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जन प्रतिमाविज्ञान
मतभेद अधिक विस्तृत हो गया है। दोनों परम्परामों की यक्षियों के वर्ण, प्रासन, वाहन, प्रायुध आदि के संबंध में अलग अलग विवरण नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है। चक्रेश्वरी
प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ की शासनदेवता चक्रेश्वरी को अप्रतिचका भी कहा जाता हैं । पद्मानंद महाकाव्य ( १/८३-८४ ) में उल्लेख है कि चक्रेश्वरी सभी देवताओं में अधिदेवता है और वही देवी विद्यादेवियों में अप्रतिचक्रा के नाम से प्रसिद्ध है। चक्रेश्वरी को कहीं कही चक्रादेवी भी कहा गया है । चक्रेश्वरी देवी की स्तुति में स्वतंत्र रूप से अनेक स्तोत्रों की रचना हुयी है। श्री जिनदत्तमूरि महाराज ने भी चक्रेश्वरी स्तोत्र की रचना की है।
देवी चक्रेश्वरी का वर्ण स्वर्ण के समान पीत है । उसे श्वेताम्बर ग्रन्यों में गरुडवाहना कहा है किन्तु दिगम्बर ग्रन्थो में वह गम्डवाहना होने के साथ पद्मस्था भी है । अपराजिनपृच्छा और रूपमण्डन में भी चक्रेश्वरी को गरुड और पद्म पर स्थित बताया गया है ।
चक्रेश्वरी चतुर्भुजा, अष्टभुजा और द्वादशभुजा है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार जब वह कमलासना होती है तब द्वादाभजा तथा गरुडासन स्थिति में चतुर्भुजा होती है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्राय: अष्टभुजा चक्रेश्वरी का वर्णन मिलता है । अपराजितपच्छा में द्वादशभुजा का विधान है पर रूपमण्डन ने गरुडासीना देवी को तो अष्टभुजा किन्तु कमल अथवा गरुड पर पासीन अवस्थामें उसे द्वादशभुजावाली बताया है। अपराजितपृच्छा चक्रेश्वरी को षट्पाद कहती है ।' किन्तु, इसकी पुष्टि किमी अन्य ग्रन्थ से नहीं होती। आचारदिनकर के अनुसार यह देवी सौम्य प्राशय वाली है; सच्चक्रा होने पर भी परचक्र का भंजन करती है। रूपमण्डनकार ने अप्टभुजा देवी के वर, बाण, चक्र और शूल ये मायुध बताये हैं किन्तु उनके अनुसार द्वादशभुजा अवस्था में वह दो वज, पाठ चक्र, मातुलिंग और अभयमुद्रा धारण करती है । रूपमण्डन ने द्वादशभुजा देवी के प्रायुध अपराजितपृच्छा का अनुसरण करके बताये है । श्वेताम्बर परम्परा में चक्रेश्वरी के दायें हाथों में चक्र, पाश, वाण और वरद तथा बायें हाथों में चक्र, अंकुश, धनुष और वज्र, ये प्रायुध बताये
१. अपराजितपृच्छा, २२१/१५-१६