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दशम अध्याय
दस दिक्पाल जैन परम्परा में दिक्पालों की संख्या दस बतायी गयी है । ऊर्ध्व पोर प्रषो दिशामों के दिक्पालों की कल्पना जैनों की अपनी विशेषता है ।
कुछ विद्वान् दिक्पालों की कल्पना का प्राधार वैदिक संहिता को मानते है।' वैदिक देववाद में इन्द्र, अग्नि, वरुण, पवन, नैऋत्य प्रादि को महत्त्व का स्थान प्राप्त था पर जब पौराणिक देववाद को प्रधानता मिली तो वैदिक देवों का स्थान गौण हो गया और पन्ततोगत्वा वे दिक्पालों की श्रेणी में मा गये।
बताया जाता है कि प्रारंभ में चार ही दिक्पालों की गणना की जाती थी। पश्चात्काल में उनकी संख्या माठ हो गई। ऐसा भी मत है कि मष्ट दिक्पालों की पूर्व सूची में कुबेर और ईशान नहीं थे। उनके स्थान पर सूर्य पोर चन्द्र की गणना की जाती थी।
जैनों की प्रारंभिक सूची में भी चार लोकपालों या दिक्पागों का नाम मिलता है। तिलोयपण्णत्ती (तृतीय महाधिकार ) में उल्लेख है कि भवनवासी देवों के इनों के सोम, यम, वरुण पोर घनद (कुबेर) नाम के चार लोकपाल होते हैं । जंबूदीपपग्णत्तिसंगहो' में सौधर्मकल्प के नगरों की चारों दिशामों में यम, वरुण, सोम और कुबेर इन चार लोकपालों के निवास का उल्लेख है। वे इन्द्र के प्रतीन्द्र हुमा करते हैं । इस प्रकार सोम या चन्द्र को लोकपाल मानने की जैन मान्यता अधिक प्राचीन जान पड़ती है ।
विष्णुधर्मोत्तर ने चतुर्भुज लोकपालों को कल्पना की थी। अपराजितपृच्छा और रूपमण्डन जैसे ग्रन्थों में चतुर्भुज लोकपालों की परम्परा का निर्वहन किया गया किन्तु मग्निपुराण', मानसोल्लास" प्रोर बृहत्संहिता' प्रादि से ज्ञात होता है कि लोकपालों के विभज होने की मान्यता अधिक प्राचीन है। जैन परम्परा में भी दिक्पालों को विभुज माना गया है ।
१. बनर्जीः डेवलपमेण्ट माफ हिन्दू आइकोनोग्राफी, पृष्ठ ५२१ २. उद्देश्य ११, २१६-२१७ । ३. ३/५०-५३
५. १/३/७७२-७९८ ६. ५७/४२/५७