकाशित प्रति मे जयसेन कुंदकुंद प्राचार्य के अग्र शिष्य बताये गये हैं । ग्रन्थनिर्माण का उद्देश्य बताते हुये सूचित किया गया है कि कोंकण देश में रत्नगिरि शिखर पर लालाट राजा ने दीर्घ चैत्य का निर्माण कराया था। उस कार्य के निमित्त गुरु की आज्ञा प्राप्तकर, जयसेन ने दो दिनों में ही प्रतिष्ठापाठ की रचना की। विक्रम संवत् १०५५ में रचित धर्मरत्नाकर के कर्ता का नाम भी जयसेन था । किन्तु यह कहना कठिन है कि धर्मरत्नाकर के रचयिता जयसेन और वसुविन्दु अपर नाम वाले जयसेन अभिन्न हैं अथवा नहीं । १. श्लोक ६२३-६२६
SR No.010288
Book TitleJain Pratima Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchand Jain
PublisherMadanmahal General Stores Jabalpur
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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