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________________ ४६ जैन प्रतिमाविज्ञान देव चार प्रकार के माने गये हैं । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पभव । ये चतुनिकाय देव कहे जाते हैं। इन देवों में इन्द्र, सामानिक पायस्त्रिंशत्, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषिक ये उत्तरोत्तर हीन पद होते हैं। (व्यंतर देवों में त्रायस्त्रिंशत् और लोकपाल नहीं होते) भवनवामी और व्यन्तर देवों में दो-दो इन्द्र होते हैं। भवनवासी देव ___ मध्यलोक में नीचे अधोलोक में रत्नप्रभा नामक पृथ्वी के खर और पंकबहुल भाग में भवनवासी देवों के प्रासाद हैं । भवनवासी देवों के दस दस विकल्प हैं । वे भवनों में रहते हैं अतएव भवनवासी कहलाते हैं । उनकी जातियों के नाम असुर, नाग विद्युत्, सुवर्ण, अग्नि, वात, स्तनित, उदधि, द्वीप और दिक् हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ कुमार पद लगा रहता है यथा दिवकुमार । भवनवासी देवों के वर्ण और मुकुट चिह्न निम्न प्रकार बताये गये है : नाम वर्ग कृष्ण मुकुटो में चिह्न वृडामणि सर्प वज्र अमरकुमार नागकुमार विद्युत्कुमा सुपर्णकुमार अग्निकुमार वातकुमार स्तनितकुमार उदधिकुमार द्वीपकुमार दिक्कुमार कालश्यामल विद्युत् श्यामल अग्निज्वाल नीलकमल कालश्यामल कालश्यामल गरुड कलश तुरग वर्धमान (स्वस्तिक) मकर हस्ती सिह श्यामल श्यामल भ-नवासी देवों के इन्द्र अणिमादिक ऋद्धियों से युक्त एवं मणिमय कुण्डलो से अलंकृत होते हैं । इन्द्रों का किरीटमकट और प्रतीन्द्रों का साधारण १. पकबहुल भाग में राक्षसो और असुरकुमारों के । खरभाग में शेष व्यन्तरो और भवनवासी देवों के । २. तिलोयपण्णत्ती, ३/८-६; ३/११६-१२१
SR No.010288
Book TitleJain Pratima Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchand Jain
PublisherMadanmahal General Stores Jabalpur
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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