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________________ ५० जन प्रतिमाविज्ञान प्रत्येक चन्द्र की चन्द्रला, सुसीमा, प्रभंकरा और अचिमालिनी ये चार' और प्रत्येक सूर्य की द्युतिरुचि, प्रकरा, सूर्यप्रभा और अचिमालिनी ये चार अग्रमहिषी' हुआ करती हैं। वैमानिक देव इनके मुख्य भेद दो हैं, कल्पोपपन्न और कल्पातीत । तिलोयपण्णत्ती (८/१२-१७) में कुल प्रेसठ इन्द्रक विमान बतलाये गये हैं। उनमें से बावन कल्प मौर ग्यारह कल्पातीत । कल्पवासी देवों में इन्द्र, सामानिक प्रादि दस उत्तरोत्तर हीन पद रूप कल्प होते हैं। तिलोयपण्णत्ती (८/११५) में कहा गया है कि कोई बारह कल्प और कोई सोलह कल्प (स्वर्ग) मानते हैं । इसी भेद के कारण श्वेताम्बरों ने कुल इन्द्रों की संख्या ६४ और दिगम्बरों ने १०० बतायी है। दिगम्बरो में सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, गतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत, ये सोलह स्वर्ग माने गये हैं। उनमें से ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, महाशुक्र, और शतार कम कर देने से वह संख्या द्वादश हो जाती है । इन स्वगों तक कल्प हैं । इनके ऊपर कल्पातीत पटल हैं; नौ अंवेयक, नो अनुदिश और पांच प्रकार के अनुत्तर विमान । जन प्रतिमाशास्त्र में मुख्यतः सौधर्म और ईशान स्वर्ग के इन्द्रों का प्रसंग पाता है। लौकान्तिक देव केवल तीर्थकर के वैराग्य (तपकल्याणक) के समय पृथ्वी पर पाते हैं। उनके नाम सारस्वत, प्रादित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट हैं । तीर्थकर के जन्मकल्याणक के समय सोधमन्द्र भगवान को गोद में लेता है, ईशानेन्द्र छत्र धारण करता है, सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र चंवर ढौंरते हैं । शेष इन्द्र जय जय शब्द का उच्चारण करते हैं। सौधर्मेन्द्र और ईशानेन्द्र ही भगवान् का अभिषेक करते हैं तथा धनपति को सेवार्थ नियुक्त करते हैं । १. तिलोयपण्णत्ती, ७/५८ २. वही, ७/७७
SR No.010288
Book TitleJain Pratima Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchand Jain
PublisherMadanmahal General Stores Jabalpur
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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