Book Title: Balavbodh Mokshmala
Author(s): Mansukhlal Ravjibhai Mehta
Publisher: Mansukhlal Ravjibhai Mehta
Catalog link: https://jainqq.org/explore/006234/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 გმიჭიერი იმიჯიზიიიიიიიიიიიიიიი भाई कचराभाई पुंजाभाईना स्मरणार्थे. श्रीमान् राजचंद्रजी प्रणीत बालावबोध-मोक्षमाळा. (सिंधु बिंदुरुप) जेणे आत्माने जाण्यो तेणे सर्व जाण्यु. .. -श्री निर्मथ प्रवचन. HarirrorarordPERMARATHI संशोधक, मनसुखलाल रवजीभाई महेता. प्रकाशक, मनसुखलाल रवजीभाई महेता. झवेरी बजार, मुंबई. चतुर्थ आवृत्तिः प्रति ३००० संवत १९७१. सन १९१५. मूल्य ०-८-०. rrrrrrrrr rrrrrrrry Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमदावाद: आ पुस्तक प्रकाशक रा. मनसुखलाल रवजीभाई महेताने अर्थे “ डायमंड ज्युबिली” प्रिन्टींग प्रेसमां देवीदास छगनलाल परीखे छाप्यु. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ आवृत्ति. --- श्रीमान् राजचंद्रे आ ' मोक्षमाळा ' नामक पुस्तक पोतानी लगभग सत्तर अठार वर्षनी वये लख्युं हतुं; अने ते संवत् १९४३ मां प्रथम आवृत्तिरुपे प्रकट थयुं हतुं. त्यार पछी तेनी बीजी अने श्रीजी आवृत्तिओ प्रकट थइ हती. आ चतुर्थ आवृत्ति बहार आवे छे. धर्मविषयक पुस्तक श्रेणी (series) लखावी जोइए एवा प्रकारनी चर्चा वर्षो थयां बीजां समाजोनी पेठे, जैनसमाजमां पण चर्चाया करे छे, तथापि आज सुधीमां तेवुं कोई कार्य थवा पाम्युं नथी. अन्यत्र आपेल अने श्रीमान् राजचंद्रने स्वहस्ते लखाएल "शिक्षण पद्धति अने मुखमुद्रा" ना आ शब्दोथी ' मोक्षमाळा' नी योजना ओए केवा प्रकारे करवा धारी हती ते जोई शकाय छे. "ते योजना ' बालावबोध ' रुप छे. 'विवेचन' अने 'प्रज्ञावबोध' भाग भिन्न छे. " अर्थात् जे पुस्तकनी आ चतुर्थ आवृत्ति प्रकट थाय छे ते "मोक्षमाळा" श्रीमान् राजचंद्रे योजवा धारेल 'मोक्षमाळा' नामक श्रेणीनो प्रथम खंड छे; अने ते 'बालावबोध' छे एटले के, प्रथम भूमिकाना मनुष्योने माटे ते लखायो छे. बीजो खंड तेओए 'विवेचन' रुपे लखवो धार्यो हतो; अने ते प्रथम भूमिकाना करतां उच्चतर भूमिकाने माटे करवानी धारणा हती. त्री जो खंड 'प्रज्ञावबोध' रुपे लखवा धार्यो हतो, अने ते उच्चतम भूमिकाने माटे अर्थात् दार्शनिक अभ्यासीओने माटे लखवानी धारणा हती. खेदनो विषय छे के, श्रीमान् राजचंद्रनी ते धारणा अक्रिय रहेवा पामी एटले आपणने बीजो अने त्रीजो खंड प्राप्त थवानुं न बन्युं. आ "बालावबोध" खंडनी बीजी आवृत्ति श्रीमान्ना देहोत्सर्ग पूर्वे थोडाक मास उपर छपाई हती. ते वेळाए आ ' बालावबोध ' खंडने पुस्तक बीजं एवं उपनाम तेओए अपाव्यं हतुं. एवं उपनाम - पाववानो तेओनो उद्देश ए हतो के, आ बालावबोध खंडना पण बे विभागो करवा. एक तो आ जे रुपे छे तेज रुपे राखवो; अने एक बीजो विभाग आ ' बालावबोध ' ना करतां पण वधारे सरल अने Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगम लखवो के, जे प्रथम भूमिकाना मनुष्योनी पहेलांनी प्रवेशक भूमिकाना मनुष्योने उपयोगी थाय.. - एटले के, मोक्षमाळानी श्रेणिना चार पुस्तको थवा योग्य हता. एक प्रवेशक भूमिका माटे, बीजं आ 'बालावबोध ' छे तेज रुपे, त्रीजु विवेचन भाग' रुपे अने चो) 'प्रज्ञावबोध भाग'रुपे. पण दुर्भाग्ये श्रीमान् राजचंद्रनो मात्र बत्रीश वर्षनी तरुण वये देहोत्सर्ग -थतां तेवू कांइ-पण न थवा पाम्यु. छतां दिलासानो विषय एटलो छे के, आ 'बालावबोध' खंड दिनप्रतिदिन लोकप्रिय थतोज जाय छे. जेनुं प्रमाण आ चतुर्थ आवृत्तिनुं प्रकाशन छे. - सामान्य वाचक सृष्टिमां आ पुस्तकनो उपयोग थाय छे एटलुंज नहीं, पण घणी ज्ञानशाळाओना व्यवस्थापकोए विद्यार्थीओने तेनुं नियमित शिक्षण आपवानो प्रबंध कयों छे. - आ चतुर्थ आवृत्ति अमदावाद निवासी भाई पुंजाभाइ हीराचंदना द्रव्यव्ययथी प्रकट थाय छे. भाई पुंजाभाईना एकना एक पुत्र भाइ कचराभाइ के जेनी मात्र तेर चउद वर्षनी बालवये स्वर्गवास थतां पुत्र स्मरणार्थे तेओए आ आवृत्ति वहार पाडवा द्रव्यव्यय कर्यो छे. संसारी मनुष्यनी सर्व आशाओरुप एकना एक पुत्रना वियोगे पण मनने केवी दिशामां लइ जदूं एनो अभ्यास भाई पुंजाभाईनी मनप्रवृत्तिपरथी आपणे करी शकीए छीए. जैन सूत्रो तेना मूल-टीका अने तेना भाषां. तरो साथे प्रकट करवाने माटे तेओए जे योजना करावी छे, अने जेने अंगे जिनागममा विशेष प्रसिद्ध एवं 'भगवती सूत्र' तैयार थाय छे ते भाई कचराभाइना देहत्याग पछीनी भाई पुंजाभाईनी मनप्रवृत्तिनुं एक प्रमाण छे. आशा राखवामां आवे छे के, आ चतुर्थ आवृत्ति पण पूर्वनी त्रण आवृत्तिओनी पेठे लोकरुचि तृप्त करशे. दादीना बील्डींग्स, ) झवेरी बजार,-मुंबई. मनसुखलाल रवजीभाई महेता. ।' ता. ५-४-१९१५. । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय. "The more I consider his life and his writings, • the more I consider him to have been the best Indian of his times. Indeed I put him much higher than Tolstoy in religious perception. Both Kavi and Tolstoy have lived as they have preached.” -Mr. M. K. Gandhi. ___“जेम जेम हुं तेओना जीवननी अने तेओना लखाणोनो विशेष विचार करुं छु, तेम तेम मारी विशेष प्रतीति थाय छे के तेओ एमना समयना सर्वोत्कृष्ट हिंदी हता. खरेखर, हुं तेओने टॉल्स्टॉय करतां धार्मिक स्वानुभव-आत्मानुभवमा विशेष गणुं छं. कवि अने टॉल्स्टोय बन्नेए जेवा प्रकारनो तेओए उपदेश आप्यो छे ते प्रमाणेनुंज चारित्र पाळ्यु छे." -मी. एम. के. गांधी. ___ काउन्ट टॉल्स्टॉय नामना रश्यन फिलसुफनुं नाम जगत्प्रसिद्ध छे. तेओ एक समर्थ राज्यद्वारी होवा छतां धर्म संबंधीना विषयोमां पण एक तत्त्वज्ञानी तरीकेनी कीर्ति संप्राप्त करी शक्या हता, एवी तेओनी धर्मविचारशोधकबुद्धि हती. तेओना विचारो पश्चिम भणीना संस्कारो करतां पूर्वभणीना संस्कारोने विशेष मळता आवे छे. आ समर्थ रश्यन फिलसुफनी सरखामणी कविना विरुदथी प्रख्यात थयेल स्वर्गीय श्रीमान् राजचंद्रनी साथे हालमां करवामां आवी छे. दक्षिण आफ्रिकामां एश्याटिकोनां हितने माटे अनेक संकटो भोगवी आजे सुधरेली गणाती पृथ्वी उपर श्रीयुत मोहनदास करमचंद गांधी, बॅरीस्टर-अॅट-लॉए पोतानुं नाम अमर कयु छे. श्रीयुत गांधीने श्रीमान् राजचंद्रनी साथे जाति समागम हतो. श्रीयुत गांधीए दक्षिण आफ्रिकामां आवेल नॅटाल देशना हिंदीओ प्रत्ये एक पत्र लख्यो छे. आ पत्रमा तेओए उपर्युक्त सरखामणी-श्रीमान् राजचंद्रनी अने काउन्ट टॉल्स्टॉयनी करी छे. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे रश्यन तत्त्वज्ञ आखी सुधरेली दुनियामां पोताना ज्ञानभंडोळ माटे कीर्ति संप्राप्त करी शक्या छे तेनी सरखामणीमां धार्मिक स्वानुभवमा श्रीमान् राजचंद्र विशेष आगळ वधी जाय छे एम श्रीयुत गांधीनो अभिप्राय प्रत्येके प्रत्येक हिंदीने एक अत्यंत अभिमान उत्पन्न कर्या विना रहे तेम नथी. श्रीमान् राजचंद्रनुं नाम जैन समाजमा एटलुं बधुं प्रसिद्ध छे के, तेओने माटे विशेष माहिती आपवानी जरुर नथी; छतां तेओना जीवननो संक्षिप्त ख्याल अन्यत्र आप्यो छे. अलाहबादमा नीकळता जाणीता अग्लो इन्डयन पत्र " पायोनीयरे" श्रीमान् राजचंद्रना देहोत्सर्ग समये एक स्थंभ लेख लखी आजे पण हिंदमां केवा पुरुषो उत्पन्न थाय छे ते बताववाना हेतुए ते लेखने " आजना हिंदीओ" (Indians of To-day) नामनुं मथाळु आप्युं तुं. ____ अमेरिकामा जइ जैन विषयक ज्ञाननो प्रचार करवा माटे जाणीता थयेला स्वर्गस्थ वीरचंद राघवजी गांधीए चिकागो शहरमां एक व्याख्यान आप्यु हतुं. आ व्याख्यानमा तेओए पूर्वना समयमां जैनमार्गमां केवी असाधारण शक्तिओना पुरुषोनुं उत्पन्न थर्बु थतुं हतुं ते बताववा माटे आचार्य भगवान् श्री हेमचंद्राचार्य- उदाहरण आप्यु हतुं; अने हालना समयमां पण जैन मार्ग पोताने विषे तेवा प्रकारनी शक्तिओ धरावनारा पुरुषो उत्पन्न करवानो गर्व लई शके छे एम बताववा माटे श्रीमान राजचंद्रनी असाधारण शक्तिओनुं विवेचन करी बताव्यु हतुं. स्वर्गस्थ वीरचंद गांधी जेवा बाहोश पुरुषे अमेरिकामा जइ पोताना मार्गने विषे जे पुरुषनी प्रत्यक्षता बताववा गर्व धर्यो हतो, तेमज श्रीयुत मोहनदास गांधी जेवा समर्थ आत्मभोग आपनार विद्वान् राज्यद्वारीए जे पुरुषर्नु अनुकरण करवा माटे आफ्रिकामां बेठां हिंदीओने उपदेश आपवामां पोतानुं कर्तव्य विचार्यु छे ते पुरुषनां वचमोनो थोडोक संग्रह प्रकट करवानुं मने उचित लाग्युं छे. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजनी अने ४५ वर्ष उपरनी हिंदनी स्थितिमा आकाश पाताळ जेटलो भेद पडी गयो छे. पीस्ताळीश वर्ष उपर धार्मिक, सामाजीक, अने राजप्रकरणी स्थिति जे दशा भोगवती हती, अने आजे भोगवे छे तेमां सामान्यमा सामान्य अवलोकनकारने न कल्पी शकाय एवो भेद दृष्टिगोचर थाय छे. हिंदनी सर्व सामान्य स्थिति आजथी ४५ वर्ष उपर आ रीते, जे दशा भोगवती हती तेना परिणाममां जैन मार्गनी स्थितिनो विचार, जो बराबर करवामां आवे, तो जणाय के, ते समये जैन मार्गनी स्थितिनी दशा घणीज मंद हती. जे समये आवी स्थिति वर्तती हती ते समये अत्यारे जाहेर रीते स्वीकाराएलां असाधारण शक्तिना आ पुरुष- जन्मवू जैन मार्गमां थयुं हतुं. महान् अंग्रेज लेखक मी० बर्क कहे छ के, दुनिया ५० वर्ष पाछळ छे. आ लेखकनो कहेवानो अभिप्राय एवा प्रकारनो छे के, दुनियाए आजे जे वात वस्तुतः समजवी जोइए, ते पचाश वर्ष पछी समजती थाय छे. श्रीमान् राजचंद्र ज्यारे समाज सन्मुख आव्या त्यारे जैन समाजनी स्थिति अनेक प्रकारना मतमतांतरोमां मशगुल हती. लोकोने एबुं मनाववामां आव्युं हतुं के पोते जे कुळमां जन्म्या होइए ते कुळना संप्रदायना धर्म विचारो गमे तेवा होय परंतु तेने वळगी रहेवामांज कल्याण छे. आ ईलाकानी तरफमां जैनना बे मुख्य गच्छोमां अनक अल्प अल्प बाबतोमा विखवाद चाल्या करतो हतो. संवत् १९४३ नी साल के जे सालनी लगभगना वर्षों "समकित सार" अने “समकित शल्योद्धार" रुपी क्लेशोनां स्थान हतां, त्यारे मात्र अढार वर्षनी पये श्रीमान् राजचंद्र जैन मार्गनी दशानुं नीचे प्रमाणे अवलोकन करी शक्या हताः-- "जैन समुदायमां परस्पर मतभेद बहु पडी गया छे. परस्पर निंदा ग्रंथोथी जंजाळ मांडी बेठा छे, महावीर भगवानना भणीथी उपासक वर्गनुं लक्ष गयुं; मात्र क्रियाभावपर राचता रह्या जेतुं परिणाम Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिगोचरछे. अंग्रेजोना शोधमा आवेली पृथ्विनी वसति लगभग दोढ अबजनी गणाई छे, तेमां सर्व गच्छनी मळीने जैन प्रजा मात्र वीश लाख (छेल्ला वसतिपत्रक प्रमाणे लगभग १३ लाखनी) लगभग छे ए प्रजा ते श्रमणोपासकनी छे. एमांथी हुं धारुं छं के, नवतत्त्वने पठनरुपे बे हजार पुरुषो पण मांड जाणता हशे; मनन अने विचारपूर्वक जाणनारा तो आंगळीने टेरवे गणी शकीए तेटला पुरुषो पण नहीं हशे; ज्यारे आवी स्थिति तत्त्वज्ञान संबंधी थई गई छे, त्यारेज मतमतांतर वधी पड्या छे. सर्वज्ञ भगवाननुं कहेलुं गुप्त तत्त्व प्रमाद स्थितिमा आवी पडयुं छे. तेने प्रकाशित करवा तथा पूर्वाचार्योनां गुंथेलां महान् शास्त्रो एकत्र करवा, पडेला गच्छनां मतमतांतरने टाळवा तेमज धर्म. विद्याने प्रफुल्लित करवानी अवश्य छ एम दर्शावु छु. पवित्र स्याद्वादमतनुं ढंकाएलुं तत्त्व प्रसिद्धिमा आणवा ज्यां सुधी प्रयोजन नथी त्यांसुधी शासननी पण उन्नति नथी. वाडामां बेसी रहेवा करतां मतमतांतर तजी एम करवु उचित छ. हुं इच्छु छ के ते कृत्यनी सिद्धि थइ, जैनांतर गच्छ मतभेद टाळो, सत्य वस्तु उपर मनुष्य मंडलर्नु लक्ष आवो अने ममत्व जाओ." ( मोक्षमाळा) . आ विचारो संवत् १९४३ नी सालमां समाज समक्ष मुक्या हता. आ समय एवो हतो के, ज्यारे समाजनो लक्ष बहुधा मतमतांतरनां रक्षण करवामां, अने ज्ञानरहित शुष्क क्रियाओमां कल्याण मानी लेवामां आवतुं हतुं. ज्ञान, आत्मज्ञान के तत्त्वज्ञाननो लक्षज लगभग आवरण पामी गयो हतो. ज्यारे श्रीमान् राजचंद्रे समाजने पोतान जीवन कर्तव्य आत्मत्व संबंधे शुं छे ते जाहेर कर्यु त्यारे समाजने ते वात उपर कडं तेम मी. बर्कना कहेवा प्रमाणे न समजाइ पण, हवे ते वात उपर लक्ष्य जतो जाय छ, ए जोइ संतोष थाय छे. ___ जैनने विषे मुख्य बे शाखाओ छे. श्वेतांबर अने दिगंबर. लगभग बे हजार वर्ष थयां तेओनी बच्चे अभिप्राय भेद एवो थइ गयो हतो के Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केम जाण तेओ एकबीजाना प्रतिपक्षीओ होय. श्रीमान् राजचंद्रे आबे शाखाओना संबंधमां आ प्रमाणे अभिप्र य धारण कर्यो हतो. ___ "शरीरादि बळ घटवाथी सर्व मनुष्योथी मात्र दिगम्बर वृत्तिए वर्तीने चारित्रनो निवाह न थइ शके ते थी ज्ञानीए उपदेशेली मर्यादापूर्वक श्वेताम्बरपणेथी वर्तमानकाळ जेवा काळमां चारित्रनो निर्वाह करवाने अर्थे प्रवृत्ति छे, ते निषेध करवा योग्य नथी. तेमज बनो आग्रह करी दिगम्बर वृत्तिनो एकांते निषेध करी वस्त्रमूर्छादि कारणोथी चारित्रमा शिथिलपणुं पण काव्य नथी. दिगम्बरपणुं अने श्वेताम्बरपणुं देश, काळ, अधिकारीयोगे उपकारना हेतु छे, एदले ज्यां ज्ञानीए जेम उपदेश्युं तेम प्रवर्त्ततां आत्मार्थज छे." श्रीमान् राजचंद्रना आ विचारो स्वत् १९५३ मां लखाया छे; अने त्यारबादज जैनना सर्व समुदायोमा मतमतांतर टाळी अविभक्त जैन स्थिति लाववानो घणो परिश्रम च ली रह्यो छे. ____ ज्ञानीओने स्वसंप्रदाय मोह होइ के ज नहीं. प्रमोद होइ शके पण मोह न होइ शके. तेओने वस्तुस्थिति प्राप्त करवानोज सतत लक्ष्य रह्या करे छे; तेओना चित्तमां जैन, वेद त, सांख्य के गमे ते दर्शननो पक्षपात होतोज नथी, तेओनी स्थिरता मात्र तत्त्वनी यथार्थता प्रत्येज होय छे. एकवीश वर्षनी वये एटले संवत १९४५ मां तेओना नीचेना लखाएला विचारो तेओनो धर्मआदर्श बतावे छे. " मोक्षना मार्ग बे नथी, जे जे पुरुषो मोक्षरुप परमशांतिने भूतकाळे पाम्या छे, ते ते सघळा सत्पुरषो एकज मार्गेथी पाम्या छे, वर्तमानकाळे पण तेथीज पामे छ; अने नविष्यकाळे पण तेथीज पामशे. ते मार्गमा मतभेद नथी, असरळता नथी, उन्मत्तता नथी, भेदाभेद नथी, मान्यामान्य नथी, ते सरळ मार्ग छे, ते समाधि मार्ग छे, तथा ते स्थिर मार्ग छ; अने स्वाभ विक शांति स्वरुपे छे. सर्व Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० काळे मार्गनुं होवापशुं छे. मार्गना मर्मने पाम्या विना कोई भूतकाळे मोक्ष पाम्या नथी, वर्तमानकाळे पामता नथी, अने भविष्यकाळे पामशे नहीं. श्री जिने सहस्र क्रियाओ अने सहस्र उपदेशो ए एकज मार्ग आपवा माटे कह्यां छे, अने ते मार्गने अर्थे ते क्रियाओ अने उपदेशो ग्रहण थाय तो ते सफळ छे, अने ए मार्गने भूली जइ ते क्रियाओ अने ते उपदेशो ग्रहण थाय तो ते सौ निष्फळ छे. श्री महावीर जे वाटेथी तर्या ते वाटेथी श्रीकृष्ण तरशे; जे वाटेथी श्रीकृष्ण तरशे ते वाटेथी श्री महावीर तर्या छे. ए वात गमे त्यां बेठां, गमे ते काळे, गमे ते श्रेणिमां, गमे ते योगमां ज्यारे पमाशे त्यारे पवित्र, शाश्वत सत्पदना अनंत अतींद्रिय सुखनो अनुभव थशे, ते वाट सर्व स्थळे संभवित छे. योग्य सामग्री नहीं मेळववाथी भव्य पण ए मार्ग पामतां अटक्या छे, तथा अटकशे, अने अटक्या हता. कोइ पण धर्म संबंधी मतभेद छोडी दुई एकाग्र भावथी सम्यक् योगे एज मार्ग संशोधन करवानी छे. विशेष शुं कहेतुं ? ते मार्ग आत्मामा रह्यो छे. आत्मत्व प्राप्य पुरुष - निर्मथ आत्मा - ज्यारे योग्यता गणी जे आत्मत्व अर्पशे-उदय आपशे त्यारेज ते प्राप्त थशे, त्यारेज तेनी वाट मळशे, त्यारेज ते मतभेदादिक जशे. मतभेद राखी कोई मोक्ष पाम्या नथी, विचारीने जेणे मतभेदने टाळ्यो ते अंतर्वृत्तिने पामी क्रमेकरी शाश्वत मोक्षने पाम्या छे, पामे छे अने पामशे, " प्रोफेसर ब. क. ठाकोरे श्रीमान्ना विचारोनुं अवलोकन कर्याबाद एवा अभिप्रायनो निश्चय कर्यो हतो के श्रीमान् राजचंद्र एक जन्मविरागी ( Born ascetic ) हता. तेओनी बालचर्याथीज तेओने विषे वैराग्य हतो. तेओनी आत्मज्ञाननी कई भूमिए स्थिरता हशे तेनो विचार करवाने माटे तेओश्रीना विचारोना मनननी नियमा जरुर छे. आज जडवादमूलक विज्ञानना जमानामां आत्मवादनी प्रतीति लोकोमाथी ओछी थती जाय छे. जेओ श्रीमान् राजचंद्रने, - तेओनी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ दशाने - तेओना विचारोने अन तेओना ज्ञान, दर्शन, चारित्रने अवलोकशे तेमने आत्मानी प्रतीति सहेजे थया विना नहींज रहे.. श्रीमान् राजचंद्रना विचारोनो संग्रह ७०० पृष्टना एक भव्य ग्रंथना आकारे प्रजा सन्मुख क्यारनो रजु थयो छे. आ संग्रहम तेओना तत्त्वज्ञान संबंधी निर्णयो, तेओनी आभ्यंतर दशानां अवलोकनो, अने अनेक परमार्थ संबंधीना विषयो छे. तत्त्वज्ञान के सिद्धांतज्ञान जेवा कठण विषयोना अधिकारीओ माटे ते ग्रंथनुं अवलोकन योग्य छे. 'मोक्षमाळा 'मां श्रीमान् राजचंद्रे सत्तर अढार वर्षनी वये पोतानो 'सामान्य मनोरथ' पोते आ प्रमाणे प्रकल्प्यो छेः मोहिनिभाव विचार अधीन थई, ना निरखुं नयने परनारी; पत्थर तूल्य गणुं परवैभव, निर्मळ तात्त्विक लोभ समारी ! द्वादशवृत अने दीनता धरि, सात्त्विक थाउं स्वरुप विचारी; ए मुज नेम सदा शुभ क्षेमक, नित्य अखंड रहो भव हारी. ते त्रिशला तनये मन चिंतवि, ज्ञान, विवेक, विचार वधारु; नित्य विशोध करी नव तत्त्वनो, उत्तम बोध अनेक उच्चारुं. संशय बीज उगे नहीं अंदर, जे जिननां कथनो अवधारू; राज्य सदा मुज एज मंनोरथ, धार, थश अपवर्ग, उतारुं. - सामान्य मनोरथ. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तेोश्रीना विचारोने माटे अभिप्राय आपवानी क्या जरुर छे ? जे पुरुषे आत्मानुभवथी विचारो बताव्या छे ते पुरुषना विचारोना संबंधमा बाह्यदृष्टि शो अभिप्राय आपे? एना संबंधमां विशेष नही कहेता श्रीयुत मोहनदास गांधीना शब्दोमांज ते विचारोथी केटली शांति मळे छे ते जणाव, बस थइ पडशे; " तेओनां आ पुस्तको में वांच्या छे, अने तेणे मने सवोत्कृष्ट शांति आपी छे." ___ आ बृहत् ग्रंथमांना विचारो एक जैन महानुभावना होवा छतां ते कोई पण दर्शनना अनुयाया वांचतां विचारतां एमज अनुभवी शकशे के, ते विचारो कोई पण संप्रदायना ममत्वने माटे नथी परंतु आत्मत्वप्राप्ति माटेना छे. तेथी आत्मकल्याणज थई शकवानु. ज्ञानीनी दृष्टि सदैव एकज वस्तुनी प्रानि माटे होय छ; अने ते वस्तु ते आत्मस्वरुप छे. श्रीमान् राजचंद्रनो आभ्यन्तर लक्ष-परम मनोरथ-शुंहतो ते सुज्ञ वाचक तेओना नीचे आपेल काव्यपरथी जोई शकशे. गुणस्थानक क्रमारोह. १. अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ? . क्यारे थईशुं बाह्यांतर निथ जो? सर्व संबंधनुं बंधन तिक्ष्ण छेदीने, __विचरशुं कव महत्पुरुषने पंथजो? अपूर्व० सर्व भावथी औदासीन्यवृत्ति करीः ____ मात्र देह ते संयमहेतु, होय जो; अन्य कारणे अन्य कशुं कल्पे नही, देहे पण किंचित् मूर्छा नव जोय जो. अपूर्व० ३. दर्शनमोह व्यतीत थई उपज्यो बोध जे, देह भिन्न केवल चैतन्यनुं ज्ञान जो; तेथी प्रक्षीण चारितमोह विलोकिये, वर्ते एवं शुद्धस्वरुपर्नु ध्यान जो. हो । अपवे. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. ६. ७ ८. ९. १३ आत्मस्थिरता त्रण संक्षिप्त योगनी, मुख्यपणे तो वर्ते देहपर्यंत जो; घोर परिषह के उपसर्गभये करी, आवी शके नहीं ते स्थिरतानो अंत जो. अपूर्व ० संयमना हेतुथी योगप्रवर्त्तना, स्वरुपलक्षे जिनआज्ञा नाधीन जो; ते पण क्षण क्षण घटती जाती स्थितिमां, अंते थाये निजस्वरुपमा लीन जो. पंच विषयमां रागद्वेष विरहितता, पंच प्रमादे न मळे मननो क्षोभ जो; द्रव्य, क्षेत्र ने काळ भाव प्रतिबंधवण, विचर उदद्याधीन पण वीतलोभ जो. क्रोधप्रत्ये तो वर्ते क्रोधस्वभावता, मान प्रत्ये तो दीनपणानुं मान जो; माया प्रत्ये माया साक्षी भावनी, लोभप्रये नहीं लोभ समान जो. बहु उपसर्गकर्त्ता प्रत्ये पण क्रोध नहीं, वंदे चक्रि तथापि न मळे मान जो; देह जाय पण माया थाय न रोममां, लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो. अपूर्व ० नग्नभाव, मुंडभाव सहअस्नानता, अदंतधावन आदि परम प्रसिद्ध जो; केश, रोम, नख, के अंगे शृंगार नहीं, द्रव्यभाव सयंममय निग्रंथ सिद्ध जो. १०. शत्रु मित्रप्रत्ये वर्ते समदर्शिता, मान अमाने वर्ते तेज स्वभाव जो, अपूर्व ० अपूर्व ο O अपूर्व ० अपूर्व ० Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवित, के मरणे नहीं न्यूनाधिकता, __भव मोक्षे पण शुद्ध वर्ते समभाव जो. अपूर्व० एकाकी विचरतो वळी स्मशानमां, ___ वळी पर्वतमा वाघ सिंह संयोग जो; अडोल आसन, ने मनमा नहीं क्षोभता, परममित्रनो जाणे पाम्या योग जो. १२. घोर तपश्चर्यामां पण मनने ताप नहीं, सरस अन्ने नहीं मनने प्रसन्नभाव जो; • रजकण के रिद्धि वैमानिक देवनी, ___सर्वे मान्या पुद्गल एक स्वभाव जो. अपूर्व० १३. एम पराजय करीने चारितमोहनो, __ आवं. त्यां ज्यां करण अपूर्व भाव जो; श्रेणी क्षपकतणी करीने आरूढता, __अनन्य चिंतन अतिशय शुद्ध स्वभाव जो. अपूर्व० १४. मोह स्वयंभूरमण समुद्र तरी करी, स्थिति त्यां ज्यां क्षीणमोह गुणस्थान जो; अंत समय त्यां पूर्ण स्वरुप वितराग थई, .. प्रगटा निज केवलज्ञाननिधान जो. अपूर्व० - १५. चार कर्म घनघाती ते व्यवच्छेद ज्यां, भवना बोजतणो आत्यंतिक नाश जो; सर्वभाव ज्ञाता दृष्टा सह शुद्धता, .. __ कृतकृत्य प्रभु वीर्य अनंत प्रकाश जो. अपूर्व० १६. वेदमियादि चार कर्म वर्ते जहां, बळी सौंदरीवत् आकृति मात्र जो; ते देहायुष आधीन जेनी स्थिति छ, आयुष पूर्णे, मटिये दैहिकपात्र जो. अपूर्व० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. मन, वचन, काया ने कर्मनी वर्गणा, . छूटे जहां सकळ पुद्गल संबंध जो; ए, अयोगी गुण स्थानक त्यां वर्ततुं, महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबंध जो. अपूर्व० एक परमाणु मात्रनी मळे न स्पर्शता, पूर्ण कलंकरहित अडोलस्वरूप जो; शुद्ध निरंजन चैतन्यमूर्ति अनन्यमय, अगुरुलघु, अमूर्त सहजपदरूप जो. __अपूर्व० १९. पूर्व प्रयोगादि कारणना योगथी, उर्ध्वगमन सिद्धालय प्राप सुस्थित जो; सादि अनंत अनंत समाधिसुखमां, __ अनंत दर्शन, ज्ञान, अनंत सहित जो. अपूर्व० २०. जे पद श्री सर्वज्ञे दीढुं ज्ञानमां, कही शक्या नहीं पण ते श्री भगवान जो; तेह स्वरुपने अन्य वाणी ते शुं कहे ! अनुभवगोचर मात्र रह्यं ते ज्ञान जो. अपूर्व० २१. एह परमपदप्राप्तिनुं कर्यु ध्यान में, ___ गजावगर ने हाल मनोरथरुप जो; तोपण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो, प्रभुआज्ञाए था| तेज स्वरुप जो. _अपूर्व० . श्रीमान् राजचंद्रनुं जीवन आध्यात्मिक होई तेओर्नु आलेखन शी रीने करवु ? तेओनी दशा तेओनाज शब्दोमां कहेवी योग्य थइ पडशेः धन्य रे दिवस आ अहो, ___ जागी रे शांति अपूर्व रे; दश वर्षे रे धारा उल्लसी, ___ मट्यो उदय कर्मनो गर्व रे, धन्य. ओगणीसें ने एकत्रीसें, आव्यो अपूर्व अनुसाररे; Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ओगणीसें ने बेतालीसें, वैराग्य धार रे. अद्भुत ओगणीसें ने सुडनालीसें, समकित शुद्ध प्रकाश्यं रे; श्रुत अनुभव वधती दशा, निज स्वरुप अवभास्युं रे. त्यां आव्यों रे उदय कारमो, परिग्रह कार्य प्रपंच रे; जेम जेम ते हडमेलीए, तेम वधे न घटे रंच रे. वधतुं एम चालियं, हवे दीसे क्षीण कांइ रे; क्रमे करीने ते जरो, एम भासे मन मांहि रे. यथा हेतु जे चिनो, सत्य धर्मनो उद्धार रे; थशे अवश्य आ देहथी, एम थयो निरधार रे. आवी अपूर्व वृत्ति अहो, थशे अप्रमत योग रे; केवळ लगभग भूमिका, स्पर्शिने देह वियोग रे. अवश्य कर्मनो भोग छे, भोगववो अवशेष रे; तेथी देह एकज धारीने, जाशुं स्वरुप स्वदेश रे. धन्य० धन्य० धन्य ० धन्य० धन्य० धन्य० धन्य ० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INDIANS OF TO-DAY. ( From The Pioneer, 22n 1 Mar 1901. ) We have already quoted a short account from the Bombay paper of Shrimad Rajchandra Ravjibhai, (popularly known as Kavi) a rising Jain reformer, who died on April 9th, 1901, in Rajkot, Kathiawar at the premature age of 33. Shrimad had the reputation of being the only Shatavadhani poet of India, when he was only nineteen. Avadhana means attention. Shatavadhana means attention to a hundred things at a time. A poet is styled Shatavadhani, when he stores up a hundred things in his memory,-be they verst:s in different languages whose words are recited to him at random, or some games such as chess, cards, &c., or any other things, and reproduces them in their proper order from mi mory. During the per formance the strokes of a bell are counted, and arithmetical problems are solved by the poet. This feat of memory power, coupled with poetic gifts,-for the Shatavadhani poet, has also to compose poetry extempore,-can be realised better by sight than description. Shrimad Rajchandra was a living psychological instance of how far memory can be developed. He was considered by his admirers to be one of the greatest moral teachers of our time and country, and the enlightened portion of the Jain community regarded him as its youngest great philosopher in this Pancham Kal. He was born in Vavanya, Kathiawar, in 1867, of Vanika parentage. As a boy at school he showed extraordinary powers of memory. He finished within two years the vernacular course of his studies, which generally requires six years to complete. His teachers regarded him as a prodigy of intellect and memory. At a very early as he showed a predilection for poetry. At the age of ninie; he wrote small Ramayana and Mahabharata in Padya (poetry). At the age of twelve, he wrote three hundred Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ stanzas on a clock in three days. This shows that Shrimad was a born poet He also began to contribute to several monthly magazines, and newspapers, and wrote an essay on the importance of female education. When he was thirteen, he went to Rajkot to study English. At the age of fourteen or fifteen, he went to Morvi, and performed an Ashtavadhana (in which eight things are attended to at a time) feat before a circle of friends. He then increased the Avadhanas from eight to twelve, and gave a public performance of the same. He gradually increased his powers of memory to such an extent that from twelve Avadhanas he began to perform sixteen, and from sixteen fifty-two and lastly, one hundred, and thus at the age of nineteen, he became a Shatavadhani poet. He went to Bombay and gave a public performance of his Shatavadhans, in the Framji Kavasji Institute and other places. For these wonderful feats of memory he was awarded a gold medal by the Bombay public, and was given the name of Sakshat Saraswati ( MHIC 2477441.) Mr. Malabari, the well-known social reformer, after witnessing the performance wrote in his paper, the Indian Spectator, a very admirable article calling Shrimad, "a prodigy of intellect and memory.” Shortly after this, at the instance of the late Sir Charles Sargent, the then Chief Justice of the High Court of Bombay, Dr. Peterson, Mr. Yajnik, and such other well-known citizens, arrangements were made for a big public meeting to witness Shrimad's Shatavadhana. The public and the Press expressed their high appreciation and admiration of the young prodigy. Sir Charles advised him to visit Europe and exhibit his powers there, but he could not do so, as he thought he could not live in Europe as a pure Jain ought to live. After such public recognition, a sudden change seemed to come over him. At the age of twenty, he completely disappeared from the public gaze. He determined to use his powers and abilities for the instruction and enlightment of Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્ his community and the people at large. From his every early age he was a voracious reader. He studied the six schools of religions) and other systems of Oriental and Western philosophy. Strange though it might seem it was a fact that a book was required to be read only once in order to be digested, and without any regular study of Sanskrit and Prakrit, he could accurately understand works in those languages and explain them to others, as only learned scholars could be expected to do. Shrimad now began to inculcate his taste for knowledge in others and soon attracted a large number of disciples, whom he guided to the proper study of the Jain philosophy. He found that the Acharyas (religious teachers) of the time held narrow and secatrian views, and did not appreciate the change of times. Again those who renounced the world were generally lacking in some of good things of the world, and had some reason or other to be dissatisfied with their lot in the world. Such men could not impress their congregations by their example. He believed that if a man of wealth, and social position renounced the world, he could work real good by his example; convinced of his sincerity and disinterestedness, the people would more readily follow his guidance and profit by his preaching. Holding such views, he had believed that he had not sufficiently qualified himself to appear before the public as an ascetic and a spiritual guide, and he conti, nued steadily a man of the world. though his inclinations were all the other way. When he was twenty-one, he took to business and in a very short time gained the credit of being a capable jeweller. The cares of a flourishing business, however, did not keep him from his favourite study of religion and philosophy. In the midst of his busy life he was quietly extending his studies and was always found surrounded by his books. Again, for some months of the year, he would leave Bombay with ins tructions to the members of the firm not to correspond with him unless he wrote to them. He used to retire into the Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 forests of Gujerat and there pass days and weeks in meditation and yoga. He always tried to conceal his identity and whereabouts, and, in spite of that, he was often found out followed by a large number of people, eager to listen to his preaching and advice. .! 'After ten years of business life, he felt that he had accomplished the object with which he had entered business, He expressed his desire to sever his connection with it. Knowledge, possession of wealth, social position, the enjoyment of family happiness ( for Shrimad had parents, one married brother, four married sisters, a wife, two sons and two daughters, all living ), he was preparing to renounce the world and lead the life of an ascetic. In the meantime, in his 32nd year, his health gave way. He was treated by a number of competent medical men. And once there was a change for the better. A relapse, however, followed, and after an illness of more than a year, in spite of competent medical treatment and good nursing by devoted disciples, he quietly passed away on the gth ultimo, ( April, 1901) at Rajkot, Kathiawad. During his long and painful illness he never uttered a sigh or a groan. He was cheerful while all others around him were despondent. Besides scattered poenis he has written . several works. His Moksha Mala has already been published. This work is the keynote of Jainism. This, he had written at the age of seventeen. Among his unpublished works there are AtmanSiddhi-Upaya and Panchastikaya, and several essays on the Atman or soul. The corner-stone of the Jain religion and philosophy is the theory of Karma, in which he strongly believed. He thought of writing a convincing treatise on this theory, and a series of works on the principles taught by the Great Mahavira, but unfortunately he was prevented from doing so by his long illness. He had also solved several difficult problems of religion. After careful study of the Jain and the Buddhist literature, he had come to the conclusion Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ that both Mahavira and 'Buddha were different personages, their *principles were quite different nd the belief of European scholars, that Jainism was the offspring of Buddhism was not well founded. He said, that in the Jain manuscripts, of two thousand years old, it was clearly stated that the Great Mahavira and the Great Buddha were hard religious competitors. Shriinad had also maintained that the two chief sects of Jainisin,-the Digamber and the Swetambara-were the outcome of irregular condition of the country. The above short sketch of his life is sufficient to show that, Shrimand Rajchandra was in every way a remarkable man. His mental powers were ext; aordinary. At the same time the moral elevation of his character was equally striking, His regard for truth, his adherance to the strictest moral principles in business, his determination to do what he beli. eved to be right, in spite of all opposition, and his lofty ideal of duty, inspired and elevated those who came in contact with him. His exterior was not mposing, but he had a serenity and gravity of his own. On account : of his vast and accurate knowledge of religions and philosophy, his wonderful powers of exposition and his lucid delivery, his discourses were listened with the utmost attention. His selfcontrol under irritating circumastances was so complete, his persuasive powers so great, and his presence so inspiring, that those who came to discuss with him in a defiant and combative frame of mind, returned quite humiliated and full of admiration. Shrimad Rajchandra deplored the present condition of India, and was always solicitous for its amelioration. His views on the social and political questions of that day were liberal. He said there ought not to be any thing like caste. distinction amongst the Jains, as those who were Jains were all ordered to lead similar life. Among all the agencies for reform, he assigned the highest place to the religious reformer, working with the purest of motives and without ostentation, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ He found fault with the religious teachers of the present day because, they preached sectarianism, did not realise the change of the times, and often forgot their real sphere in the desire to proclaim themselves as avatars of God, and arrogated to themselves powers which they did not possess. In his later years, it was clear that he was preparing to fulfil his life's mission in that capacity. But unfortunately death intervened and the mission remained unfulfilled. Shrimad had, however, succeeded in creating a new spirit among the Jains in the Bombay Presidency. It is generally believed that had he lived long, he would have revolutionised the whole system of the present Jain religion, and would have taught the people what the Great Mahavira had actually taught. He wanted to do away with the numerous sects of the Jain religion in order to establish one common religion, founded by Mahavira. That such an useful life should have been cut short at this premature age was a distinct loss to the country. His admirers have already collected about Rs. 11,000 to perpetuate his memory A movement is still going on to increase the fund. It is expected that an institution to collect old manuscripts and to publish the work of the Jain religion which remain unpublished, in several Bhandaras, will be started, bearing his honoured name. It is 'hoped that some Qng of his numerous disciples may give the public a. com, prehensive account of his life and work. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजना हिंदीओ. [अलाहबादना 'पायोनीयर' (२२, मे, १९०१) पन उपरथी.] . अमे मुंबईना वर्तमानपत्रोमाथी श्रीमद् राजचंद्र रवजीभाई (प्रसिद्धिमा 'कवि' तरीके ज्ञात थयेला) अने उगता जैनसुधारक के जे काठियावाडमां आवेल राजकोटमा ३३ वर्षनी अकाल उमरे १९०१ ना एप्रिलनी नवमीए गत थया तेनुं टुंक वर्णन क्यारनुं टांकेल छे. ज्यारे १९ वर्षना हता त्यारे हिंदीना शताबधानी कवि वेओ एकज छ एवं मान श्रीमद्ने मळ्युं हतुं. अवधान एटले लक्ष. शतावधान एटले एकी वखते सो वस्तुपर ध्यान आपq ते. एक कवि ज्यारे पोतामी स्मरणशक्तिमा एक सो बाबतोनो संग्रह करी राखे छे त्यारे ते शतावधानी कहेवाय छे. आ बाबतोमा जुदी जुदी भाषाओनी कविताओ के जेमांना शब्दो आडाअवळा क्रममां गमे तेम कहेवामां आवे छे, अथवा शेतरंज, पानां आदि केटलीक रमतो अने बीजी केटलीक बाबतोनो समावेश थाय छे. आ अवधानक्रियामां घंट वगाडवामां आवे छे तेना टकारा गणतां गणतां गणितना दाखलाओ करी आपे छे. कवित्वनी बक्षीस साथेनी-कारण के शतावधानी कविने पूछेली कविता तात्कालिक अने शिघ्र रीते करवी पडे छे-स्मरणशक्तिर्नु आवी रीते व्यक्तत्व वर्णन करतां दृष्टिए जोयाथीज तेनो खरो ख्याल आवी शके छे. श्रीमद् राजचंद्र, स्मरणशक्तिनो केटलो बधो विकास करी शकाय छे तेना अध्यात्मशास्त्रदृष्टया प्रत्यक्ष उदाहरणरुप हता. तेमना स्तुतिकारो तेओ आपणा समय अने देशना महत्तम नीतिशास्त्रना उपदेशकोमांना एक हता एम गणता; अने जैनसमुदायना सुशिक्षित पुरुषो तेओने आ पंचमकालना एक उछरता महान् फिलसुफ तरीके लेखता. तेमनो जन्म काठियावाडना ववाणिया गाममां वणिकज्ञातिमां १८६७ मां थयो हतो. नानपणमां ज्यारे तेओ शाळामां जता त्यारे तेओए Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्भुत स्मरणशक्ति दर्शावी हती. गुजराती भाषामांनो अभ्यासक्रम के जे पूरो करवाने छ वर्ष लागतां हतां ते तेमणे बे वर्षनी अंदर पूरी 'को. लेमना शिक्षको तेमने बुद्धि अने स्मरणशक्ति विषये असाधारण लेखता. घणीज नानी उमरथीज तेमने कविता प्रत्ये अनुराग हतो. नव वर्षनी वयमा तेमणे पद्यमां नाना रामायण अने महाभारत लख्यां हता. बार वर्षनी वयमा त्रण दिवसमां घटिकायंत्रपर त्रणसो वृत्त लख्या हता. आ दर्शावे छे के श्रीमद् आजन्मसिद्ध कवि हता. तेमणे केटलाक मासिक अने जाहेर वर्तमानपत्रोमां लखाण लखवा मांड्यां हता, अने स्त्रीकेळवणीनी उपयोगिता उपर एक निबंध लख्यो हतो.. तेर वर्षनी उमरे तेओ इंग्लिश भाषानो अभ्यास करवा राजकोट गया १४ के. १५ वर्षनी उमरे तेओए मोरबी जइ मित्रमंडळ पासे अष्टा, वधान (एकी वखते आठ बाबतोमा चित्त राखवानी क्रिया) कर्या. पछी आठमाथी बार अवधान करवानी शक्ति वधारी अने पछी ते बार अवधानो प्रजा समक्ष कर्या. तेमणे धीमे धीमे पोतानी स्मरण: शक्ति एटला बधा प्रमाणमां वधारी के बारमांथी सोल अवधान कर्या, सोळमाथी बावन अवधान कयां अने अंते सो अवधान को, अने आवी रीते ओगणीस वर्षनी उमरे तेओ शतावधानी कवि थया. तेओए मुंबई जइ पोतानी शतावधान करवानी शक्ति फरामजी कावसजी इन्स्टिटचट अने अन्य स्थळोए प्रजा सन्मुख करी बतावी. आ आश्चर्यभूत स्मरणशक्तिनी क्रियाओथी तेमने प्रजाए सुवर्णचंद्रक (चांद) आप्यो अने 'साक्षात् सरस्वति 'नुं विरद आपवामां आव्यु. प्रसिद्ध सुधारक मि. मलबारीए उपरोक्त शतावधानक्रिया जोई पोताना. पत्र नामे 'इन्डिअन स्पेकटेटर'मां ते विषये घणोज स्तुतिप्रदर्शक लेख लख्यो अने तेमां श्रीमद्ने " बुद्धि अने स्मरणशक्ति अद्भुत रीते धरावनार" (a prodigy of intellect and memory ) कह्या. आ पछी थोडाक वखतमा मुंबईनी हाईकोर्टना मुख्य न्यायमूर्ति सर चार्ल्स Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारजन्ट, डॉक्टर पीटर्सन, मि. याज्ञिक अने अन्य प्रतिष्ठित पुरुषोनी प्रेरणाथी श्रीमद्ना शतावधान जोवाने माटे एक महान् लोकसभा बोलववाने व्यवस्था करवामां आवी. आ असाधारण शक्तिवाळा युवकनी स्तुति अने कदर लोकोए अने पत्रवाळाओए* उत्तम रीते प्रदर्शित करी. सर चालें तेमने युरोपमा जई त्यां पोतानी शक्तिओ दर्शाववाने भलामण करी पण तेओ तेम करी शक्या नहि. कारण के तेमणे विचार्यु के, युरोपमा पोते जैनधर्मानुसार रही शके नहि. आवी रीते समग्र प्रजामां ख्याति थया पछी तेमना पर एकाएक नवं परिवर्तन आव्यु होय तेम जणायु. वीस वर्षनी वये प्रजानी दृष्टिमाथी ___ * जूदा जूदा वर्तमानपत्रोए श्रीमद् राजचंद्रना संबंधमां लखेल लेखो. मांथी अहीं ता. ४, डिसेम्बर, १८८६ ( संवत् १९४३ ना मागशर शुद ८, शनि) ना अंकमां 'मुंबई समाचार' पत्रे लखेलो एक अग्रलेख (Leading article) मूकीए छीए:अदभुत स्मरणशक्ति तथा कविताशक्ति धरावनार एक जवान हिंदुनी अत्रे पधरामणी, अन तेना तरफथी थता शतावधानना प्रयोग. मोरबीथी कविश्री रायचंद्रजी रवजीभ ई नामनो मात्र ओगणीश वरसनी वयनो एक हिंदु गृहस्थ अत्रे आवी स्मरणशक्ति तथा कविताशक्तिनां जे अद्. भुत कृत्यो करी देखाडे छे तेनाथी वांचनाराओने अमे वाकेफ करता जईए छीए, एवी महान् शक्तिना पुरुषो एकथी वधारे आवी गया छे, अने खुद मुंबईमां शीघ्र कवि पंडित गट्ठलालजी तेवी शक्ति धरावनार तरीके जाणीता छे; पण हमणा आवेलो सदर्ह पुरुष तेओ करतां चढती शक्तिनो कहेवाय छे; एटले बीजाओ ज्यारे अष्टावधानना एटले एकीवेळा आठ प्रकारना प्रयोगो करी बतावे छे त्यारे आने शतावधानी एटलं एकसो प्रयोगो करी देखाडनारो समजवामां आवे छे. तेमनानां रहेली शक्तिनी मोटी खुबी ए छे के, तेओ एकी वेळा अनेक बाबत पोताना मनमां याद राखी तथा रमी शके छ; अने ते बाबत जेम सहेली तेम कविता, गणीत अने भाषाना सरखी अघरी पण होय छे. गमे एवा कठण छंदमां तेओ बोल बोलतामां कविता रचे छे; गमें एवी अजाणी अने पारकी भाषामां कहेला उलट पालट शब्दोना वाक्योने सरखां गोठवी आपे छ; अने ते सधळु एक बीजानी साथे वचे वचे करे छे. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण रीते तेओ अदृश्य थया. पोतानी शक्ति अने बुद्धिबळनो उपयोग पोताना समुदायवर्गमां अने विस्तारथी समग्र लोकने शिक्षा अने ज्ञानबोध आपवामा करवा माटे तेमणे निश्चय कर्यो. तेओ घणी नानी उमरथी अतिशय परिमाणमां वांचनार हता. तेमणे षड्दर्शननी आलोचना करी; अने तेनी साथे पूर्व तेमज पश्चिमनी फिलमुफीमां दर्शनो जोगां. जो के आश्चर्यकारक लागशे, परंतु आतो वास्तविक सत्य छे के तेमने पुस्तकने पूर्ण रीते ग्रहण करवाने फक्त एकज वखत बांचवाबी जरूर ए शक्तिओ खरेज अद्भुत अने असाधारण छ; अने ते केम खीले छे तथा कामे लागे छ तेनी तपास करी तेनो लाभ लेवानी तमधीज करवी जोईए छे. आटलुं तो खरं छे के, एवी शक्ति कुदरतनी एक बक्षीश मात्र छे, अने ते कोईज भाग्यशाळी गृहस्थने अपण थयेली होय छे; पण ते खीली के वधी शके के नहीं अने माणस जातना कारोबार तथा बहेवारमा आवी शके के नहीं ते नक्की करवानी जरुर छे. केटलीक तरफथा एवं मानवामां आवे छे के, ते तेवा उपयोगमा आवी शके ही; अने जो लेवा मांगे, तो तेनुं बळ ओर्छ थतुं जाय. आमां केटली सचाई छे ते पण शोधी काढवू जोईए. जो ए शक्ति एवा उपयोगमां आवी शके नहीं तो पछी ते मात्र जोवानी अने नवाईनीज थई पडे. पण आपणे एकदम तेम मानीशं नहीं. माणस जातमां ईश्वरे मेलेली दरेक शक्तिओ खोलवीने वधारी शकाय छे, तेम उपली अद्भुत शक्तिओना संबंधमां पण थQ जोईए; अने जो तेम होय तो पछी आवा चमत्कारिक पुरुषोने उत्तेजन आपी तेमनी शक्ति खीलववा अने तेने लोकोपयोगी काममां आणवानी कोशेष करवाथी आपणे पछात पडवू जोईतुं नथी. एवा पुरुषो जो युरोप के अमेरिकामां होय तो तेओ मोटां मान अने दोलते पोषाय; तथा प्रजा अने सरकार तेमने उत्तेजन आपी आगळ वधार्या वगर रहे नहीं अत्रे पण तेमज थर्बु जोइए छ; अने तेम थशे तोज एवा नामीचा पुरुषोनो आपणामां वधारो थशे. आ वात पण तपासवा जोग छे के, एवा पुरुषो अत्यार सुधी हिंदु कोममाथीज मळी आवे छे. मोहमेदन, पारसी वगेरे कोममांथी तेओ मळी आवतां नथी एनुं कारण ? शुं एवा पुरुषो चोकस जातमांज जन्म पामे छे अथवा वंशपरंपरा उतरे के ए सर्व बाबतोनी तपास करतां अगत्यना खुलासा मळशे, अने तेथी एवा पुरुषो उत्पन्न थवानो काई नियम जणावा जोडे तेमनी वृद्धिथी प्रजाने फायदो थशे. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ रहेती अने संस्कृत अने प्राकृतना नियमित अभ्यास वगर तेओ ते भाषामांना पुस्तको म्होटा पंडितोनी पेठे यथार्थ रीते समजी शकला अने बीजाने समजावी शकता. तेओए जोयुं के धर्मगुरुओ वर्तमानकाळमां सांप्रदायिक दृष्टिथी संकुचित-टुंक मर्यादावाळा-विचारो धरावे छे अने कालना परिवर्तन अनुसार केवी रीते वर्तन करवू जोइए ते समजता नथी. विशेष जेओ आ संसारनो त्याग करी त्यागवृत्त स्वीकारे छे तेओमा केटलाक सांसारिक संपत्तिओना अभावे तथा संसारथी एक या बीजा कारणथी थयेला असंतोषने परिणामे तेम करे छे. आवा पुरुषो पोताना चारित्र्यनी असर तेओना समुदाय प्रत्ये पाडी शकता नथी. श्रीमद्नी एवी मानीनता हती के धनवान अने सांसारिक सारी स्थितिवाळो पुरुष संसारनो त्याग करे तो पोताना चारित्र्यथी संगीन हित करी शके. जनसमाज तेना शुद्ध हृदय अने निःस्वार्थना सद्गुणनी खात्री थवाथी तेना कहेवा प्रमाणे दोरावामां घणीज तत्पर रहे अने तेना उपदेशथी लाभ मेळवती थाय. आवा विचार श्रीमद्ना हता अने तेनी साथे जनसमाज आगळ एक साधु अने धार्मिक नायक तरीके रजु थवा योग्य स्थितिमां मूकाया नथी एम तेओ मानता हता; अने तेथीज गृहस्थदशाएज जीवन गाळवार्नु चालु राख्युं हतुं. ज्यारे तेना आंतरिक विचारो संसारप्रत्ये तद्दन उदासीन वर्त्तता हता. ___ ज्यारे श्रीमद् २१ वर्षना हता, त्यारे तेमणे धंधामां प्रयाण कर्यु अने घणा टुंक वखतमा एक बाहोश झवेरी तरीकेनी नामना मेळवी. वधता जता व्यापारनी उपाधिओमां पण धर्म अने तत्त्वज्ञानना पोताना प्रिय अभ्यासमां तेओए खलेल आववा दीधी नहि. पोताना उद्योगरत जीवनमा चूपकीदीथी ज्ञानवृद्धि करता हता. तेमज हमेशां पुस्तकोमा गुंथायेला रहेता हता. वळी, वर्षमा केटलाक महिनाओ तो पोते मुंबई 'छोडी चाल्या जता अने पोतानी पेढीप कही जता के ज्यांसुधी पोते Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ लखे नहि त्यां सुधी कोईए पोतानी साथे पत्रव्यवहार पण चलाववो नहि. गुजरातना वनोमां तेओ एकांत वास गाळता अने त्यां रही चिंत्वन अने योगमां दहाडा अने अठवाडीआओ व्यतीत करता. तेओ रखेने पोते ओळखाइ जाय अथवा पोताना स्थळनी खबर पडी जाय तेवी धास्तीथी घणा गुप्त रहेवानो हमेश प्रयास करता, छतां तेओ वारंवार ओळखाइ जता अने लोकोनी म्होटी संख्या तेमनां उपदेश अने शिक्षा वचनो श्रवण करवानी जिज्ञासापूर्वक तेमनी पाछळ आवती. व्यापार कर्याने दश वर्ष थया पछी तेमने लाग्यु के जे हेतुथी व्यापार-धंधामा प्रयाण कयु हतुं ते हेतु तेओए पूर्ण कर्यो हतो. तेथी व्यापारनी साथेनो पोतानो संबंध निवृत्तवानी इच्छा तेमणे जणावी. ज्ञान, धनसंपत्ति, सांसारिक पदवी, कौटुंबिक सुख (कारण के तेमने हयात मातापिता, एक परिणीत बंधु, चार परिणीत व्हेनो, स्त्री, बे पुत्र अने बे पुत्रीओ हती) प्राप्त करी संसारनो त्याग करी साधु-मुनिनुं जीवन गाळवानी तेमणे तैयारी करी. एटलामा ३२ मा वर्षनी वये तेमनी शारीरिक प्रकृति नबळी पडी. अनेक कुशळ डाक्टरोनी सारवार नीचे राखवामां आव्या अने एक वखत तो तेमनी प्रकृति सुधरी 'जवानी आशा रखाइ परंतु व्याधिए फरीवार देखाव दीधो अने काबेल्यतवाळी सारवार अने तेमना भक्तशिष्योनी मावजत छतां एक वर्ष करतां वधारे वखत बीछानावश रहीने काठियावाडना राजकोट शहेरमां, गया मासनी नवमी तारीखे ( १९०१ ना एप्रिल मासमां ) तेओ शांतिथी कालशरण थया. तेमनी लांबी अने तीव्र मांदगी दरम्यान तेमणे कदी पण निःश्वास अथवा आर्तता दाखवी नहोती. ज्यारे तेमना बीछानानी आसपासना बीजा बधाओ दीलगीर थता त्यारे पण पोते आनंदसमेत रहेता. छूटी छवायी कविता शिवाय तेमणे केटलांक पुस्तको लख्यां छे.' १ श्रीमद् राजचंदना लखेला जे जे लेखो मळी आव्या तेनो संग्रह करी 'परमश्रुतप्रभावक मंडळे रॉयल चार पेजी ७०० पानानो भव्य ग्रंथ बहार पाज्योछे. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ मनी मोक्षमाला क्यारनी प्रसिद्धि पामी गइ छे. आ ग्रंथ जैनधर्मनी कुंची समान छे. आ तेमणे सत्तरवर्षनी वये रच्यो हतो. तेमना अप्रसिद्ध ग्रंथोमां आत्मसिद्धिशास्त्र' तथा पंचास्तिकाय अने आत्माना विषयपर केटलाक निबंधो छे. जैनधर्म तथा तेना तत्वज्ञाननो मुख्य सिद्धांत कर्मवाद छे. कर्मवादमां तेमने अखंड श्रद्धा हती. तेमणे आ कर्मवादपर प्रमाणो साथे एक पुस्तक लखवानो अने भगवान् महावीरे प्रकाशेला सिद्धांतोपर ग्रंथमाला लखवानी विचार हतो, परंतु दुर्भाग्ये तेम तेमनाथी लांबी मांदगीने सबबे थइ शक्युं नहि. वळी तेमणे धर्मना केटलाक कठिन सिद्धांतो प्रतिपादित कथं हता. जैन अने बौद्ध साहित्यनुं संभाळपूर्वक निरीक्षण कर्या पछी ओ एवा निर्णयपर आव्या हता के महावीर अने बुद्ध बने भिन्न महान् पुरुषो हता, तेओना सिद्धांतो तद्दन जुदा हता अने जैनधर्म ए बोद्धधर्मनी शाखा छे एवी युरोपीय पंडितोनी जे मानीनता हती ते बराबर प्रमाण सहित नथी. ओ कहता के जैनोना बे हजार वर्षनामचीन हस्तलिखित पुस्तकोमां स्पष्ट रीते जणाय छे के महान् महावीर अने महान् बुद्ध ए धार्मिक प्रतिस्पर्धिओ हता. श्रीमद् आ पण निश्रित रीते प्रतिपादित करता के जैननी बे मुख्य शाखा नामे दिगंबर अने श्वेतांबर देशनी अनियमित स्थितिने लइने जन्म पामेली छे. श्रीमद् राजचंद्र दरेक रीते लाक्षणिक चिन्हथी अंकित पुरुष हता ए दर्शाववाने तेमनी जींदगींनी उपर दर्शावेली लघु रेखा पूरती छे. तेमनी मानसिक शक्तिओ अद्भूत रीत चमत्कृतिवाळी हती, मज तेना चारित्र्यानी नैतिक उन्नति चकित करावनार हती. सत्यप्रत्ये मनो आदर, व्यापारमां अत्यंत चीवटथी नैतिक तत्वोने वळगी रहेवानुं वर्त्तन, गमे तेटली विरुद्धता छतां जे खरुं तेओ मानता ते करवानी मनी निश्चय वृत्ति, अने तेमनो कर्तव्य संबंधे उच्च आदर्श, १ आ लखाया पश्चात् आ प्रथनी चार आष्टत्तिओ प्रसिद्ध यह चूकी छे. + Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जेओ तेमना सहवासमां आवता तेमनामां प्रेरणा करी तेमने उन्नतिनी श्रेणिपर चडावता. तेमनी बाह्यकृति डीमाकवाळी न हती, परंतु आंतरिक शांति अने गांभीर्य तो तेमनांज हतां. तेमनुं धर्मो तथा तत्वज्ञान संबंधी विशाल अने यथास्थित ज्ञान, तेमनी समजाववानी अद्भूत शक्ति, अने उपदेश करवानी तेमनी दीत्र्य पद्धत्ति होवाथी तेमना उपदेशो पूर्ण लक्षपूर्वक सांभळवामां आवता हता. उश्केरनार संजोगो होय त्यारे पण ते मनो आत्मसंयम एटलो बधो पूर्ण हतो, तेमनी मध्यस्थ रीते समजाववानी शक्ति एटली बधी महान् हती, अने तेमनी हाजरी एटली बधी प्रेरणात्मक हती के जेओ तेमनी साथे वादविवाद करी तेमनी उपर जय मेळवावानी बुद्धिए आवता तेओ तद्दन ओथी वश थइने तेमनी आदरपूर्वक स्तुति करता जता हता. हिंदुनी वर्तमान दशापर श्रीमद् राजचंद्रने खेद थतो अने ते दूर करवाने हमेशां इच्छा धरावता हता. वर्तमान सामाजिक अने राजकी प्रश्नोपना तेमना विचारो उदार हता. तेओ कहता के जैनोमां ज्ञातिभेद जेवुं कंड पण होवुं जोइए नहि कारण के जेटला जैनो छे तेमने एक प्रकारनुं जीवन- वर्तन राखवानुं होय छे. बधा सुधारकोमां जे 'सुधारक पवित्रतम आशयथी, अने दांभिक वृत्ति वगर सुधारानुं कार्य कर्या जाय छे तेमने श्रीमद उच्चतम पंक्ति आपता. वर्तमानकालना धर्मगुरुओनो दोष ए कारणथी काढता हता के तेओ स्वसंप्रदायना मोहथी आग्रही उपदेश करी कालना फेरफारनं लक्ष राखता नथी. पोताने प्रभुना अवतार तरीके कहेवडाववानी इच्छाथी पोतानुं खरुं कर्तव्य वारंवार भूली जाय छे अने जे शक्ति पोतानामां न होय छतां तेनो दावो करवानो गर्न राखे छे. तेना पाछलां वर्षोमां ए तो स्पष्ट जणातुं हतुं के श्रीमद् पोताना जीवननो संदेश धर्मगुरु तरीके आपवानी तैयारी करता हता. परंतु दुर्भाग्ये मरणे वचमां पडी ते संदेश पूर्ण भतां अटकाव्यो छे, छतां मुंबई इलाकामा जैनोमां एक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवीन जीवन उपजाववामां श्रीमद् विजय पाम्या छे. साधारण रीते एवं मनाय छे के जो तेओ वधु वखत जीव्या हत तो हालना जैनधर्मनी संपूर्ण दर्शननी क्रांति करी हत अने महान महावीरे जे वास्तविक उपदेश आप्यो छे ते उपदेश लोकोने शिखाव्यो हत. जैन धर्मना अनेक गच्छभेदो काढी नांखी महावीरे स्थापेलो एक सामान्य धर्म स्थापवानो तेओनो विचार हतो. आवी उपयोगी जींदगी अपक्ष वये उपयोगमा आवती बंध पडी तेथी देशने चोक्खो गेरलाभ थयो छे. ___ तेमनुं नाम चिरंजीव राखवाने तेमना स्तुति पाठकोए आशरे रु. ११००० क्यारना संगृहीत कर्या छे. ने फंडने वधारवानी हिलचाल हजु पण चाली रही छे. अने एवी आशा रखाय छे के जूनां हस्तलिखित पुस्तकोने एकत्र करी जैनधर्मविषयक पुस्तको के जे केटलाक भंडारोमा अप्रगट दशामां पड्या छे तेने प्रगट करनारी संस्था तेमना मानवंता नाम साथे स्थापवामा आवशे. * आशा रहे छे के तेमना अनुयायीओमांना कोई श्रीमद्ना जीवनवृत्तांत अने कार्यनो सर्वगामी अने समजी शकाय तेवो अहेवाल प्रजासमक्ष रजु करशे. * परमश्रुतप्रभावकमंडले जैन धर्मना बे मख्य संप्रदाय-श्वेताम्बर अने दिगम्बरना प्राचीन शास्त्रो श्रीमद् राजचंद्रनुं नाम जोडी "राजचंद्र जैन शास्त्रमाला" ना नामथी प्रकट करवानुं शरु कयु छे, अने ते योजनानुसार नीचे प्रमाणे ग्रंथो मूळ तथा हिंदी अनुवादसहित बह र पण पडी चूक्यां छे:१ सप्तभंगीत रंगिणी. २ तत्त्वार्थाधिगम सूत्र. ३ पुरुषार्थसिद्धि उपाय. ४ पंचास्तिकाय. ५ ज्ञानार्णव. ६ स्याद्वादमंजी ७ बृहत दव्य संग्रह. ८ व्यानुयोगतर्कणा. ९ मोमहसार. १० प्रवचनसार. ११ परमात्मप्रकाश. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षण पद्धति अने मुखमुद्रा. आ एक स्याद्वादतत्त्वबोधवृक्षतुं बीज छे. आ ग्रंथ तत्त्व पामवानी जिज्ञासा उत्पन्न करी शके एवं एमां कई अंशे पण दैवत रह्य छे. ए समभावथी कहुं छु. पाठक अने वाचकवर्गने मुख्य भलामण ए छे के, शिक्षापाठ पाठे करवा करतां जेम बने तेम मनन करवा. तेनां तात्पर्यो अनुभववां. जेमनी समजणमां न आवतां होय तेमणे ज्ञाता शिक्षक के मुनिओथी समजवां, अने ए जोगवाइ न होय तो पांच सात वखत ते पाठो वांची जवा. एक पाठ वांची गया पछी अर्धघडी तेपर विचार करी अंतःकरणने पूछq के शुं तात्पर्य मळ्युं ? ते तात्पर्यमांथी हेय, ज्ञेय अने उपादेय शुं छे? एम ते जोवू. एम करवाथी आखो ग्रंथ समजी शकाशे, हृदय कोमळ थशे, विचारशक्ति खीलशे, अने जैनतत्त्वपर रुडी श्रद्धा थशे. आग्रंथ कंई पठन करवारुप नथी, पण मनन करवारुप छे. अर्थरुप केळवणी एमां योजी छे. ते योजना 'बालावबोध' रुप छे. 'विवेचन' अने 'प्रज्ञावबोध' भाग भिन्न छे. आ एमांनो एक ककडो छे, छतां सामान्य तत्त्वरुप छे. स्वभाषा संबंधी जेने सारं ज्ञान छे अने नवतत्त्व तेमज सामान्य प्रकरण ग्रंथो जे समजी शके छे तेओने आ ग्रंथ विशेष बोधदायक थशे. आटली तो अवश्य भलामण छ के, नाना बाळकोने आ शिक्षापाठोनुं तात्पर्य समजणरुपे सविधि आप. ज्ञानशाळाओना विद्यार्थीओने शिक्षापाठ मुख पाठे कराववाने वारंवार समजाववा. जे जे ग्रंथोनी ए माटे सहाय लेवी घटे ते लेवी. एक बेवार पुस्तक पूर्ण शीखी रह्या पछी अवळेथी चलावq. आ पुस्तक भणी हुं धारु छु के, सुज्ञ वर्ग कटाक्ष दृष्टिथी नहीं जोशे, बहु उंडा उतरतां आ 'मोक्षमाला' मोक्षनां कारणरुप थइ पडशे. माध्यस्थताथी एमां तत्त्वज्ञान अने शील बोधवानो उद्देश छे. आ पुस्तक प्रसिद्ध करवानो मुख्य हेतु उछरता वालयुवानो आवी रीते विद्या पामी आत्मसिद्धिथी भ्रष्ट थाय छे ते भावना अटकाववानो पण छ.-श्रीमान् राजचंद्र. -बालावबोध मोक्षमाला, प्रथममाला. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... अनुक्रमणिका. विषय. शिक्षापाठ १ वांचनारने भलामण ... ___ २ सर्व मान्य धर्म. ... ३ कर्मना चमत्कार. ... ४ मानवदेह. ... ५ अनाथी मुनि भाग १. . : ८ सदेव तत्त्व. ... ... ९ सद्धर्म तत्त्व.... ... १० सद्गुरु तत्व भाग १.... ११ ., , २.... १२ उत्तम गृहस्थ. .... १३ जिनेश्वरनी भक्ति भाग १. ... १४ , , १५ भक्तिनो उपदेश. . १६ खरी महत्ता. .... १७ बाहुबळ. ... .... १८ चार गति. ... . १९ संसारने चार उपमा भाग २० , , २१ बार भावना. ... २२ कामदेव श्रावक. २३ सत्य.... ... २४ सत्संग ... २५ परिग्रहने संकोचवो. २६ तत्त्व समजवू.... ... २७ यत्ना .... ... ... २८ रात्रिभोजन. ... ... २९ सर्व जीवनी रक्षा भाग १. .... NP २८ :::::::: ३५ ३७ ३९ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. " विषय. शिक्षापाठ ३१ प्रत्याख्यान.. ... ३२ विनयवडे तत्त्वनी सिद्धि छे. ... , ३३ सुदर्शन शेठ. ... ३४ ब्रह्मचर्य विषे सुभाषित. ... ३५ नमस्कार मंत्र. ... ३६ अनानुपूर्वि. ... ... ... ३७ सामायिक विचार भाग १. ... ३८ , , २. ... ३९ ,, , ३. ४० प्रतिक्रमण विचार. ... ४१ भीखारीनो खेद भाग १. ४३ अनुपम क्षमा. ... ४४ राग.... ... ४५ सामान्य मनोरथ. ४६ कपिलमुनि भाग १. , , २. ४८ , , ३. ४९ तृष्णानी विचित्रता. ... ५० प्रमाद. ... ... ५१ विवेक एटले शुं ? ... ५२ ज्ञानीओए वैराग्य शा माटे बोध्यो ? ५३ महावीर शासन. ... ५४ अशुचि कोने कहेवी!...' ५५ सामान्य नित्य नियम.... ५६ क्षमापना. ... ... ५७ वैराग्य ए धर्मनु स्वरुप छे. ५८ धर्मना मतभेद भाग १. ५९ , , २. ... , ६१ सुख विषे विचार भाग ८. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय. शिक्षापाठ ६२ सुख विषे विचार भाग २. . . . , , ६. ६७ अमूल्य तत्व विचार.... ६८ जितेंद्रियता. ... ... ६९ ब्रह्मचर्यनी नववाड. ... ७० सनतकुमार भाग १. ... , , २. ७२ बत्रिस योग. ... ७३ मोक्ष सुख. ... ७४ धर्मध्यान भाग १. ७५ , . , २. ... ::: :: :: :: :: :: : ७१ १०८ ११५ ७७ ज्ञान संबंधी बे बोल भाग १.... ७८ , , २.... , ३.... , ४.... पंचमकाळ. ८२ तत्त्वावबोध : :::::::::: २ १३० १३४ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय. शिक्षापाठ ९३ तत्त्वावबोध भाग १२. ९४ "" 27 27 " " " "" "" 27 "" ॐ ވ رز " ور " "" " "" " ९५ ९६ ९७ ९८ ९९ समाजनी अगत्य. १००. मनोनिग्रहनां विघ्न.. १०१ स्मृतिमां राखवा योग्य महावाक्यो. १०२ विविध प्रश्नो भाग १. १०३ २. १०४ १०५ १०६. " " १०७ जिनेश्वरनी वाणी. १०८ पूर्णमालिका मंगल. " " 29. " މ " "" १३. १४. "" , १७. " 25 १५. १६. ३. ४. ... MOVE ON ... ... ... ... ... २०९० ... ... ::: ... ... ... ... ... ... ... ... पृष्ट. १३४ १३६ १३७. १३८ १३९ १४१ १४२ १४३ १४४ १४४ १४६ १४७ १४८ १४९ १५० १५१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा. पुस्तक बी. शिक्षापाठ १ वांचनारने भलामण. वांचनार ! आ पुस्तक आजे तमारा हस्तकमळमां आवे छे, तेने लक्ष पूर्वक वांचजो, तेमां कहेला विषयोने विवेकथी विचारजो, अने परमार्थने हृदयमां धारण करजो. एम करशो तो तमे नीति, विवेक, ध्यान, ज्ञान, सद्गुण अने आत्मशांति पामी शकशो. तमे जाणता हशो के केटलांक अज्ञान मनुष्यो नहीं वांचवा योग्य पुस्तको वांचीने अमूल्य वखत वृथा खोइ दे छे, जेथी तेओ अवळे रस्ते चडी जाय छे, आ लोकमां अपकीर्ति पामे छे, अने परलोकमां नीच गतिए जाय छे.. भाषाज्ञाननां पुस्तकोनी पेठे आ पुस्तक पठन करवानुं नथी, पण मनन करवानुं छे. तेथी आ भव अने परभव बन्नेमां तमाएं हित थशे. भगवाननां कहेलां वचनोनो एमां उपदेश कर्यो छे. __ तमे आ पुस्तकनो विनय अने विवेकथी उपयोग करजो. विनय अने विवेक ए धर्मना मूळ हेतुओ छे. तमने बीजी एक आ पण भलामण छे के जेओने वांचतां आवडतुं न होय अने तेओनी इच्छा होय तो आ पुस्तक अनुक्रमे तेमने वांची संभळावq. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा- पुस्तक बीजं. तमने आ पुस्तकमांथी जे कंइ न समजाय ते सुविचक्षण पुरुष पाथी समजी लें योग्य छे. तमारा आत्मानुं आथी हित थाय; तमने ज्ञान, शांति अने आनंद मळे; तमे परोपकारी, दयालु, क्षमावान, विवेकी अने बुद्धिशाळी थाओ; एवी शुभ याचना अर्हत भगवान पासे करी आ पाठ पूर्ण करूं छ. शिक्षापाठ २ सर्वमान्यधर्म. चोपाई. धर्मतत्व जो पूछयुं मने, तो संभळा स्नेहे तने; जे सिद्धांत सकळनो सार, सर्व मान्य सहुने हितकार. १ भाख्युं भाषणमां भगवान, धर्म न बीजो दया समान; अभयदान साथै संतोष, द्यो प्राणीने दळवा दोष. • सत्य शीळने सघळां दान, दया होइने रह्यां प्रमाण; दया नहीं तो ए नहि एक, विना सूर्य कीरण नहि देख ३ पुष्पपांखडी ज्यां दुभाय, जिनवरनी त्यां नहि आज्ञाय; सर्व जीवनुं ईच्छो सुख, महावीरनी शिक्षा मुख्य. सर्व दर्शने ए उपदेश, ए एकांते- नहीं विशेष; सर्व प्रकारे जिननो बोध, दया दया निर्मळ अविरोध ! ए भवतारक सुंदर राह, धरिये तरिये करि उत्साह; धर्म सकळनुं ए शुभ मूळ, ए वण धर्म सदा प्रतिकूळ. तत्त्वरूपथी ए ओळखे, ते जन पहोचे शाश्वत सुखे; शांतिनाथ भगवान प्रसिद्ध, राज्यचंद्र करुणाए सिद्ध. ५ ६ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मना चमत्कार शिक्षापाठ ३ कर्मना चमत्कार. हुं तमने केटलीक सामान्य विचित्रताओ कही जाउं छउँ ए उपर विचार करशो तो तमने परभवनी श्रद्धा द्रढ थशे. एक जीव सुंदर पलंगे पुष्पशय्यामां शयन करे छे, एकने फाटेल गोदडी पण मळती नथी; एक भातभातनां भोजनोथी तृप्त रहे छे, एकने काळी जारना पण सांशा पडे छे एक अगणित लक्ष्मीनो उपभोग ले छे, एक फुटी बदाम माटे थइने घेर घेर भाटके छे एक मधुरां वचनथी मनुष्यनां मन हरे छे, एक अवाचक जेवो थइने रहे छे एक सुंदर वस्त्रालंकारथी विभूषित थइ फरे छे, एकने खरा शियाळामां फाटेढं कपडं पण ओढवाने मळतुं नथी. एक रोगी छे, एक प्रबळ छे. एक बुद्धिशाली छे, एक जडभरत छे. एक मनोहर नयनवाळो छे, एक अंध छे. एक लूलो के पांगलो छे, एकना पग ने हाथ रमणीय छे. एक कीर्तिमान छे, एक अपयश भोगवे छे. एक लाखो अनुचरोपर हुकम चलावे छे, अने तेटलानाज टुंबा सहन एक करे छे. एकने जोइने आनंद उपजे छे, एकने जोतां वमन थाय छे. एक संपूर्ण इंद्रियोवाळो छे, अने एक अपूर्ण इंद्रियोवाळो छे. एकने दीन दुनियानुं लेश भान नथी, एकनां दुःखनो किनारो पण नथी. एक गर्भाधानमा आवतांज मरण पामे छे, एक जन्म्यो के तरत मरण पामे छे, एक मुवेलो अवतरे छे अने एक सो वर्षनो वृद्ध थईने मरे छे. कोइनां मुख, भाषा अने स्थिति सरखां नथी. मूर्ख राज्यगादीपर खमा खमाथी वधावाय छे, समर्थ विद्वानो धक्का खाय छे ! आम आखा जगत्नी विचित्रता भिन्न भिन्न प्रकारे तमे जुओ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. छो; ए उपरथी तमने कई विचार आवे छे ? में कर्तुं छे ते उपरथी तमने विचार आवतो होय तो कहो के ते शा वडे थाय छे ? पोतानां बांधेलां शुभाशुभ कर्मवडे. कर्म वडे आखो संसार भमवो पडे छे. परभव नहि माननार पोते ए विचारो शा वडे करे छे ?-ते उपर यथार्थ विचार करे तो ते पण आ सिद्धांत मान्य राखे. शिक्षापाठ ४ मानवदेह. आगळ कयुं छे ते प्रमाणे विद्वानो मानवदेहने बीजा सघळा देह करतां उत्तम कहे छे ते उत्तम कहेवानांकेटलांक कारणो अत्रे कहीशुं. आ संसार बहु दुःखथी भरेलो छे. एमांथी ज्ञानीयो तरीने पार पामवा प्रयोजन करे छे. मोक्षने साधी तेओ अनंत सुखमां विराजमान थाय छे. ए मोक्ष वीजा कोइ देहथी मळतो नथी. देव, तिर्यंच के नर्क ए एके गतिथी मोक्ष नथी, मात्र मानवदेहथी मोक्ष छे. त्यारे तमे कहेशो के सघळा मानवियोनो मोक्ष केम थतो नथी? तेनो उत्तर जेओ मानवपणुं समजे छे, तेओ संसार शोकने तरी जाय छे. जेनामां विवेकबुद्धि उदय पामी होय, अने ते वडे सत्यासत्यनो निर्णय समजीने परम तत्त्वज्ञान तथा उत्तम चारित्ररूप सद्धर्मनुं सेवन करीने जेओ अनुपम मोक्षने पामे छे, तेना देहधारीपणाने विद्वानो मानवपणुं कहे छे. मनुष्यना शरीरना देखाव उपरथी विद्वानो तेने मनुष्य कहेता नथी; परंतु तेना विवेकने लइने कहे छे. बे हाथ, बे पग, बे आंख, बे कान, एक मुख, बे होठ अने एक नाक ए जेने होय तेने मनुष्य कहेवो एम आपणे समजवु नहिः . जो एम समजीए तो पछी वांदराने पण मनुष्य गणवो जोइए; एणे पण ए प्रमाणे सघळं प्राप्त कयु छे. विशेषमा एक पूंछड़े पण Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाथी मुनि भाग १. छे; त्यारे शुं एने महा मनुष्य कहेवो ? ना, नहीं मानवपणुं समजे तेज मानव कहेवाय. ज्ञानीओ कहे छे के एभव बहु दुर्लभ छे; अति पुण्यना प्रभावथी ए देह सांपडे छे; माटे एथी उतावळे आत्मसार्थक करी लेवु. अयमंतकुमार, गजसुकुमार जेवां नानां बाळको पण मानवपणाने समजवाथी मोक्षने पाम्यां मनुष्यमां जे शक्ति वधारे छे, ते शक्तिas करीने मदोन्मत्त हाथी जेवा प्राणीने पण वश करी ले छे; एज शक्तिवडे जो तेओ पोताना मनरुपी हाथीने वश करी ले तो केटलं कल्याण थाय ! कोइ पण अन्य देहमां पूर्ण सदविवेकनो उदय थतो नथी अने मोक्षना राजमार्गमां प्रवेश थइ शकतो नथी. एथी आपणने मळेलो आ बहु दुर्लभ मानवदेह सफळ करी लेवो अवश्यनो छे. केटलाक मूर्खो दुराचारमां, अज्ञानमां, विषयमां, अने अनेक प्रकारना मदमां आवो मानवदेह वृथा गुमावे छे. अमूल्य कौस्तुभ हारी बेसे छे. ए नामना मानव गणाय, बाकी तो वानररुपज छे. मोतनी पळ निश्चय आपणे जाणी शकता नथी, माटे जेम बने तेम धर्ममां त्वराथी सावधान थवुं. शिक्षापाठ ५ अनाथी मुनि भाग १. अनेक प्रकारनी रीद्धिवाळो मगधदेशनो श्रेणिक नामे राजा अश्वक्रिडाने माटे मंडिकूक्ष नामना वनमां नीकळी पड्यो, वननी विचित्रता मनोहारिणी हती. नाना प्रकारनां वृक्षो त्यां आवी रह्यां हतां नाना प्रकारनी कोमळ वेलीओ घटाटोप थइ रही हती; नाना प्रकारनां पंखीओ आनंदथी तेनुं सेवन करतां हतां; नाना प्रका Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजु. रनां पक्षियोनां मधुरां गायन त्यां संभळातां हतां; नाना प्रकारनां फूलथी ते वन छवाइ रह्यु हतुं नाना प्रकारनां जळनां झरण त्यां वहेतां हता; टुंकामां ए वन नंदनवन जेवू लागतुं हतुं. ते वनमा एक झाड तळे महा समाधिवंत पण सुकुमार अने सुखोच्चित मुनिने ते श्रेणिके बेठेलो दीठो. एनु रुप जोइने ते राजा अत्यंत आनंद पाम्यो. उपमारहित रुपथी विस्मित थइने मनमां तेनी प्रशंसा करवा लाग्यो. आ मुनिनो केवो अद्भुत वर्ण छे ! एनुं के मनोहर रुप छ ! एनी केवी अद्भुत सौम्यता छ ! आ केवी विस्मयकारक क्षमानो धरनार छे ! आना अंगथी वैराग्यनो केवो उत्तम प्रकाश छे ! आनी केवी निर्लोभता जणाय छे ! आ संयति केवु निर्भय नम्रपणुं धरावे छे ! ए भोगथी केवो विरक्त छे ! एम चिंतवतो चिंतवतो-मुदित थतो थतो-स्तुति करतो करतो-धीमेथी चालतो चालतो, प्रदक्षिणा देइने ते मुनिने वंदन करीने अति समीप नहि तेम अति दूर नहीं, एम ते श्रेणिक बेठो; पछी वे हाथनी अंजलि करीने विनयथी तेणे ते मुनिने पूछयु के हे आर्य ! तमे प्रशंसा करवा योग्य एवा तरुण छोः भोगविलासने माटे तमारी वय अनुकूळ छे; संसारमा नाना प्रकारनां सुख रह्यां छे, ऋतु ऋतुना कामभोग, जळ संबंधीना विलास, तेमज मनोहारिणी स्त्रीओनां मुखवचन- मधुरं श्रवण छतां ए सघळानो त्याग करीने मुनित्वमा तमे महा उद्यम करोछो एनुं गुं कारण? ते मने अनुग्रहथी कहो. राजानां आवां वचन सांभळीने मुनिए कह्यु, हे राजा! हुं अनाथ हतो. मने अपूर्व वस्तुनो प्राप्त करावनार, तथा योगक्षेमनो करनार, मारापर अनुकंपा आणनार. करुणाथी करीने परम सुखनो देनार एवो मारो कोइ मित्र थयो नहि. ए कारण मारा अनाथीपणानुं हतुं. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाथी मुनि भाग २० शिक्षापाठ ६ अनाथी मुनि भाग २. श्रेणिक, मुनिना भाषणथी स्मित हसीने बोल्यो, तमारे महा राद्धिवंतने नाथ केम न होय ? जो कोइ नाथ नथी तो हूं थंड छडं. हे भयंत्राण ! तमे भोग भोगवो. हे संयति ! मित्र, ज्ञातिए करीने दुर्लभ एवो आ तमारो मनुष्यभव सुलभ करो ! अनाथीए क, अरे श्रेणिक राजा ! पण तुं पोते अनाथ हो तो मारो नाथ शुं थइश ? निर्धन ते धनाढ्य क्यांथी बनावे ? अबुध ते बुद्धिदान क्यांथी आपे ? अज्ञ ते विद्वता क्यांथी आपे ? वंध्या ते संतान क्यांथी आपे ? ज्यारे तुं पोते अनाथ छे; त्यारे मारो नाथ क्यांथी थइश ? मुनिना वचनथी राजा अति आकुळ अने अति विस्मित थयो. कोइ काळे जे वचननुं श्रवण थयुं नथी ते वचननुं यति मुखथी श्रवण थयुं एथी ते शंकित थयो अने बोल्यो, हुं अनेक प्रकार ना अश्वनो भोगी छउं अनेक प्रकारना मदोन्मत्त हाथीओनो धणी छ; अनेक प्रकारनी सैन्या मने आधीन छे; नगर, ग्राम, अंतःपुर अने चतुष्पादनी मारे कई न्यूनता नथी; मनुष्य संबंधी सघळा प्रकारना भोग हुं पाम्यो छडं; अनुचरो मारी आज्ञाने रुडी रीते आराधे छे; एम राजाने छाजती सर्व प्रकारनी संपत्ति मारे घेर छे; अनेक मनवांछित वस्तुओ मारी समीपे रहे छे. आवो हुं महान् छतां अनाथ केम होउं ? रखे हे भगवन्, तमे मृषा बोलता हो ! मुनिए कयुं, राजा ! मारुं कहेतुं तुं न्यायपूर्वक समज्यो नथी. हवे हुं जेय अनाथ थयो; अने जेम में संसार त्याग्यो तेम तने कहुं छउं; ते एकाग्र अने सावधान चित्तथी सांभळ; सांभळीने पछी तारी शंकानो सत्यासत्य निर्णय करजे. aria नामे अति जीर्ण अने विविध प्रकारनी भव्यताथी भरेली एक सुंदर नगरी छे; त्यां रीद्धिथी परिपूर्ण धनसंचय नामनो Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजु. मारो पिता रहेतो हतो. हे महाराजा! योवन वयना प्रथम भागमा मारी आंखो अति वेदनाथी घेराइ, आखे शरीरे अग्नि बळवा मंड्यो. शस्त्रथी पण अतिशय तीक्ष्ण ते रोग वैरीनी पेठे मारापर कोपायमान थयो. मारुं मस्तक ते आंखनी असह्य वेदनाथी दुःखवा लाग्युं. वज्रना प्रहार जेवी, बीजाने पण रौद्रमय उपजावनारी एवी ते दारुण वेदनाथी हुं अत्यंत शोकमां हतो. संख्याबंध वैद्यकशास्त्रनिपूण वैद्यराजो मारी ते वेदनानो नाश करवा माटे आव्या अने तेमणे अनेक औषध उपचार कर्या पण ते वृथा गया. ए महा निपूण गणाता वैद्यराजो मने ते दरदथी मुक्त करी शक्या नहि एज हे राजा! मारुं अनाथपणं हतुं. मारी आंखनी वेदना टाळवाने माटे मारा पिताए सर्व धन आपवा मांडयु; पण तेथी करीने मारी ते वेदना टळी नहि. हे राजा ! एज माझं अनाथपणुं हतुं. मारी माता पुत्रने शोके करीने अति दुःखार्त्त थई; परंतु ते पण मने दरदथी मुकावी शकी नहि, एज हे राजा ! माझं अनाथपणुं हतुं. एक पेटथी जन्मेला मारा ज्येष्ट अने कनिष्ठ भाइओ पोताथी बनतो परिश्रम करी चूक्या पण मागे ते वेदना टळी नहि, हे राजा! एज मारं अनाथपणुं हतुं. एक पेटथी जन्मेली मारी ज्येष्टा अने कनिष्ठा भगनीओथी मारुं ते दुःख रव्यु नहि, हे महाराजा ! एज मारं अनाथपणुं हतुं. मारी स्त्री जे पतिव्रता, मारापर अनुरक्त अने प्रेमवंती हती, ते आंसु भरी मार हैयुं पलाळती हती. तेणे अन्न पाणी आप्या छतां अने नाना प्रकारनां अंघोलण, चुवादिक सुगंधि पदार्थ, तेमज अनेक प्रकारन फुल चंदनादिकनां जाणिता अजाणिता विलेपन कर्या छतां, ते विलेपनथी मारो रोग शमावी न शक्यो. क्षण पण अळगी रहेती नहोती, एवी ते स्त्री पण मारा रोगने टाळी न शकी, एज हे महाराजा! मारुं अनाथपणुं हतुं. एम कोइना प्रेमथी, कोइना औषधथी, कोइना विलापथी के कोइना परिश्रमथी Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाथी मुनि भाग ३० ए रोग उपशम्यो नहि. ए वेळा पुनः पुनः में असह्य वेदना भोगवी, पछी हुं प्रपंचीसंसारथी खेद पाम्यो. एकवार जो आ महा विडंबनामय वेदनाथी मुक्त थउं तो खंती, दंती अने निरारंभी प्रवर्ज्याने धारण करूं, एम चिंतीने शयन करी गयो. ज्यारे रात्रि अतिक्रमी गइत्यारे हे महाराजा ! मारी ते वेदना क्षय थइ गइ; अने हुं निरोगी थयो. मात, तात स्वजन बंधवादिकने पूछीने प्रभाते में महा क्षमावंत, इंद्रियने निग्रह करवावा अने आरंभोपाधिथी रहित एवं अणगारत्व धारण कर्यु. शिक्षापाठ ७ अनाथी मुनि भाग ३. • हे श्रेणिक राजा ! त्यार पछी हुं आत्मा परमात्मानो नाथ थयो . हवे हुं सर्व प्रकारना जीवनो नाथ छउं तुं जे शंका पाम्यो हतो ते हवे टळी गइ हशे . एम आखं जगत्- चक्रवर्त्ति पर्यंत अशरण अने अनाथ छे. ज्यां उपाधि छे त्यां अनाथता छे; माटे हुं कहुं छउं ते कथन तुं मनन करी जजे. निश्चय मानजे के आपणो आत्माज दुःखनी भरेली वैतरणीनो करनार छे; आपणो आत्माज क्रूर साल्मलि वृक्षनां दुःखनो उपजावनार छे; आपणो आत्माज छित वस्तुरुपी दुधनी देवावाळी कामधेनु सुखनो उपजावनार छे; आपणो आत्माज नंदनवननी पेठे आनंदकारी छे; आपणो आत्माज कर्मनो करनार छे; आपणो आत्माज ते कर्मनो टाळनार छे; आपणो आत्माज दुःखोपार्जन करनार छे, अने आपणो आत्माज सुखोपार्जन करनार छे; आपणो आत्माज मित्र ने आपणो आत्माज वैरी छे; आपणो आत्मा कनिष्ठ आचारे स्थित अने आपणो आत्माज निर्मळ आचारे स्थित रहे छे. एम आत्मप्रकाशकबोध श्रेणिकने ते अनाथी मुनिए आप्यो श्रेणिकराजा बहु संतोष • Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. पास्यो. बे हाथनी अंजलि करीने ते एम बोल्यो के, हे भगवन् ! तये मने भली रीते उपदेश्योः तमे जेम हतुं तेम अनाथपणुं कही बताव्यु. महर्षि ! तमे सनाथ, तमे सबंधव अने तमे सधर्म छो. नमे सर्व अनाथना नाथ छो. हे पवित्र संयति ! हुं तमने क्षमावु छु. समारी ज्ञानी शिक्षाथी लाभ पाम्यो छु. धर्मध्यानमां विघ्न करवावाळू भोग भोगव्या संबंधीनुं में तमने हे महा भाग्यवंत ! जे आमंत्रण दी, ते संबंधीनो मारो अपराध मस्तक नमावीने क्षमाबुलु. एवा प्रकारथी स्तुति उच्चारीने राजपुरुष केशरी श्रेणिक विनयथी प्रदक्षिणा करी स्वस्थानके गयो. ___महा तप्पोधन, महा मुनि, महा प्रज्ञावंत, महा यशवंत, महा निग्रंथ अने महा श्रुत अनाथी मुनिए मगध देशना श्रेणिक राजाने पोतानां वितक चरित्रथी जे बोध आप्यो छे, ते खरे ! अशरणभावना सिद्ध करे छे. महा मुनि अनाथीए भोगवेली वेदना जेवी के एथी अति विशेष वेदना अनंत आत्माओने भोगवता जोइए छीए. ए केतुं विचारवा लायक छे ! संसारमा अशरणता अने अनंत अनाथता छवाइ रही छे, तेनो त्याग उत्तम तत्त्वज्ञान अने परम शीलने सेववाथीज थाय छे. एज मुक्तिनां कारण रुप छे. जेम संसारमा रह्या अनाथी अनाथ हता; तेम प्रत्येक आत्मा तत्त्वज्ञाननी प्राप्ति विना सदैव अनाथज छे ! सनाथ थवा सदेव, सद्धर्म अने सद्गुरुने जाणवा अने ओळखवा अवश्यनां छे. शिक्षापाठ ८ सद्देवतत्त्व. त्रण तत्त्व आपणे अवश्य जाणवां जोइए. ज्यां सुधी ते तत्त्व संबंधी अज्ञानता होय छे त्यांसुधी आत्महित नथी. एत्रण तत्त्व सदेव, सधर्म अने सद्गुरु छे. आ पाठमां सदेवतुं स्वरुप संक्षेपमां कहीशुं. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्देवतत्त्व चक्रवर्ति-राजाधिराज के राजपुत्रं छतांजेओ संसारने एकवेल अनंत शोकनुं कारण मानीने तेनो त्याग करे छे. पूर्ण दया, शांति, क्षमा, निरागीत्व अने आत्मसमृद्धिथी त्रिविध तापनो लय करे छे. महा उग्र तपोपध्यानवडे विशोधन करीने जेओ कर्मना समूहने बाळी नाखे छे, अने चंद्र तथा शंखथी अत्यंत उज्वळ एवं शुक्ल ध्यान जेओने प्राप्त थाय छे. सर्व प्रकारनी निद्रानो जेओ क्षय करे छे. संसारमा मुख्यता भोगवतां ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहिनीय अने अंतराय ए चार कर्म भश्मिभूत करी, जेओ केवल ज्ञान केवल दर्शनसहित स्वस्वरुपथी विहार करे छे. जेओ चार अघाति कर्म रह्या सुधी यथाख्यात चारित्ररुप उत्तम शीलनुं सेक्न करे छे. कर्मग्रीष्मथी अकळाता पामर प्राणीओने परम शांति मळवा जेओ शुद्ध बोध बीजनो निष्कारण करुणाथी मेघधारा वाणीवडे उपदेश करे छे. कोई पण समये किंचित् मात्र पण संसारी वैभवविलासनो स्वमांश पण जेने रह्यो नथी. धनघाति कर्मक्षय कर्या पहेलां पोतानी छद्मस्थता गणी जेओ श्रीमुखवाणीथी उपदेश करता नथी. पांच प्रकारना अंतराय, हास्य, गति, अरति, भय, जुगुप्सा, शोक, मिथ्यात्व, अज्ञान, अप्रत्याख्यान, राग, द्वेष, निद्रा अने काम ए अढार दूषणथी रहित छे, सच्चिदानंद स्वरुपथी विराजमान छे, महा उद्योतकर बार गुणो जेओने प्रगटे छे. जन्म, मरण अने अनंत संसार जेनो गयो छे तेने, निग्रंथना आगममां सदेव कथा छे. ए दोषरहित शुद्ध आत्मस्वरुपने पामेला होवाथी पूजनीय परमेश्वर कहेवा योग्य छे. उपर कह्या ते अढार दोषमांनो एक पण दोष होय त्यां सदेवर्नु स्वरुप घटतुं नथी. आ परम तत्त्व महत्पुरुषोथी विशेष जाणवू अवश्यतुं छे. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजु. शिक्षापाठ ९ सद्धर्मतत्त्व. अनादि काळथी कर्मजाळनां बंधनथी आ आत्मा संसारमा रझळ्या करे छे. समय मात्र पण तेने खरुं सुख नथी. अधोगतिने ए सेव्या करे छ; अने अधोगतिमां पडता आत्माने धरी राखनारसद्गति आपनार वस्तु तेनुं नाम धर्म कहेवाय छे, अने एज सत्य सुखनो उपाय छे. ते धर्मतत्त्वना सर्वज्ञ भगवाने भिन्न भिन्न भेद कह्या छे. तेमांना मुख्य बे छे. १ व्यवहारधर्म, २ निश्चयधर्म. ___ व्यवहारधर्ममां दया मुख्य छे. सत्यादि वाकीनां चार महावृतो ते पण दयानी रक्षा वास्ते छे. दयाना आठ भेद छे. १ द्रव्यदया, २ भावदया, ३ स्वदया, ४ परदया, ५ स्वरुपदया, ६ अनुबंधदया, ७ व्यवहारदया, ८ निश्चयदया. प्रथम द्रव्यदया-कोइ पण काम करवू ते यत्नापूर्वक जीवरक्षा करीने करवू ते द्रव्यदया. बीजी भावदया-बीजा जीवने दुर्गति जतो देखीने अनुकंपाबुद्धिथी उपदेश आपवो ते भावदया. त्रीजी स्वदया-आ आत्मा अनादि काळथी मिथ्यात्वथी गृहायो छे, तत्व पामतो नथी, जिनाज्ञा पाळी शकतो नथीं. एम चितवी धर्ममां प्रवेश करवो ते स्वदया. चोथी परदया-छकाय जीवनी रक्षा करवी ते परदया. पांचमी स्वरूपदया-सूक्ष्म विवेकथी स्वरूप-विचारणा ते स्वरुप दया. छठी अनुबंधदया-सदगुरु के सुशिक्षक शिष्यने कडवां कथनथी उपदेश आपे ए देखवामां तो अयोग्य लागे छे; परंतु परिणाम करुणानुं कारण छ- एनुं नाम अनुबंधदया. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सधर्मतत्त्व. १३ सातमी व्यवहारदया-उपयोगपूर्वक तथा विधिपूर्वक जे दया पाळवी तेनुं नाम प्यवहारदया. आठमी निश्चयदया-शुद्ध साध्य उपयोगमा एकता भाव, अने अभेद उपयोग ते निश्चयदया. ए आठ प्रकारनी दयावडे करीने व्यवहारधर्म भगवाने कह्यो छे एमां सर्व जीवनुं सुख, संतोष, अभयदान ए सघळु विचारपूर्वक जोतां आवी जाय छे. बीजो निश्चयधर्म-पोतानां स्वरुपनी भ्रमणा टाळवी, आत्माने आत्मभावे ओळखवो, आ संसार ते मारो नथी, हुं एथी भिन्न परमअसंग सिद्धसद्रश्य शुद्ध आत्मा छु, एवी आत्मस्वभाववर्त्तना ते निश्चयधर्म छे. जेमां कोइ प्राणीनुं दुःख, अहित के असंतोष रह्यो छे त्यां दया नथी; अने दया नथी त्यां धर्म नथी. अहंत भगवाननां कहेलां धर्मतत्वथी सर्व प्राणी अभय थाय छे. -oictor – शिक्षापाठ १० सद्गुरुतत्त्व भाग १. पिता-पुत्र, तुं जे शाळामां अभ्यास करवा जाय छे ते शाळानो शिक्षक कोण छे ? पुत्र-पिताजी, एक विद्वान अन समजु ब्राह्मण छे. पिता-तेनी वाणी, चालचलगन वगेरे केवां छे ? पुत्र-एनां वचन बहु मधुरां छे. ए कोईने अविवेकथी बोलाबता नथी अने बहु गंभीर छे, बाले छे त्यारे जाणे मुखमाथी फुल झरे छे. कोईवें अपमान करता नथी; अने अमने योग्यनीति समजाय तेवी शिक्षा आपे छे. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. ... पिता-तुं त्यां शा कारणे जाय छे ते मने कहे जोईए. पुत्र-आप एम केम कहोछो पिताजी ? संसारमा विचक्षण थवाने माटे पद्धतियो समजु, व्यवहारनी नीति शी एटला माटे थइने आप मने त्यां मोकलो छो. पिता-तारा ए शिक्षक दुराचरणी के एवा होत तो ? . पुत्र-तो तो बहु माटुं थान; अमने अविवेक अने कुवचन बोलतां आवडत व्यवहार नीति तो पछी शीखवे पण कोण ? पिता-जो पुत्र, ए उपरथी हुँ हवे तने एक उत्तम शिक्षा कहुं. जेम संसारमां पडवा माटे व्यवहारनीति शीखवानुं प्रयोजन छे, तेम धर्मतत्त्व अने धर्मनीतिमा प्रवेश करवानुं परभवने माटे प्रयोजन छे. जेम ते व्यवहारनीति सदाचारी शिक्षकथी उत्तम मळी शके छ तेम परभव श्रेयस्करधर्मनीति उत्तम गुरुथी मळी शके छे. व्यवहारनीतिना शिक्षक अने धर्मनीतिना शिक्षकमां वहु भेद छे. एक बीलोरीना कडका जेम व्यवहार शिक्षक अने अमूल्य कौस्तुभ जेम आत्मधर्मशिक्षक छे. पुत्र-शीरछत्र ! आपनुं कहवू व्याजबी छे. धर्मना शिक्षकनी संपूर्ण अवश्य छे. आपे वारंवार संसारनां अनंत दुःख संबंधी मने कयुं छे एथी पार पामवा धर्मन सहायभूत छे; त्यारे धर्म केवा गुरुथी पामिये तो श्रेयस्कर नीवडे ते मने कृपा करीने कहो. शिक्षापाठ ११ सद्गुरुतत्त्व भाग २. पिता-पुत्र! गुरु त्रण प्रकारना कहेवाय छे. १ काष्टस्वरुप. २ कागळस्वरुप. ३ पथ्थरस्वरुप. काष्ट स्वरुप गुरु सर्वोत्तम छ कारण संसाररुपी समुद्रने काष्टस्वरुपी गुरुज तरे छे-अने तारी शके छे. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्गुरुतत्त्व भाग २.. २ कागळस्वरुप गुरु ए मध्यम छे. ते संसारसमुद्रने पोते तरी शके नहीं; परंतु कंइ पून्य उपार्जन करी शके. ए बीजाने तारी शके नहीं ३ पथ्थरस्वरुप ते पोते बुडे अने परने पण बुडाडे. काष्टस्वरुप गुरु मात्र जिनेश्वर भगवंतना शासनमा छे. बाकी बे प्रकारना जे गुरु रह्या ते कर्मावरणने वृद्धि करनार छे. आपणे बधा उत्तम वस्तुने चाहिए छीए; अने उत्तमथी उत्तम मळी शके छे. गुरु जो उत्तम होय तो ते भवसमुद्रमा नाविकरुप थई सद्धर्मनावमां बेसाडी पार पमाडे. तत्वज्ञानना भेद, स्वस्वरुपभेद लोकालोक विचार, संसारस्वरुप ए सघळू उत्तम गुरु विना मळी शके नहि त्यारे तने प्रश्न करवानी इच्छा थशे के एवा गुरुनां लक्षण कयां कयां ? ते कहुं छ. जिनेश्वर भगवाननी भाखेली आज्ञा तेने यथातथ्य पाळे, जाणे, अने बीजाने बोधे, कंचन कामिनीथी सर्व भावथी त्यागी होय, विशुद्ध आहारजळ लेता होय, बाविश प्रकारना परिसह सहन करता होय, शांत, दांत, निरारंभि अने जितेंद्रिय होय, सिद्धांतिक ज्ञानमां निमग्न होय, धर्म माटे थइने मात्र शरीरनो निर्वाह करता होय, निर्गथ-पंथ पाळतां कायर न होय, सळी मात्र पण अदत्त लेता न होय, सर्वे प्रकारना अहार रात्रिये त्याग्या होय, समभावि होय, अने निरागताथी सत्योपदेशक होय. टुंकामां तेओने काष्टस्वरुप सद्गुरु जाणवा. पुत्र ! गुरुना आचार, ज्ञान ए सम्बन्धी आगममां बहुं विवेकपूर्वक वर्णन कर्यु छे. जेम तुं आगळ विचार करतां शीखतो जइश, तेम पछी हुं तने ए विशेष तत्वो बोधतो जइश. पुत्र-पीताजी! आपे मने टुंकामां पण बहु उपयोगी अने कल्याणमय कहुं हुं निरंतर ते मनन करतो रहीश. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा - पुस्तक बीजुं. शिक्षापाठ १२ उत्तम गृहस्थ. संसारमा रह्या छतां पण उत्तम श्रावको ग्रहस्थाश्रमथी आत्मसाधनने साधे छे; तेओनो ग्रहस्थाश्रम पण वखणाय छे. ते उत्तम पुरुष, सामायिक, क्षमापना चोविहार प्रत्याख्यान इ० यम नियमने सेवे छे. F पर पनि भणी मातृ बहेननी द्रष्टि राखे छे. सत्पात्रे यथाशक्ति दान दे छे. शांत, मधुरी अने कोमळ भाषा बोले छे. सत्शास्त्रनुं मनन करे छे. बने त्यां सुधी उपजीविकामां पण माया, कपट, इ० करतो नथी. स्त्री, पुत्र, मात, तात, मुनि अने गुरु ए सघळांने यथायोग्य सन्मान आपे छे. माबाने धर्मनो बोध आपे छे. यत्नाथी घरनी स्वच्छता, रांधवुं, सींध, शयन इ० रखावे छे. पोते विचक्षणताथी वर्ती स्त्री, पुत्रने विनय अने धर्मि करे छे. सघळां कुटुंबमां संपनी वृद्धि करे छे. आवेला अतिथिनुं यथायोग्य सन्मान करे छे. याचकने क्षुधातुर राखतो नथी. सत्पुरुषोनो समागम अने तेओनो बोध धारण करे छे. समर्याद अने संतोष युक्त निरंतर वर्ते छे. यथाशक्ति शास्त्र संचय जेना घरमा रह्यो छे. अल्प आरंभथी जे व्यवहार चलावे छे. आवो गृहस्थावास उत्तम गतिनुं कारण थाय, एम ज्ञानीओ कहे छे. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरनी भक्ति भाग १० १७ शिक्षापाठ १३ जिनेश्वर नी भक्ति भाग १, 100 जिज्ञासु - विचक्षण सत्य ! कोइ श करनी, कोइ ब्रह्मानी, कोई विशुनी, कोई अग्निनी, कोई भवानीनी, कोई पेगम्बरनी अने कोई क्राइस्टनी भक्ति करे छे. एओ भक्ति करीने शुं आशा राखता हशे ? सत्य - प्रिय जिज्ञासु, ते भाविक मोक्ष मेळववानी परम आशाथी ए देवोने भजे छे. जिज्ञासु - कहो तमारुं मत छे ? त्यारे, एथी ते उत्तम गति पामे एम सत्य- एओनी भक्तिवडे तेओ मोन पामे एम हुं कही शकतो नथी. जेओने ते परमेश्वर कहे छे तेअ कई मोक्षने पाम्या नथी; तो पछा उपासकने ए मोक्ष क्यांथी आपे ? शंकर वगेरे कर्मक्षय करी शक्या नथी अने दूषणसहीत छे. एथी ते पूजवा योग्य नथी. जिज्ञासु-ए दूषणो कयां कयां ते कहो. सत्य-अज्ञान, निद्रा, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, अविरति, भय, शोक, जुगुप्सा, दानांतराय, लाभांतरान, वीर्यातराय अने उपभोगांतराय, काम, हास्य, रति अने अनि ए अढार दूषणमांनुं एक दूषण होय तोपण ते अपूज्य छे. एक समर्थ पंडिते पण कयुं छे के परमेश्वर छउं एम मिथ्या रीते मनावन रा पुरुषो पोते पोताने ठगे छे कारण, पडखामां स्त्री होवाथी तेओ विषयी ठरे छे; शस्त्र धारण करेलां होवाथी द्वेषी ठरे छे. जपमाळा धारण कर्याथी तेओनुं चित्त व्यग्र छे एम सूचवे छे. मारे शरणे आव, हुं सर्व पाप हरी लडं एम कहेनारा अभिमानी अने नास्तिक ठरे छे. आम छे तो पछी बीजाने तेओ केम तारी शके ? वळी वेटलाक अवतार लेवारुपे परमेश्वर कहेवरावे छे तो त्यां तेओने अमुक कर्मनुं भोगवनुं बाकी छेएम सिद्ध थाय छे, Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा- पुस्तक बीजं. जिज्ञासु-भाई, त्यारे पूज्य कोण ? अने भक्ति कोनी करवी के जेवढे आत्मा स्वशक्तिनो प्रकाश करे. ૨૮ सत्य- शुद्ध सत्चिदानंदस्वरुप जीवन सिद्ध भगवाननी भक्तिथी तेज सर्व दूषणरहित, कर्ममलहीन, मुक्त वीतराग सकळभय रहित, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी जिनेश्वर भगवाननी भक्तिथी आत्मशक्ति प्रकाश पामे छे. जिज्ञासु - एओनी भक्ति करवाथी आपणने तेओ मोक्ष आपे छे एम मानवुं खरुं ? सत्य - भाइ जिज्ञासु, ते अनंतज्ञानी भगवान तो निरागी अने निर्विकार छे. एने स्तुति निंदानुं आपणने कंइ फळ आपवानुं प्रयोजन नथी. आपणो आत्मा अज्ञानी अने मोहांध थइने जे कर्मदळथी घेरायलो छे ते कर्मदळ टाळवा अनुपम पुरुषार्थनी अवश्य छे. सर्व कर्मदळ क्षय करी अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र, अनंतवीर्य, अने स्वस्वरुपमय थया एवा जिनेश्वरोनुं स्वरुप - आत्मानी निश्चयनये राद्धि होवाथी ते भगवाननुं स्मरण, चितवन, ध्यान अने भक्ति ए पुरुषार्थता आपे छे. विकारथी आत्मा विरक्त करे छे. शांति अने निर्जरा आपे छे. जेम तरवार हाथमां लेवाथी शौर्यति अने भांग पीवाथी निशो उत्पन्न तेम ए गुण 'चितवनथी' आत्मा स्वस्वरुपानंदनी श्रेणिए चढतो जाय छे. दर्पण जोतां जेम मुखाकृतिनुं भान थाय छे तेम सिद्ध के जिनेश्वरस्वरुपनां चिंतवनरूप दर्पणथी आत्मस्वरुपनुं भान थाय छे. शिक्षापाठ १४ जिनेश्वरनी भक्ति भाग २. जिज्ञासु - आर्य सत्य ! सिद्धस्वरुप पामेला ते जिनेश्वरो तो सघळा पूज्य छे; त्यारे नामथी भक्ति करवानी कंइ जरुर छे ? Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश्वरनी भक्ति भाग २० १९ सत्य - हा, अवश्य छे. अनंत सिद्धस्वरुपने ध्यातां जे शुद्ध स्वरुपना विचार थाय ते तो कार्य परंतु ए जे जेवडे ते स्वरुपने पाम्या ते कारण कयुं ? ए विचारतां उग्रतप, महान वैराग्य, अनंतदया, महानध्यान ए सघळांनुं स्मरण थशे; एओनां अर्हत तीर्थंकर पदमां जे नामथी तेओ विहार करता हता ते नामथी तेओना पवित्र आचार अने पवित्र चरित्रो अंतःकरणमां उदय पामशे; जे उदय परिणामे महा लाभदायक छे. जेम महावीरनुं पवित्र नाम स्मरण करवाथी तेओ कोण ? क्यारे ? केवा प्रकारे सिद्धि पाम्या ? ए आदि चरित्रोनी स्मृति को अने एथी आपणे वैराग्य, विवेक इत्यादिकनो उदय पामीन जिज्ञासु - पण लोगस्समां तो चोवीश जिनेश्वरनां नाम सूचवन कर्या छे ? एनो हेतु शु छे ते मने समजावो. सत्य- आ काळमां आ क्षेत्रमां ने चोवीश जिनेश्वरो थया एमनां नामनुं अने चरित्रोनुं स्मरण करवाथी शुद्ध तत्वनो लाभ थाय. वैरागिनुं चरित्र वैराग्य बोधे छे, अनंत चोवीशीनां अनंत नाम सिद्ध स्वरुपमां समग्रे आवी जाय ले. वर्त्तमानकाळना चोवीश तीर्थकरनां नाम आ काळे लेवाथी काळनी स्थितिनुं बहु सूक्ष्मज्ञान पण सांभरी आवे छे. जेम एओनां नाम आ काळमां लेवाय छे. तेम चोवीशी चोवीशीनां नाम काळ अने चोवीशी फरतां लेवातां जाय छे. एटले अमुक नाम लेवां एम कंइ हेतु नथी. परंतु तेओना गुण अने पुरुषार्थ स्मृति माटे वर्त्तती चोवीशीनी स्मृति करवी एम तत्व रधुं छे. तेओना जन्म, बिहार उपदेश ए सघळं नाम निक्षेपे जाणी शकाय छे. ए वडे आपणो आत्मा प्रकाश पामे छे. सर्प जेम मोरलीना नादथी जागृत थाय छे; तेम आत्मा पोतानी सत्य रीद्धि सांभळतां ते मोहनिद्राथी जागृत थाय छे. जिज्ञासु - मने तमे जिनेश्वरनी भक्ति संबंधी बहु उत्तम कारण Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० मोक्षमाला-पुस्तक बीजं. कडं. आधुनिक केळवणीथी जिनेश्वरनी भक्ति कंइ फळदायक नथी एम मने आस्था थइ हती. हे नाश पामी छे. जिनेश्वर भगवाननी अवश्य भक्ति करवी जोइए ए हुं मान्य राखुं छउं. ___ सत्य-जिनेश्वर भगवाननी भक्तिथी अनुपम लाभ छे, एनां कारणो महान छे; तेमना पाम उपकारने लीधे पण तेओनी भक्ति अवश्य करवी जोइए. वळी तेओना पुरुषार्थनुं स्मरण थतां पण शुभ वृत्तियोनो उदय थाय छे. जेम जेम श्री जिननां स्वरूपमां वृत्ति लय पामे छे तेम तेम ६ रम शांति प्रवहे छे. एम जिनभक्तिनां कारणो अत्रे संक्षेपमां कह्यां छे ते आर्थियोए विशेषपणे मनन करवां योग्य छे. पार शिक्षापाठ १५ भक्तिनो उपदेश. तोटकछंद. शुभ शीतळतामय छांय रही, मनवांछित ज्यां फळपंक्ति कही; जिन भक्ति गृहो तरु-कल्प अहो, भजिने भगवंत भवंत लहो. १ निज आत्मस्वरुप मुदा प्रगटे, मन ताप उताप तमाम मटे अति निर्जरता वण दाम गृहो, भजिने भगवंत भवंत लहो. २ समभावि सदा परिणाम थशे, जडमंद अधोगति जन्म जशे; शुभ मंगळ आ परिपूर्ण चहीं, भजिने भगवंत भवंत लहो. ३ शुभ भाववडे मन शुद्ध करा, नवकार महा पदने समरो नहि एह समान सुमंत्र कहो, भजिने भगवंत भवंत लहो. ४ करशो क्षय केवळ राग कथा, धरशो शुभ तत्वस्वरुप यथा नृपचंद्र प्रपंच अनंत दहो, अजिने भगवंत भवंत लहो. ५ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरी महत्ता शिक्षापाठ १६ खरी महत्ता. क २१ heers लक्ष्मीथी करीने महत्ता मळे छे एम माने छे; केटलाक महान कुटुंबथी महत्ता मळे छे एम माने छे; केटलाक पुत्र वडे करीने महत्ता मळे छे एम माने छे; केटलाक अधिकारथी महत्ता मळे छे एम माने छे. पण ए एभनुं मानतुं विवेकथी जोतां मिथ्या छे. एओ जेमां महत्ता ठरावे छे तेमां महत्ता नथी, पण लघुता छे; लक्ष्मीथी संसारमां खानपान मान, अनुचरोपर आज्ञा, वैभव ए सघळं मळे छे अने ए महत्ता छे, एम तमे मानता हशो, पण एटलेथी एने महत्ता मानवी जोइर्त नथी. लक्ष्मी अनेक पाप वडे करीने पेदा थाय छे. आव्या पछी अभिमान, बेभानता, अने मूढता आपे छे. कुटुंबसमुदायनी महत्ता मेळवावा माटे तेनुं पालण पोषण करवुं पडे छे. ते वडे पाप अने दुःख सहन करवां पडे छे. आपणे उपाधिथी पाप करी एनुं उदर भरवुं पडे छे. पुत्रथी कंह शाश्वत नाम रहेतुं नथी; एने माटे पण अनेक प्रकारनां पाप अने उपाधि वेठवी पडे छे; छतां एथी आपणुं मंगळ शुं थाय छे ? अधिकारथी परतंत्रता के अमलमद आवे छे अने एथी जुलम, अनीति, लांच तेमज अन्याय करवा पडे छे; के थाय छे, कहो त्यारे एमांथी महत्ता शानी थाय छे ? मात्र पापजन्य कर्मनी. पापी कर्मवडे करी आत्मानी नीच गति थाय छे; नीच गति छे त्यां महत्ता नथी पण लघुता छे. आत्मानी महत्ता तो सत्यवचन, दया, क्षमा, परोपकार अने समतामां रही छे. लक्ष्मी इ० ए तो कर्ममहत्ता छे. एम छतां लक्ष्मीथी शाणा पुरुषो दान दे छे, उत्तम विद्याशाळाओ स्थापी परदुःखभंजन थाय छे. एक परणेली स्त्रीमांज मात्र वृत्ति रोकी Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ मोक्षमाळा-पुस्तक बी. परस्त्री तरफ पुत्रिभावथी जुए छे. कुटुंबवडे करीने अमुक समुदायर्नु हित काम करे छे. पुत्रवडे तेने संसारभार आपी पोते धर्ममार्गमा प्रवेश करे छे. अधिका रथी डहापण वडे आचरण करी राजा प्रजा बन्नेनुं हित करी-धर्मनीतिनो प्रकाश करे छे, एम करवाथी केटलीक महत्ता पमाय खरी छतां ए महत्ता चोकस नथी. मरणभय माथे रह्यो छे. धारणा धरी रहे छे. योजेली योजना के विवेक वखते हृदयमांथी जतो रहे एवी संसारमोहिनीय छे. एथी आपणे एम निस्संशय समजवू के सत्यवचन, दया, क्षमा, ब्रह्मचर्य अने समता जेवी आत्ममहत्ता कोइ स्थळे नथी. शुद्ध पंचमहातधारी भिक्षुके जे रीद्धि अने महत्ता मेळवी छे ते ब्रह्मदत्त जेवा चक्रवतिए लक्ष्मी, कुटुंब, पुत्र के अधिकारथी मेळवी नथी एम मारुं मानवु छ ! शिक्षापाठ १७ बाहुबळ. बाहुबळ एटले पोतानी भूजानुं बळ एम अहीं अर्थ करवानो नथी, कारण के बाहुबळ नामना महापुरुषर्नु आ एक नानुं पण अद्भुत चरित्र छे. सर्व संग परित्याग करी, ऋषभदेवजी भगवान भरत अने बाहुबळ नामना पोताना बे पुत्रोने राज्य सोंपी विहार करता हता. त्यारे भरतेश्वर चक्रवर्त्ति थयो. आयुधशाळामां चक्रनी उत्पत्ति थया पछी प्रत्येक राज्यपर तेणे पोतानी आम्नाय वेसारी, अने छखंडनी प्रभूता मेळवी. मात्र बाहुबळेज ए प्रभूता अंगीकार न करी. एथी परिणाममा भरतेश्वर अने बाहुबळने युद्ध मंडायु. घणा वखत सुधी भरतेश्वर के बाहुबळ ए बन्नेमांथी एक्के हव्या नहि, त्यारे क्रोधावेशमा आवी जइ भरतेश्वरे Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहुबळ. बाहुबळपर चक्र मूक्युं, पण एक वीर्यथी उत्पन्न थयेला भाइपर पण ते चक्र प्रभाव न करी शके, ए नियमथी फरीने पार्छ भरतेश्वरना हाथमां आव्यु. भरते चक्र मूकवाथी बाहुबळने बहु क्रोध आव्यो. तेणे महा बळवतर मुष्टि उपाडी. तत्काळ त्यां तेनी भावनानुं स्वरुप फयु. ते विचारी गयो के हुं आ बहु निंदनिय करूं छउं; आनुं परिणाम केवु दुःखदायक छे ! भले भरतेश्वर राज्य भोगवो. मिथ्या परस्परनो नाश शा माटे करवो? आ मुष्टि मारवी योग्य नथीतेम उगामी ते हवे पाछी वाळवी पण योग्य नथी. एम विचारी तेणे पंच मुष्टि केश लुचन कयु, अने त्यांथी मुनिभावे चाली नीकळ्या. भगवान आदीश्वर ज्यां अठाणुं दिक्षित पुत्रोथी तेमज आर्य-आर्याथी विहार करता हता त्यां जवा इच्छा करी; पण मनमां मान आव्युं के त्यां हुं जईश तो माराथी नाना अठाणुं भाइने वंदन करवू पडशे. माटे त्यां तो नवु योग्य नथी. एम मानवृत्तिथी वनमां ते एकाग्र ध्याने रह्या. हळवे हळवे वार मास थइ गया. महा तपथी काया हाडकानो मानो थइ गइ; ते सुकां झाड जेवा देखावा लाग्या; परंतु ज्यां सुधी माननो अंकुर तेनां अंतःकरणथी खस्यो नहोतो त्यांसुधी ते सिद्धि न पाम्या. ब्राह्मी अने सुंदरीए आवीने तेने उपदेश कर्यो; आर्य वीर ! हवे मदोन्मत्त हाथीपरथी उतरो, एनाथी तो बहु शोष्यु. एओनां आ वचनोथी बाहुबळ विचारमा पड्या. विचारतां विचारतां तेने भान थयुं के सत्य छे-हुं मानरुपी मदोन्मत्त हाथीपरथी हजु क्यां उतयों छउं? हवे एथी उतरवू एज मंगळकारक छ एम विचारी तेणे वंदन करवाने माटे पगलं भर्यु के ते अनुपम दिव्य कैवल्य कमळाने पाम्या. वांचनार, जुओ मान ए केवी दुरित वस्तु छे !! Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. शिक्षापाठ १८ चार गति. . संसारवनमां शुभाशुभ जीव सातावेदनीय, असातावेदनीय वेदतो कर्मनां फळ भोगववा आ चार गतिमां भम्या करे छे तो ए चार गति खचीत जाण! जोइए. १ नर्कगति-महारंभ, पदीरापान, मांस भक्षण, इत्यादिक तीव्र हिंसाना करनार जीवो अघोर नर्कमां पडे छे. त्यां लेश पण शाता, विश्राम के सुख नथी. महा अंधकार व्याप्त छे. अंगछेदन सहन करवू पडे छे. अग्निमां बळवू पडे छे अने छरपलानी धार जेवं जळ पीयूँ पडे छे. अनंत कुःखथी करीने ज्यां प्राणीभूते सांकड, अशाता अने विलविलाट स न करवा पडे छे. आवा जे दुःखने केवलज्ञानीओ पण कही शकता नथी. अहोहो ! ! ते दुःख अनंतिवार आ आत्माए भोगव्यां छे. २ तिर्यचगति-छल, जउ, प्रपंच इत्यादिक करीने जीव सिंह, वाघ, हाथी, मृग, गाय, भेरे, बळद इत्यादिक तिर्यचना शरीर धारण करे छे. ते तिर्यंचगतिमां भूख, तरश, ताप, वध, बंधन, ताडन, भारवहन इत्यादिनां दुःखने सहन करे छे. ३ मनुष्यगति-खाद्य, अखाद्य, विषे विवेकरहित छ लज्जाहीन, माता पुत्री साथे काम गमन करवामां जेने पापापापर्नु भान नथी; निरंतर मांसभक्षण, चरी, परस्त्रीगमन वगेरे महा पातक कर्या करे छे. एतो जाणे अनार्यदेशनां अनार्य मनुष्य छे. आर्यदेशमां पण क्षत्रि, ब्राह्मण, संश्य प्रमुख मतिहीन, दरिद्रि, अज्ञान अने रोगथी पीडित मनुष्यो छे. मान, अपमान इत्यादि अनेक प्रकारनां दुःख तेओ भोगवी रह्यां छे. ४ देवगति-परस्पर वेर, झेर, क्लेश, शोक मत्सर, काम, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारगति, २५ मद, क्षुधा आदि देवताओ पण आयुष्य व्यतित करी रह्या छे; ए देवगति. एम चार गति सामान्यरुपे कही. आचारे गतिमां मनुव्यगति सौथी श्रेष्ठ अने दुर्लभ छे, आत्मानुं परमहित मोक्ष ए गतिथी पमाय छे; ए मनुष्यगतिमां पण केटलाक दुःख अने आत्मसाधनमां अंतरायो छे. एक तरुण सुकुमारने रोमे रोमे लालचोळ सुया घोंचवाथी जे असह्य वेदना उपजे छे; ते करतां आठगुणी वेदना गर्भस्थानमां जीव ज्यारे रहे छे त्यारे पामे छे. लगभग नव महीना मळ, मूत्र, लोही, परु आदिमां अहोरात्र मुर्छागत स्थितिमां वेदना भोगवी भोगवीने जन्म पामे छे. गर्भस्थाननी वेदनाथी अनंतगणी वेदना जन्मसमये उत्पन्न थाय छे. त्यार पछी बाळावस्था पमाय छे. मळमूत्र, धूळ अने नग्नावस्थामां अणसमजथी रझळी रडीने ते बाळा - वस्था पूर्ण थाय छे; अने युवावस्था आत्रे छे. धन उपार्जन करवा माटे नाना प्रकारनां पापमां पडवुं पडे छे. ज्यांथी उत्पन्न थयो छे त्यां एटले विषय विकारमां वृत्ति जाय छे. उन्माद, आळस, अभिमान, निंद्यद्रष्टि, संयोग वियोग एम घटमाळमां युवावय चाली जाय छे त्यां वृद्धावस्था आवे छे. शरीर कंपे छे, मुखे लाळ झरे छे. त्वचापर करोचली पडी आय छे. सुंब सांभळ अने देखं ए शक्तियो केवळ मंद थइ जाय छे. केश धवळ थइ खरवा मंडे छे; चालवानी आय रहेती नथी. हाथमां लाकडी लइ लडथडीयां खातां चालबुं पडे छे. कांतो जीवन पर्यंत खाटले पड्यां रहेवुं पडे छे. श्वास, खांसी इत्यादिक रोग आवीने वळगे छे, अने थोडा काळमां काळ आवीने कोळीओ करी जाय छे. आ देहमांथी जीव चाली नीकळे छे. काया हती नहती थइ जाय छे. मरण समये पण केटली वधी वेदना छे ? चतुर्गतिनां दुःखमां जे मनुष्यदेह श्रेष्ट मां पण केलां बधां दुःख रह्यां छे तेम छतां उपर जणाव्या Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. प्रमाणे अनुक्रमे काळ आवे छे एम पण नथी. गमे ते वखते ते आवीने लइ जाय छे. माटेज विचक्षण पुरुषो प्रमाद विना आत्मकल्याणने आराधे छे. शिक्षापाठ १९संसारनेचार उपमाभाग १. संसारने महा तत्वज्ञानीओ एक समुद्रनी उपमा पण आषे छे. संसाररुपी समुद्र अनंत अने अपार छे. अहो लोको ! एनो पार पामवा पुरुषार्थनो उपयोग करो ! उपयोग करो !! आम एमनां स्थळे स्थळे वचनो छे. संसारने समुद्रनी उपमा छाजती पण छे. समुद्रमां जेम मोजांनी छोळो उछळ्या करे छे तेम संसारमां विषयरुपी अनेक मोजांओ उछळे छे. जळनो उपरथी जेम सपाट देखाव छे तेम संसार पण सरळ देखाव दे छे. समुद्र जेम क्यांक बहु उंडो छे, अने क्यांक भमरीओ खवरावे छे तेम संसार काम विषय प्रपंचादिकमां बहु उंडो छे. ते मोहरुपी भमरीओ खवरावे छे. थोडं जळ छतां समुद्रमा जेम उभा रहेवाथी कादवमां गुची जइए छीए तेम संसारना लेश प्रसंगमां ते तृष्णारुपी कादवमा धुंचवी दे छे. समुद्र जेम नाना प्रकारना खराबा अने तोफानथी नाव के वहाणने जोखम पहोंचाडे छे तेम स्त्रीयोरुपी खराबा अने कामरुपी तोफानथी संसार आत्माने जोखम पहोंचाडे छे. समुद्र जेम अगाध जळथी शीतळ देखातो छतां वडवानळ नामना अग्निनो तेमां वास छे तेम संसारमा मायारपी अग्नि बळ्याज करे छे. समुद्र जेम चोमासामां वधारे जळ पामीने उंडो उतरे छे तेम पापरुपी जळ पामीने संसार उंडो उतरे छे, एटले मजबुत पाया करतो जाय छे. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारने चार उपमा भाग २. २७ २. संसारने बीजी उपमा अग्निनी छाजे छे. अग्निथी करीने जेम महातापनी उत्पत्ति छे. एम संसारथी पण त्रिविध तापनी उत्पत्ति छे. अग्निथी बळेलो जीव जेम महा विलविलाट करे छे तेम संसारथी बळेलो जीव अनंत दुःखरुप नर्कथी असह्य विलविलाट करे छे. अग्नि जेम सर्व वस्तुनो भक्ष करी जाय छे, तेम संसारना मुखमां पडेलांनो ते भक्ष करी जाय छे. अग्निमां जेम जेम घी अने इंधन होमाय छे तेम तेम ते वृद्धि पामे छे. तेवीज रीते संसाररुप अग्निमां तीव्र मोहिनीरुप घी बने विषयरुप इंधन होमातां ते वृद्धि पामे छे. ३. संसारने त्रीजी उपमा अंधकारनी छाजे छे. अंधकारमा जेम सींदरी, सर्पनुं भान करावे छे तेम संसार सत्यने असत्यरुप बतावे छ; अंधकारमा जेम प्राणीओ आम तेम भटकी विपत्ति भोगवे छे तेम संसारमा बेभान थइने अनंत आत्माओ चतुर्गतिमा आम तेम भटके छे. अंधकारमा जेम काच अने हीरानुं ज्ञान थतुं नथी तेम संसाररुपी अंधकारमा विवेक अविवेकनुं ज्ञान थतुं नथी. जेम अंधकारमा प्राणीओ छती आंखे अंध बनी जाय छे तेम छती शक्तिए संसारमा तेओ मोहांध बनी जाय छे. अंधकारमा जेम घुवड इत्यादिकनो उपद्रव वधे छे तेम संसारमा लोभ, मायादिकनो उपद्रव वधे छे. एम अनेक भेदे जोतां संसार ते अंधकाररुपज जणाय छे. शिक्षापाठ२०संसारने चार उपमा भाग २. ४. संसारने चोथी उपमा शकटचक्रनी एटले गाडांना पैडांनी छाजे छे. चालतां, शकटचक्र जेम फरतुं रहे छे तेम संसारमा प्रवेश करतां ते फरतां रुपे रहे छे. शकटचक्र जेम धरी विना चाली शकतुं नथी तेम संसार मिथ्यात्वरुपी धरी विना चाली शकतो नथी. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ मोक्षमाळा- पुस्तक बीजं. शकटचक्र जेम आरावडे करीने रधुं छे तेम संसार शंका प्रमादादिक आराधी टक्यो छे. एम अनेक प्रकारथी शकटचक्रनी उपमा पण संसारने लागी शके छे. एव ते संसारने जेटली अधोपमा आपो एटली थोडी छे. मुख्यपणे ए चार उपमा आपणे जाणी, हवे एमांथी तत्व लेवं योग्यछे. १. सागर जेम मजबुत नाव अने माहितगार नाविकथी तरीने पार पमाय छे तेम सदधर्मरुपी नाव अने सद्गुरुरूपी नाविकथी संसारसागर पार पामी शकाय छे. सागरमा जेम डाह्या पुरुषोए निर्विघ्न रस्तो शोधी काट्यो होय छे तेम जिनेश्वर भगवाने तत्वज्ञानरुप निर्विघ्न उत्तम राह बताव्यो छे. २. अग्नि जेम सर्वने भक्ष करी जाय छे, परंतु पाणीथी बुझाइ जाय छे ते वैराग्यजळथी संसारअग्नि बुझवी शकाय छे. ३. अंधकारमां जेम दीवो लइ जवाथी प्रकाश थतां, जोइ शकाय छे तेम तत्वज्ञानरुपी निर्बुज दीवो संसाररूपी अंधकारमां प्रकाश करी सत्य वस्तु बतावे छे. ४. शकटचक्र जेम बळद विना चाली शकतुं नथी तेम संसार - चक्र राग, द्वेष विना चाली शकतुं नथी. एम ए संसारदरदनुं निवारण उपमावडे अनुपानादि प्रतिकार साथै कहूंं. ते आत्महितैषिए निरंतर मनन कर अने बीजाने बोधवं. शिक्षापाठ २१ बार भावना. वैराग्यनी, अने तेवा आत्महितैषि विषयोनी सुद्रढता थवा माटे बार भावना चिंतववानुं तत्वज्ञानीओ कहे छे. १. शरीर, वैभव, लक्ष्मी, कुटुंब परिवारादिक सर्व विनाशी छे; Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ बार भावना. जीवनो मूळ धर्म अविनाशी छे एम चिंतवनुं ते पहेली अनित्यभावना. २. संसारमां मरण समये जीवने शरण राखनार कोई नथी, मात्र एक शुभ धर्मनुंज शरण सत्य छे एम चिंतवनुं ते बीजी अशरण भावना. ३. आ आत्माए संसारसमुद्रमां पर्यटन करतां करतां सर्व भव कीधा छे, ए संसारजंजीरथी हूं क्यारे छुटीश ? ए संसार मारो नथी, हुं मोक्षमयि हुं एम चितवनुं ते त्रीजी संसार भावना. ४. आ मारो आत्मा एकलो छे; ते एकलो आव्यो छे, एकलो जशे; पोतानां करेलां कर्म एकलो भोगवशे एम चिंतवनुं ते चोथी एकत्वभावना. ५. आ संसारमा कोइ कोइनुं नथी एम चिंतवकुं ते पांचमी अन्यत्वभावना. ६. आ शरीर अपवित्र छे, मळमूत्रनी खाण छे, रोग जराने रहेवानुं धाम छे, ए शरीरथी हुं न्यारो छं एम चितवनुं ते छठ्ठी अशुचिभावना. ७. राग, द्वेष, अज्ञान, मिथ्यात्व इत्यादिक सर्व आश्रव छे एम चितवनुं ते सातमी आश्रवभावना. ८. ज्ञान, ध्यानमां जीव प्रवर्त्तमान थइने नवां कर्म बांधे नहि एवी चितवना करवी ते आठमी सम्वरभावना. ९. ज्ञानसहित क्रिया करवी ते निर्जरानुं कारण छे एम चिंतaj ते नवमी निर्जराभावना. १०. लोकस्वरुपनुं उत्पत्ति, स्थिति, विनाशस्वरुप विचारखुं ते दशमी लोकस्वरूपभावना. ११. संसारमां भमतां आत्माने सम्यक्ज्ञाननी प्रासादी प्राप्त थवी दुर्लभ छे, वा सम्यक्ज्ञान पाम्यो तो चारित्र सर्व विरति Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. परिणामरुप धर्म पामवो दुर्लभ छे एवी चितवना ते अग्यारमी बोधदुर्लभभावना. १२. धर्मना उपदेशक तथा शुद्ध शास्त्रना बोधक एवा गुरु अने एवं श्रवण मळवू दुर्लभ छे एवी चिंतवना ते वारमी धर्म दुर्लभभावना. आ बार भावनाओ मननपुर्वक निरंतर विचारवाथी सत्पुरुषो उत्तम पदने पाम्या छे, पामे छे अने पामशे. शिक्षापाठ २२ कामदेव श्रावक. महावीर भगवानना समयमां द्वादशवृत्तने विमळ भावथी धारण करनार, विवेकी अने निग्रंथवचनानुरक्त कामदेव नामना एक श्रावक तेओना शिष्य हता. सुधर्मा सभामां इंद्रे एक वेळा कामदेवनी धर्मअचळतानी प्रशंसा करी. एवामां त्यां एक तुच्छ बुद्धिवान देव बेठो हतो तेणे एवी सुद्रढतानो अविश्वास बतान्यो अने कडं के ज्यांसुधी परिषह पड्या न होय त्यांसुधी बधाय सहनशील अने धर्मद्रढ जणाय. आ मारी वात हुं एने चळावी आपीने सत्य करी देखा९. धर्मद्रढ कामदेव ते वेळा कायोत्सर्गमां लीन हता. देवताए प्रथम हाथीनुं रुप वैक्रिय कर्यु अने पछी कामदेवने खुब गुंद्या तोपण ते अचळ रह्या, एटले मुशळ जेवू अंग करीने काळावर्णनो सर्प थइने भयंकर फूंकार कर्या, तोय कामदेव कायोत्सर्गथी लेश चळ्या नहि पछी अट्टहास्य करता राक्षसनो देह धारण करीने अनेक प्रकारना परिषह कर्या, तोपण कामदेव कायोत्सर्गथी चळ्या नहि. सिंह वगेरेनां अनेक भयंकर रुप काँ तोपण कायोत्सर्गमां लेश हीनता कामदेवे आणी नहि. एम रात्रिना चारे पहोर देवताए कर्या कर्यु, पण ते पोतानी धारणामां Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य. फाल्यो नहि. पछी ते देवे अवधिज्ञानना उपयोगवडे जोयुं तो कामदेवने मेरुना शिखरनी पेरे अडोळ रह्या दीठा. कामदेवनी अद्भूत निश्चलता जाणी तेने विनयभावथी प्रणाम करी पोतानो दोष क्षमावीने ते देवता स्वस्थानके गयो. ____ कामदेव श्रावकनी धर्मदृढता एवो बोध करे छे के सत्यधर्म अने सत्यप्रतिज्ञामां परम द्रढ रहेवू, अने कायोत्सर्ग आदि जेम बने तेम एकाग्र चित्तथी अने सुद्रढताथी निर्दोष करवां. चळविचळ भावथी कायोत्सगादि बहु दोषयुक्त थाय छे. पाई जेवा द्रव्यलाभ माटे धर्मशाख काढनारथी धर्ममां द्रढता क्याथी रही शके ? अने रही शके तो केवी रहे ! ए विचारतां खेद थाय छे. शिक्षापाठ २३ सत्य. सामान्य कथनमां पण कहेवाय छे के सत्य ए आ जगत्नु धारण छे. अथवा सत्यने आधारे आ जगत् रहुं छे. ए कथनमांथी एवी शिक्षा मळे छे के धर्म, नीति, राज अने व्यवहार ए सत्यवडे प्रवर्तन करी रह्यां छे अने ए चारे न होय तो जगत्नुं रुप केवु भयंकर होय ? ए माटे सत्य ए जगत्न धारण छे एम कहेवू ए कंइ अतिशयोक्ति जेवू के नहि मानवा जेवू नथी.. ___ वसुराजानुं एक शब्दनुं असत्य बोलवू केटलं दुःखदायक थयुं हतुं ते प्रसंग विचार करवा माटे अहीं कहीशुं. वसुराजा, नारद अने पर्वत ए त्रणे एक गुरु पासेथी विद्या भण्या हता. पर्वत अध्यापकनो पुत्र हतो; अध्यापके काळ कों. एथी पर्वत तेनी मा सहीत वसुराजाना दरबारमा आवी रह्यो हतो. एक रात्रे तेनी मा पासे बेठी छ; अने पर्वत तथा नारद शास्त्रा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजु. भ्यास करे छे. एमां एक वचन पर्वत ए, बोल्यो के 'अजाहोतव्यं.' त्यारे नारदे पूछयु अज ते शु पर्वत ? पर्वते कह्यु: 'अज' ते 'बोकडो.' नारद बोल्योः आपणे त्रणे जण तारा पिता कने भणता हता त्यारे तारा पिताए तो 'अन' ते त्रण वर्षनी 'व्रीहि ' कही छे अने तुं अवळु शा माटे कहे छे? एम परस्पर वचनविवाद वध्यो. त्यारे पर्वते कह्यु: आपणने वसुराजा कहे ते खरं. ए वातनी नारदे हा कही, अने जीते तेने माटे अमुक सरत करी. पर्वतनी मा जे पासे बेठी हती तेणे आ सांभळ्युं. 'अज' एटले 'त्रीहि' एम तेने पण याद हतुंः सरतमा पोतानो पुत्र हारशे एवा भयथी पर्वतनी मा रात्रे राजा पासे गइ अने पूछ्युः राजा, “अज' एटले शुं ? वसुराजाए संबंधपूर्वक कह्यु. 'अज' एटले 'नीहि.' त्यारे पर्वननी माए राजाने कयुः मारा पुत्रथी 'बोकडो' कहेवायो छे माटे तेनो पक्ष करवो पडशे; तमने पूछवा माटे तेओ आवशे. वसुराजा बोल्योः हुं असत्य केम कहुं ? माराथी ए बनी शके नहि. पर्वतनी माए कडं, पण जो तमे मारा पुत्रनो पक्ष नहीं करो तो तमने हुं हत्या आपीश. राजा विचारमा पडी गयो के सत्यवडे करीने हुं मणिमय सिंहासनपर अद्धर बेसुं छु. लोकसमुदायने न्याय आपु छु. लोक पण एम जाणे छे के राजा सत्य गुणे करीने सिंहासनपर अंतरिक्ष बेसे छे. हवे केम करवू ? जो पर्वतनो पक्ष न करूं तो ब्राह्मणी मरे छे; ए वळी मारा गुरुनी स्त्री छे. न चालतां छेवटे राजाए ब्राह्मणीने कह्युः तमे भले जाओ; हुं पर्वतनो पक्ष करीश. आवो निश्चय करावीने पर्वतनी मा घेर आवी. प्रभाते नारद, पर्वत अने तेनी मा विवाद करतां राजा पासे आव्यां. राजा अजाण थई पूछवा लाग्योः शुं छे पर्वत ? पर्वते कयुः राजाधिराज ! अज ने शुं ? ते कहो. राजाए नारदने पुछयु, तमे शुं कहोछो? नारदे कह्यु: 'अज' ते त्रण वर्षनी 'नीही तमने क्यां नथी सांभळतुं ? वसुराजा बोल्योः 'अज' Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्संग. एटले 'बोकड' पण 'व्रीही' नहि. तेज वेळा देवताए सिंहासनथी उछाळी हेठो नाख्यो; वसु काळपरिणाम पामी नरके गयो. ३३ आ उपरथी सामान्य मनुष्योए सत्य, तेमज राजाए न्यायमां अपक्षपात अने सत्य बन्ने ग्रहण करवायोग्य छे ए मुख्य बोध मळे छे. जे पांच महाव्रत भगवाने प्रणीत कर्या छे; तेमांना प्रथम महाव्रतनी रक्षाने माटे बाकीनां चार व्रत वाडरुपे छे, अने तेमां पण पहेली वाड ते सत्य महाव्रत छे. ए सत्यना अनेक भेद सिद्धांतथी श्रुत करवा अवश्यना छे. शिक्षापाठ २४ सत्संग सत्संग ए सर्व सुखनुं मूळ छे. सत्संगनो लाभ मळ्यो के तेना प्रभाववडे वांछित सिद्धि थइज पडी छे. गमे तेवा पवित्र थवाने माटे सत्संग श्रेष्ट साधन छे. सत्संगनी एक घडी जे लाभ दे छे ते कुसंगनां एक कोट्याविधि वर्ष पण लाभ न दई शकतां अधोगतिमय महा पाप करावे छे तेमज आत्माने मलिन करे छे. सत्संगनो सामान्य अर्थ एटलो छे के उत्तमनो सहवास. ज्यां सारी हवा नथी आवती त्यां रोगनी वृद्धि थाय छे; तेम ज्यां सत्संग नथी त्यां आत्मरोग वधे छे. दुर्गंधथी कंटाळीने जेम नाके वस्त्र आडुं दइए छीए तेम कुसंगथी सहवास बंध करवानुं अवश्यनुं छे. संसार ए पण एक प्रकारनो संग छे, अने ते अनंत कुसंगरुप तेमज दुःखदायक होवाथी त्यागवा योग्य छे. गमे ते जातनो सहवास होय परंतु जे वडे आत्मसिद्धि नथी ते सत्संग नथी. आत्माने सत्य रंग चढावे ते सत्संग. मोक्षनो मार्ग बतावे ते मैत्रि. उत्तम शास्त्रमां निरंतर एकाग्र रहेनुं ते पण सत्संग छे, सत्पुरुषोनो समा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. गम ए पण सत्संग छे. मलिन वस्त्रने जेम साबु तथा जळ स्वच्छ करे छे तेम शास्त्रबोध अने मत्पुरुषोनो समागम, आत्मानी मलिनता टाळीने शुद्धता आपे हे. जेनाथी हमेशनो परिचय रही राग, रंग, गान, तान अने स्वादिष्ट भोजन सेवातां होय ते तमने गमे तेवो प्रिय होय तोपण निश्चय मानजो के ते सत्संग नथी पण कुसंग छे. सत्संगथी प्राप्त थयेलं एक वचन अमूल्य लाभ आपे छे. तत्वज्ञानीओए मुख्य बोध एवो कर्यो छे के सर्व संग परित्याग करी, अंतरमा रहेला सर्व विकारथी पण विरक्त रही एकांतनुं सेवन करो. तेमां सत्संगनी स्तुति आवी जाय छे. केवळ एकांत तेतो ध्यानमा रहेg के योगाभ्यासमां रहे, ए छे, परंतु समस्वभाविनो समागम जेमांथी एकज प्रकारनी वर्त्तनतानो प्रवाह नीकळे छे ते, भावे एकज रुप होवाथी घणा माणसो छतां अने परस्परनो सहवास छतां ते एकांतरुपज छे, अने तेवी एकांत मात्र संतसमागममां रही छे. कदापि कोइ एम विचारशे के विषयीमंडळ मळे छे त्यां समभाव सरखी वृत्ति होवाथी एकांत कां न कहेबी ? तेनुं समाधान तत्काळ छे के तेओ एक स्वभावि होता नथी. तेमां परस्पर स्वार्थ बुद्धि अने मायानुं अनुसंधान होय छे, अने ज्यां ए बे कारणथी समागम छे ते एक स्वभावि के निर्दोष होता नथी. निर्दोष अने समस्वभावि समागम तो परस्परथी शांत मुनीश्वरोनो छे तेमज धर्मध्यान प्रशस्त अल्पारंभी पुरुषनो पण केटलेक अंशे छे. ज्यां स्वार्थ अने माया कपटज छे त्यां समस्वभावता नथी, अने ते सत्संग पण नथी. सत्संगथी जे सुख अने आनंद मळे छे ते अति स्तुतिपात्र छ. ज्यां शास्त्रोना सुंदर प्रश्नो थाय, ज्यां उत्तम ज्ञान ध्याननी सुकथा थाय, ज्यां सत्पुरुषोनां चरित्रपर विचार बंधाय, ज्यां तत्वज्ञानना तरंगनी लहरियो छुटे, ज्यां सरळ स्वभावथी सिद्धांत विचार चर्चाय, ज्यां मोक्षजन्य कथन Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रहने संकोचवो. पर पुष्कळ विवेचन थाय; एवो सत्संग ते महा दुर्लभ छे. कोइ एम कहे के सत्संग मंडळमां कोइ मायावि नहि होय ? तो तेनुं समाधान आ छे:-ज्यां माया अने स्वार्थ होय छे त्यां सत्संगज होतो नथी. राजहंसनी सभानो काग देखावे कदापि न कळाय तो अवश्य रागे कळाशे; मौन रह्यो तो मुखमुद्राए कळाशे. पण ते अंधकारमा जाय नहि. तेमज मायावियो सत्संगमां स्वार्थे जइने शुं करे ? त्यां पेट भर्यानी वात तो होय नहि. बे घडी त्यां जइ ते विश्रांति लेतो होय तो भले ले के जेथी रंग लागे. नहि तो बीजीवार तेनुं आगमन होय नहि. जेम पृथ्वीपर तराय नहि, तेम सत्संगथी बुडाय नहि. आवी सन्संगमां चमत्कृति छे. निरंतर एवा निर्दोष समागममा माया लइने आवे पण कोण ? कोइज दुर्भागी, अने ते पण असंभवित छे. सत्संग ए आत्मानुं परम हितकाारे औषध छे. शिक्षापाठ २५ परिग्रहने संकोचवो. जे प्राणीने परिग्रहनी मर्यादा नथी, ते प्राणी सुखी नथी. तेने जे मळ्युं ते ओछं छे; कारण जेटलं जाय तेटलांथी विशेष प्राप्त करवा तेनी इच्छा थाय छे. परिग्रहनी प्रबळतामां जे कंइ मळ्युं होय तेनुं सुख तो भोगवातुं नथी परंतु होय ते पण वखते जाय छे. परिग्रहथी निरंतर चळविचळ परिणाम अने पापभावना रहे छे; अकस्मात् योगथी एवी पापभावनामां आयुष्य पूर्ण थाय तो बहुधा अधोगतिनुं कारण थइ पडे. केवळ परिग्रह तो मुनिश्वरो त्यागी शके, पण गृहस्थो एनी अमुक मर्यादा करी शके. मर्यादा थवाथी उपरांत परिग्रहनी उत्पत्ति नथी, अने एथी करीने विशेष भावना पण बहुधा थती नथी, अने वळी जे मळ्युं छे तेमां संतोष राख Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजु. वानी पृथा पडे छे; एथी सुखमां काळ जाय छे. कोण जाणे लक्ष्मी आदिकमां केवीए विचित्रता रही छे के जेम जेम लाभ थतो जाय छे तेम तेम लोभनी वृद्धि थती जाय छे. धर्म संबंधी केटलुक ज्ञान छतां, धर्मनी द्रढता छतां पण परिग्रहना पाशमां पडेलो पुरुष कोइकज छूटी शके छे. वृत्ति एमांज लटकी रहे छे; परंतु ए वृत्ति कोइ काळ सुखदायक के आत्महितैषि थई नथी. जेणे एनी टुंकी मर्यादा करी नहि ते बहोला दुःखना भोगी थया छे. छ खंड साधी आज्ञा मनावनार राजाधिराज, चक्रवर्ती कहेवाय छे. ए समर्थ चक्रवर्तीमां सुभुम नामे एक चक्रवर्ती थइ गयो छे. एणे छ खंड साधी लीधा एटले चक्रवर्ति-पदथी ते मनायो पण एटलेथी एनी मनोवांच्छा तृप्त न थई। हजु ने तरस्यो रह्यो. एटले घातकी खंडना छ खंड साधवा एणे निश्चय कर्यो. बधा चक्रवर्ती छ खंड साधे छे, अने हुं पण एटलाज साधु तेमां महत्ता शानी? बार खंड साधवाथी चिरंकाळ हुं नामांकित थइश. समर्थ आज्ञा जीवनपर्यंत ए खंडोपर मनावी शकीश, एवा विचारथी समुद्रमा चर्मरत्न मूक्यु; ते उपर सर्व सैन्यादिकनो आधार रह्यो हतो, चर्मरत्नना एक हजार देवता सेवक कहेवाय छे, तेमां प्रथम एके विचार्यु के कोण जाणे केटलांय वर्षे आमांथी छूटको थशे ? माटे देवांगनाने तो मळी आयु एम धारी ते चाल्यो गयो. पछी बीजो गयो, पछी त्रीजो गयो; अने एम करता करता हजारे चाल्या गया. त्यारे चर्मरत्न बूडयु. अश्व, गज अने सर्व सैन्यसहित सुभुम नामनो ते चक्रवर्ती बूड्यो; पापभावनामां ने पापभावनामां मरीने ते अनंत दुःखथी भरेलो सातमी तमतमममा नर्कने विषे जइने पड्यो. जुओ! छ खंडनुं आधिपत्य तो भोगवq रहुं परंतु अकस्मात् अने भयंकर रीते परिग्रहनी प्रीतिथी ए चक्रवर्तीनुं मृत्यु थयु, तो पछी बीजा माटे तो कहेज शुं ? परिग्रह ए पापर्नु मूळ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्व समजवू. ३७ छे, पापनो पिता छे, अन्य एकादशवनने महा दोष दे एवो एनो स्वभाव छे. ए माटे थइने आत्महितौषिए जेम बने तेम तेनो त्याग करी मर्यादापूर्वक वर्त्तन करवं. शिक्षापाठ २६ तत्व समजवू. शास्त्रोनां शास्त्रो मुखपाठे होय एदा पुरुषो घणा मळी शके, परंतु जेणे थोडां वचनोपर प्रौढ अने विवेकपूर्वक विचार करी शास्त्र जेटलं ज्ञान हृदयगत कयु होय तेवा मळवा दुर्लभ छे. तत्वने पहोंची जवु ए कंइ नानी वात नथी. कूदीने दरियो ओळंगी जवो छे. ___अर्थ एटले लक्ष्मी, अर्थ एटले तत्व अने अर्थ एटले शब्दनुं बीजूं नाम. आवा अर्थशब्दना घणा अर्थ थाय छे. पण अर्थ एटले तत्व ए विषयपर अहीं आगळ कहेवानुं छे. जेओ निग्रंथप्रवचनमा आवेलां पवित्र वचनो मुखपाठे करे छे ते नेओना उत्साहवळे सत्फळ उपार्जन करे छे; परंतु जो तेनो मर्म पाम्यो होय तो एथी ए सुख आनंद, विवेक अने परिणामे महद् भूतफळ पामे छे. अभणपुरुष सुंदर अक्षर अने नाणेला मिथ्या लीटा ए बेना भेदने जेटलं जाणे छे तेटलुंज मुखपाठी अन्य ग्रंथ विचार अने निग्रंथप्रवचनने भेदरुप माने छे. कारण तेणे अर्थ पूर्वक निग्रंथ वचनामृतो धार्या नथी; तेम ते पर यथार्थ तत्वविचार कर्यों नथी. जो के तत्वविचार करवामां समर्थ बुद्धिप्रभाव जोइए छीए, तोपण कंइ विचार करी शके पथ्थर पीगले नहि तोपण पाणीथी पलळे तेमज जे वचनामृतो मुखपाठे कर्या होय, ते अर्थ सहित होय तो बहु उपयोगी थई पडे; नहि तो पोपटवाळु राम नाम. पोपटने कोई परिचये रामनाम कहता शीखडावे; परंतु पोपटनी बला जाणे के राम ते दाडम के द्राक्ष. सामान्यार्थ समज्या बगर एबुं थाय छे. कच्छी वैश्योनुं द्रष्टांत एक Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. कहेवाय छे ते कईक हास्ययुक छे खरं; परंतु एमांथी उत्तम शिक्षा मळी शके तेम छ; एटले अहीं कही जउं . कच्छना कोई गाममा श्रावकधर्म पाळता रायशी, देवशी अने खेतशी; एम त्रण नामधारी ओशवाळ रहेता हता. नियमित रीते तेओ संध्याकाळे, अने परो. ढिये प्रतिक्रमण करता हता. परोढिये रायशी अने संध्याकाळे देवशी प्रतिक्रमण करावता हता. रात्रि संबंधी प्रतिक्रमण रायशी करावतो, अने संबंधे 'रायगी पडिक्कमणुंठायमि' एम तेने बोलावq पडतुं तेमज 'देवशीने देवशी पडिक्कमणुंठायमि' एम संबंध होवाथी बोलावq पडतुं. योगानुयोगे घणाना आग्रहथी एक दिवस संध्याकाळे खेतशीने बोलाववा बेसार्यो. खेतशीए ज्यां 'देवशी पडिक्कम[ठायमि' एम आव्यु, त्यां 'खेतशी पडिक्कमjठायमि' ए वाक्यो लगावी दीधां! ए सांभळी बधा हास्यग्रस्त थया अने पूछयुं आमकां ? खेतशी बोल्योः वळी आम ते केम ? त्यां उत्तर मळ्यो के 'खेतशी पडिकमणुं ठायमि' एम तमे केम बोलो छो? खेतशीए कहूं: गरीब छु एटले माझं नाम आव्यु त्यां पाधरी तकरार लइ बेटा, पण रायशी अने देवशी माटे तो कोइ दिवस कोइ बोलता नथी. ए बने केम 'रायशी पडिक्कमणुं गयमि' अने 'देवशी पडिक मणुं ठायमि' एम कहे छ ? तो पछी हुँ 'खेतशी पडिक्कमणुं ठायमि ' एम कां न कहुं ? एनी भद्रिकताए तो वधाने विनोद उपजाव्यो. पछी अर्थनी कारणसहित समजण पाडी एटले खेतशी पोताना मुखपाठी प्रतिक्रमणथी शरमायो. - आ तो एक सामान्य वात छे, परंतु अर्थनी खुबी न्यारी छे. तत्वज्ञ तेपर बहु विचार करी शके. बाकी तो गोळ गळ्योज लागे तेम निग्रंथवचनामृतो पण सत्फळज आपे. अहो ! पण मर्म पामवानी वातनी तो बलीहारीज छे ! Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्ना. शिक्षापाठ २७ यत्ना. जेम विवेक ए धर्मनुं मूळतत्व छे, तेम यत्ना ए धर्मनुं उपतत्व छे. विवेकथी धर्म तत्व ग्रहण कराय छे, तथा यत्नाथी ते तत्व शुद्ध राखी शकाय छे अने ते प्रमाणे प्रवर्त्तन करी शकाय छे. पांच समितिरूप यत्नो तो बहु श्रेष्ट छे, परंतु गृहाश्रमीथी ते सर्व भावे पाळी शकाती नथीः छतां जेटला भावांशे पाळी शकाय तेटला भावांशे पण असावधानीथी पाळी शकता नथी. जिनेश्वर भगवंते बांधेली स्थूल अने सूक्ष्म दया प्रत्ये ज्यां बेदरकारी छे, त्यां बहु दोषथी पाळी शकाय छे. ए यत्नानी न्यूनताने लीघे छे. उतावळी अने वेगभरी चाल, पाणी गळी तेनो संखाळो राखवानी अपूर्ण विधि, काष्टादिक इंधनना वगर खंचेयें, जोये उपयोग; अनाजमां रहेला सूक्ष्म जंतुओनी अपूर्ण तपास, पुंज्या प्रामार्ज्या वगर रहेवा दीघेलां वासण, अस्वच्छ राखेला ओरडा, आंगणामां पाणीनुं ढोळवु, एउनुं राखी मूकवुं, पाटला वगर धखधखती थाळी नीचे मूकवी. एथी पोताने आ लोकमां अस्वच्छता, अगवड, अनारोग्यता इत्यादिक फळ रुप थाय छे, अने परलोकमां दुःखदायी महापापनां कारण पण थइ पडे छे, ए माटे थइने कवानो बोध के चालवामां, बेसवामां, उठवामां जमवामां अने बीजा हरेक प्रकारमां यत्नानो उपयोग करवो. एथी द्रव्य अने भावे बने प्रकारे लाभ छे. चाल धीमी अने गंभिर राखवी घर स्वच्छ राखवां, पाणी विधि सहित गळाववुं, काष्टादिक इंधन खंखेरीने नांखवां ए कंइ आपणने अगवड पडतुं काम नथीः तेम तेमां विशेष वखत जतो नथी. एवा नियमो दाखल करी दीया पछी पाळवा मुश्केल नथी. एथी बिचारा असंख्यात निरपराधी जंतुओ बचे छे. प्रत्येक काम यत्नापूर्वकज कर ए विवेकी श्रावकनुं कर्त्तव्य छे. ३९ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजु.. शिक्षापाठ २८ रात्रिभोजन. अहिंसादिक पंचमहाव्रत जेवु भगवाने रात्रिभोजन त्याग व्रत कडं छे. रात्रिमा जे चार प्रकारना आहार छे ते अभक्षरुप छे. जे जातिनो आहारनो रंग होय छे ते जातिना तमस्काय नामना जीव ते आहारमा उत्पन्न थाय छे. रात्रिभोजनमां ए शिवाय पण अनेक दोष रह्या छे. रात्रे जमनारने रसोइने माटे अग्नि सळगाववो पडे छे, त्यारे समीपनी भीतपर रहेला निरपराधी सूक्ष्म जंतुओ नाश पामे छे. इंधनने माटे आणेलां काष्ठादिकमां रहेला जंतुओ रात्रिये नहि देखावाथी नाश पामे छे; तेमज सर्पना झेरनो, करोळियानी लाळनो अने भच्छरादिक जंतुनो पण भय रहे छे. वखते ए कुटुंबादिकने भयंकर रोगनुं कारण पण थइ पडे छे. रात्रिभोजननो पुराणादिक मतमां पण सामान्य आचारने खातर त्याग कर्यो छे छतां तेओमां परंपरानी रुढीए करीने रात्रिभोजन पेसी गयुं छे. पण ए निषेधकतो छेज. शरीरनी अंदर बे प्रकारनां कमळ छे. ते मूर्यना अस्तथी संकोच पामी जाय छे एथी करीने रात्रिभोजनमां मूक्ष्म जीव भक्षणरुप अहित थाय छे जे महा रोगनुं कारण छे. एवो केटलेक स्थळे आयुर्वेदनो पण मत छे. ____ सत्पुरुषो तो दिवस वे घडी रहे त्यारे वाळु करे, अने बे घडी दिवस चढ्यां पहेलां गमे ते जातनो आहार करे नहि. रात्रिभोजनने माटे विशेष विचार मुनिसमागमथी के शास्त्रथी जाणवो. ए संबंधी बहु सूक्ष्म भेदो जाणवा अवश्यना छे. चारे प्रकारना आहार रात्रिने विषे त्यागवाथी महद्फळ छे. आ जिन वचन छे. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व जीवनी रक्षा भाग १. ४१ शिक्षापाठ २९ सर्व जीवनी रक्षा भाग १. दया जेवो एके धर्म नथी. दया एज धर्मनुं स्वरुप छे. ज्यां दया नथी त्यां धर्म नथी. जगतितळमां एवा अनर्थकारक धर्म मतो पड्या छे के जेओ एम कहे छे के जीवने हणतां लेश पाप थतुं नथी; बहु तो मनुष्य देहनी रक्षा करो. तेम ए धर्ममतवाळा झनुनी, मदांध छे अने दयानुं लेश स्वरूप पण जाणता नथी. एओ जो पोतानुं हृदयपट प्रकाशमां मूकीने विचारे तो अवश्य तेमने जणाशे के एक सूक्ष्ममां सूक्ष्म जंतुने हणवामां पण महा पाप छे. जेवो मने मारो आत्मा प्रिय छे तेवो तेने पण तेनो आत्मा प्रिय छे. हुं मारा लेश व्यसन खातर के लाभ खातर एवा असंख्याता जीवोने बेधडक हणुं छं. ए मने केटलुं वधुं अनंत दुःखनुं कारण थइ पडशे ? तेओमां बुद्धिनुं बीज पण नहि होवाथी तेओ आवो सात्विक विचार करी शकता नथी. पापमां ने पापमां निशदिन मग्न छे. वेद, अने वैष्णवादि पंथोमां पण सूक्ष्म दया संबंधी कंइ विचार जोवामां आवतो नथी. तोपण एओ केवळ दयाने नहि समजनार करतां घणा उत्तम छे. स्थूळ जीवोनी रक्षामां ए ठीक समज्या छे, परंतु ए सघळा करतां आपणे केवा भाग्यशाली के ज्यां एक पूष्प पांखडी दूभाय त्यां पाप छे ए खरं तत्व समज्या अने यज्ञयागादिक हिंसाथी तो केवळ विरक्त रह्या छीए ! बनता प्रयत्नथी जीव बचावीए छीए, वळी चाहिने जीव हणवानी आपणी लेश इच्छा नथी. अनंतकाय अभक्षथी बहु करी आपणे विरक्तज छीए. आ काळे ए सघळा पुन्यप्रताप सिद्धार्थ भूपाळना पुत्र महावीरनां कहेलां परमतत्वबोधना योगब थी वध्यो छे. मनुष्यो रीदि पामे छे, सुंदर स्त्री पामे छे. आज्ञांकित पुत्र पामे छे, बहोळो Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ . मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. मोश्रमाला कुटुंबपरिवार पामे छे, मानप्रतिष्टा तेमन अधिकार पामे छे. अने ते पामवां कंइ दुर्लभ नथी, परंतु खलं धर्मतत्व के तेनी श्रद्धा के तेनो थोडो अंश पण पाम महा दुर्लभ छे. ए रीद्धि इत्यादिक अविवेकथी पाप, कारण भई अनंत दुःखमां लई जाय छे; परंतु आ थोडी श्रद्धाभावना पण उत्तम पदिए पहोंचाडे छे. आम दयानुं सत्परिणाम छे. आपणे धमतत्वयुक्त कूळमां जन्म पाम्या छीए तो हवे जेम बने तेम विमळ दयामय वर्त्तनमा आवद्. वारंवार लक्षमा राखq के सर्व जीवनी रक्षा करवी. बीजाने पण एवोज युक्ति प्रयुक्तिथी बोध आपवं. सर्व जीवनी रक्षा करवा माटे एक बोधदायक उत्तम युक्ति बुदिशाळी अभयकुमारे करी हती ते आवता पाठमां हुं कहुं छु; एम् ज तत्वबोधने माटे यौक्तिकन्यायथी अनार्य जेवा धर्ममतवादीने शिक्षा आपवानो वखत मळे तो आपणे केवा भाग्यशाली ! शिक्षापाठ ३० सर्व जीवनी रक्षा भाग २. मगध देशनी राजगृही नगरीनो अधिराजा श्रेणिक एक वखते सभा भरीने बेठो हतो. प्रसंगोपात वातचितना प्रसंगमां मांसलुब्ध सामंतो हता ते बोल्या के हमणां मांसनी विशेष सस्ताई छे. आ वात अभयकुमारे सांभळी. ए उपरथी ए हिंसक सामंतोने बोध देवानो तेणे निश्चय कर्यो. सांजे सभा विसर्जन थई अने राजा अंतःपुरमां गया. त्यार पर्छ। कर्त्तव्य माटे जेणे जेणे मांसनी वात उच्चारी हती तेने तेने घेर अभयकुमार गया. जेने घेर जाय त्यां सत्कार कर्या पछी तेओ पूछवा लाग्या के आपनुं परिश्रम लई अमारे घेर केम पधारवू थ छे ? अभयकुमारे कह्यु: महाराजा! श्रेणिकने अकस्मात् महा रोग उत्पन्न थयो छे. वैद्य भेळा करवाथी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व जीवनी रक्षा भाग २० ४३ तेणे क के कोमल मनुष्यना काळजानुं सवा टांकभार मांस होय तो आ रोग मटे. तमे राजाना प्रियमान्य छो माटे तमारे त्यां ए मांस लेवा आव्यो छं. प्रत्येक सामंत विचार्य के काळजानुं मांस हुं मुवाविना, शी रीते आपी शकुं ? एथी अभयकुमारने पुछयुंः महाराज, ए तो केम थई शके ? एम कही पछी अभयकुमारने केटक द्रव्य पोतानी वात राजा आगळ नहि प्रसिद्ध करवा ते प्रत्येक सामंत आपता गया अने ते अभयकुमार लेता गया. एम सघळा सामंतोने घेर अभयकुमार परी आव्या. सघळा मांस न आपी शक्या, अने आम तेमणे पोत नी वात छुपाववा द्रव्य आप्यं. पछी बीजे दिवसे ज्यारे सभा भेळी थइ त्यारे सघळा सामंतो पोताने आसन आवीने वेठा. राज पण सिंहासनपर विराज्या हता. सामंतो आवी आवीने गइ बालनुं कुशळ पूछवा लाग्या. राजा ए वातथी विस्मित थया. उभयकुमार भणी जोयुं एटले अभयकुमार वल्या. महाराज काले आपना सामंतो सभामा बोल्या हता के हमणां मांस सस्तुं मळे छे. जंथी हुं तेओने त्यां लेवा गयो हतो, त्यारे सपळाए मने बहु द्रव्य प्युं; परंतु काळजानुं सवा पैसाभार मांस न आप्युं त्यारे ए मांस सस्तु के मधुं ? वधा सामंतो सांभळी शरमथी नीचुं जोइ रखा. कोइथी कंइ बोली शकायुं नहि. पछी अभयकुमारे कयुंः आ कं में तमने दुःख आपवाकर्यु नथी, परंतु बोध आपवा कयुं छे. अपणने आपणा शरीरनुं मांस आप पडे तो अनंतभय थाय छे, क रण आपणा देहनी आपणने प्रियता छे, तेम जे जीवनुं ते मांस हशे तेनो पण जीव तेने वहालों हशे. जेम आपणे अमूल्य वस्तुओ आपीने पण पोतानो देह बचावीए छी तेम ते विचारां पामर प्राणीओने पण होवुं जोइए. आपणे समजणवाळां, बोलतां चालतां प्राणी छइए. ते विचारां अवाचक अने निराधार प्राणी छे. तेमने मोतरूप दुःख आपीए Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. ए केवू पापर्नु प्रबळ कारण छे. आपणे आ वचन निरंतर लक्षमा राखq के सर्व प्राणीने पोत नो जीव वहालो छे, अने सर्व जीवनी रक्षा करवी ए जेवो एके धर्म नथी. अभयकुमारना भाषणथी श्रेणिक महाराजा संतोषाया. सघळा सामंतो पण बोध पाम्या. तेओए ते दिवसथी मांस खावानी प्रतिज्ञा करी, कारण एक तो ते अभक्ष छे, अने कोइ जीव हणाया विना ते आवतुं नथी ए मोटो अधर्म छे; माटे अभय प्रधाननुं कथन सांभळीने तेओए अभयदानमां लक्ष आप्यु. अभयदान आत्माना परम सुखनुं कारण छे. शिक्षापाठ ३१ प्रत्याख्यान. पच्चखाण नामनो शब्द वारंवार तमारा सांभळवामां आव्यो छे. एनो मूळ शब्द प्रत्याख्यान छे; अने ते अमुक वस्तु भणी चित्त न करवू एवा जे तत्व समजी हेतुपूर्वक नियम करवो तेने बदले वपराय छे. प्रत्याख्यान करवानो हेतु महा उत्तम अने सूक्ष्म छे. प्रत्याख्यान नहि करवाथी गमे ते वस्तु न खाओ के न भोगवो तोपण तेथी संवरपणुं नथी कारण के तत्वरुपे करीने इच्छानुं रंधन कर्यु नथी. रात्रे आपणे भोजन न करता होइए, परंतु तेनो जो प्रत्याख्यानरुपे नियम न कर्यो होय तो ते फळ न आपे; कारण आपणी इच्छा खुल्ली रही. जेम घरनुं बार| उघाडं होय अने श्वानादिक जनावर के मनुष्य चाल्युं आवे तेम इच्छानां द्वार खुल्लां होय तो तेमां कर्म प्रवेश करे छे. एटले के ए भणी आपणा विचार छूटथी जाय छे ते कर्म बंधननुं कारण छे, अने जो प्रत्याख्यान होय तो पछी ए भणी द्रष्टि करवानी इच्छा थती नथी. जेम आपणे Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान, जाणीए छीए के वांसानो मध्य भाग आपणाथी जोइ शकातो नथी, माटे ए भणी आपणे द्रष्टि पण करता नथी; तेम प्रत्याख्यान करवाथी आपणे अमुक वस्तु खवाय के भोगवाय तेम नथी एटले ए भणी आपणुं लक्ष स्वाभाविक जतुं नथी, ए कर्म आववाने आडो कोट थइ पडे छे. प्रत्याख्यान कर्या पछी विस्मृति वगेरे कारणथी कोइ दोष आवी जाय तो तेनां प्रायश्रित निवारण पण महात्माओए कह्यां छे. प्रत्याख्यानथी एक बीजो पण मोटो लाभ छे ते एके अमुक वस्तुओमांज आपणुं लक्ष रहे छे, बाकी बधी वस्तुओनो त्याग थइ जाय छे. जे जे वस्तु त्याग करी छे ते ते संबंधी पछी विशेष विचार, ग्रह, मूकQ के एवी कंइ उपाधि रहेती नथी. ए वडे मन बहु बहोळताने पामी नियमरुपी सडकमा चाल्युं जाय छे. अश्व जो लगाममां आवी जाय छे, तो पछी गमे तेवो प्रबळ छतां तेने धारेले रस्ते जेम लइ जवाय छे तेम मन ए नियमरुपी लगाममां आववाथी पछी गमे ते शुभ राहमां लइ जवाय छ; अने तेमां वारंवार पर्यटन कराववाथी ते एकाग्र, विचारशील अने विवेकी थाय छे. मननो आनंद शरीरने पण निरोगी करे छे. वळी अभक्ष्य, अनंतकाय, परस्त्रीयादिक नियम कर्याथी पण शरीर निरोगी रही शके छे. मादक पदार्थो मनने अवळे रस्ते दोरे छे, पण प्रत्याख्यानथी मन त्यां जतां अटके छे; एथी ते विमळ थाय छे. .प्रत्याख्यान ए केवी उत्तम नियम पाळवानी प्रतिज्ञा छे ते आ उपरथी तमे समज्या हशो. विशेष सद्गुरु मुखथी अने शास्त्रावलोकनथी समजवा हुं बोध करुं छु. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजुं.. शिक्षापाठ ३२ विनयवडे तत्वनी सिद्धि छे. राजगृही नगरीनां राज्यासनपर ज्यारे श्रेणिक राजा विराजमान हता, त्यारे ते नगरीमा एक चंडाळ रहेतो हतो. एक वखते ए चंडाळनी स्त्रीने गर्भ रह्यो. त्यारे तेने केरी खावानी इच्छा उत्पन्न थइ. तेणे ते लावी आपवा चंडाळने कह्यं. चंडाळे कडं: आकेरीनो वखत नथी, एटले मारो उपाय नथी. नहि तो हुं गमे तेटले उंचे होय त्यांथी मारी विद्यानां पळवडे करीने लावी तारी इच्छा सिद्ध करूं. चंडाळणीए कह्यु: राजानी महाराणीना बागमां एक अकालिक केरी आपनार आंबो के. तेपर अत्यारे केरीओ लची रही हशे, माटे त्यां जइने ए केरी लावो. पोतानी स्त्रीनी इच्छा पुरी पाडवा चंडाळ ते बागमां गयो. गुप्त रीते आंबा समीप जई मंत्र भणीने तेने नमाव्यो, अने केरी लीधी. बीजा मंत्रवडे करीनं तेने हतो एम करी दीधो. पछी ते घेर आव्यो अने तेनी स्त्रीनी इच्छा माटे निरंतर ते चंडाळ विद्याबले त्यांथी केरी लाववा लाग्यो. एक दिवसे फरतां फरतां माळीनी द्रष्टि आंबा भणी गई. केरीओनी चोरी थयेली जोईने तेणे श्रेणिकराजाना आगळ नम्रतापूर्वक जइने कपु. श्रेणिकनी आज्ञाथी अभयकुमार नामना बुद्धिशाळी प्रधाने युक्तिवडे ते चंडाळने शोध काढ्यो. तेने पोताना आगळ तेडावी पूछयुः एटलां बधां माणमो बागमां रहे छे छनां तुं केवी रीते चढीने ए केरी लई गयो के ए वात कळवामां पण न आवी ? चंडाळे कहूं: आप मारो अपराध क्षमा करजो. हुं साचुं बोली जउं छु के मारी पासे एक विद्या छे, तेना योगथी हुँ ए केरीओ लइ शक्यो. अभयकुमारे कर्यु: माराथी क्षमा न थइ शके, परंतु महाराजा श्रेणिकने ए विद्या तुं आप तो तेओने एवी विद्या लेवानो अभिलाष होवाथी तारा उपकारना वदलामां हुं अपराध क्षमा Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन शेठ. ४७ करावी शकुं. चंडाळे एम करवानी हा कही. पछी अभयकुमारे चंडाळने श्रेणिकराजा ज्यां सिंहासनपर बेठा हता त्यां लावीने सामो उभो राख्यो, अने सघळी वान राजाने कही बतावी. ए वातनी राजाए हा कही. चंडाळे पछी सामा उभा रही थरथरते पगे श्रेणिकने ते विद्यानो बोध आपवा मांड्यो, पण ते बोध लाग्यो नहि. झडपथी उभा थइ अभयकुमार बोल्याः महाराज ! आपने जो ए विद्या अवश्य शीखवी होय तो सामा आवी उभा रहो, अने एने सिंहासन आपो. राजाऐ विद्या लेवा खातर एम कर्यु तो तत्काल विद्या साध्य थइ. ____ आ वात मात्र बोध लेवाने माटे के. एक चंडाळनो पण विनय कर्या वगर श्रेणिक जेवा राजाने विद्या सिद्ध न थइ, तो तेमांथी तत्व ए ग्रहण करवानुं छे के सद्विद्याने साध्य करवा विनय करवो अवश्यनो छे. आत्मविद्या पामवा निग्रंथगुरुनो जो विनय करीए तो केवु मंगळदायक थाय ! विनय ए उत्तम वशीकरण छे. उतराध्ययनमां भगवाने विनयने धर्मनुं मूळ कही वर्णव्यो छे. गुरुनो, मुनिनो, विद्वाननो, मातापितानो अने पोताथी वडानो विनय करवो ए आपणी उत्तमतानुं कारण छे. शिक्षापाठ ३३ सुदर्शन शेठ. प्राचीनकाळमां शुद्ध एक पत्नीव्रतने पाळनारा असंख्य पुरुषो थइ गया छ एमांथी संकट सही नामांकित थयेलो सुदर्शन नामनो एक सत्पुरुष पण छे. ए धनाढ्य सुंदर मुखमुद्रावाळो कांतिमान अने मध्य वयमा हतो. जे नगरमां ते रहेतो हतो, ते नगरना Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. राज्यदरबार आगळथी कंइ काम प्रसंगने लीधे तेने नीकळवू पडयुं. ते वेळा राजानी अभया नामनी राणी पोताना आवासना गोखमां बेठी हती. त्यांथी सुदर्शन भणी तेनी द्रष्टि गइ. नेर्नु उत्तम रुप अने काया जोइने तेनुं मन ललचायु. एक अनुचरी मोकलीने कपटभावथी निर्मळ कारण बतावीने सुदर्शनने उपर बोलाव्यो. केटलाक प्रकारनी वातचित कर्या पछी अभयाए सुदर्शनने भोग भोगववा संबंधीनुं आमंत्रण कयु. सुदर्शने केटलोक उपदेश आप्यो तोपण तेनुं मन शांत थयुं नहि. छेवटे कंटाळीने सुदर्शने युक्तिथी कह्युः बहेन, हुं पुरुषत्वमा नथी ! तोपण राणीए अनेक प्रकारना हावभाव कर्या. ए सघळी कामचेष्टाथी सुदर्शन चल्यो नहि, एथी कंटाळी जइने राणीए तेने जतो कर्यो. एक वार ए नगरमां उजाणी हती, तेथी नगर बहार नगरजनो आनंदथी आम तेम भमता हता. धामधुम मची रही हती. सुदर्शन शेठना छ देवकुमार जेवा पुत्रो पण त्यां आव्या हता. अभया राणी कपिला नामनी दासी साथे ठाठमाठथी त्यां आवी हती. सुदर्शनना देवपूतळां जेवा छ पुत्रो तेना जोवामां आव्या, कपिलाने तेणे पूछयुः आवा रम्य पुत्रो कोना छे ? कपिलाए सुदर्शन शेठनुं नाम आप्यु. नाम सांभळीने राणीनी छातीमां कटार भोकाइ तेने कारी घा वाग्यो. सघळी धामधुम वीती गया पछी माया कथन गोठवीने अभयाए अने तेनी दासीए मळी राजाने काः तमे मानता हशो के मारा राज्यमां न्याय अने नीति वर्ते छे, दुर्जनोथी मारी प्रजा दुःखी नथी; परंतु ते सघळं मिथ्या छे. अंतःपुरमां पण दुर्जनो प्रवेश करे त्सां सुधी हजुअंधेर छे ! तो पछी बीजां स्थळ माटे पूछवू पण शुं : तमारा नगरना सुदर्शन नामना शेठे मारी कने भोगनुं आमंत्रण कयु. नहि कहेवा योग्य कथनो . मारे सांभळवां पड्यां; पण में तेनो तिरस्कार को. आथी विशेष Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य विषे सुभाषित. अंधारुं कयुं कहेवाय ? घणा राजा मूळ कानना काचा होय छे ए बात जाणे बहु मान्य छे, तेमां वळी स्त्रीनां मायावी मधुरां वचन शुं असर न करे ? ताता तेलमा टाढां जळ जेवां वचनथी राजा क्रोधायमान था. सुदर्शनने शृळी चढावी देवानी तत्काळ तेणे आज्ञा करी दीधी, अने ते प्रमाणे सघळु थई पण गयुं. मात्र शुक्रीए सुदर्शन बेसे एटली वार हती. गमे तेम हो, पण सृष्टिना दिव्य भंडारमां अजवालुं छे, सत्यनो प्रभाव ढांक्यो रहेतो नथी. सुदर्शनने शूळीए बेसार्यो, के शूळी फीटीने तेनुं झळझळतुं सोनानुं सिंहासन थयुं अने देव दुंदुभीना नाद थया; सर्वत्र आनंद व्यापी गयो. सुदर्शननुं सत्य - शीळ विश्वमंडळमां झळकी उठयुं. सत्य शीळनो सदा जय छे. शीळ अने सुदर्शननी उत्तम द्रढता ए बन्ने आत्माने पवित्र श्रेणिए चढावे छे ! शिक्षापाठ ३४ ब्रह्मचर्य विषे सुभाषित. दोहरा. निरखीने नवयौवना, लेश न विषयनिदान; गळे काष्टनी पूतळी, ते भगवान समान, आ सघळा संसारनी, रमणी नायकरूप; ए त्यागी, त्यायुं बधुं, केवळ शोक स्वरुप. एक विषयने जीततां, जीत्यो सौ संसार; नृपति जीततां जीतिये, दळ, पुरने अधिकार. ३ विषयरूप अंकूरथी, टळे ज्ञानने ध्यान; लेश मदीरापानथी, छाके ज्यम अज्ञान, १ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. जे नववाड विशुद्धथी, धरे शियळ सुखदाइ; भव तेनो लव पछि रहे, तत्ववचन ए भाइ. सुंदर शीयळसुरतरु, मन वाणी ने देह; जे नरनारी सेवशे, अनुपम फळ ले तेह. पात्र विना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिक ज्ञान; पात्र थवा सेवो सदा, ब्रह्मचर्य मतिमान. शिक्षापाठ ३५ नमस्कारमंत्र. नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं; नमो आयरियाणं, नमो उवझ्झायाणं; _ नमो लोए सव्वसाहुणं. आ पवित्र वाक्योने निग्रंथप्रवचनमां नवकार (नमस्कार ) मंत्र के पंचपरमेष्टिमंत्र कहे छे, __अहंत भगवंतना बार गुण, सिद्ध भगवंतना आठ गुण, आचायना छत्रीश गुण, उपाध्याय ना पंचवीश गुण, अने साधुना सत्तावीश गुण मळीने एकसो आउ गुण थया. अंगुठा विना बाकीनी चार आंगळीओनां बार टेरवां थाय छे, अने एथी ए गुणोनुं चिंतवन करवानी योजना होवार्थी बारने नवे गुणतां १०८ थाय छे. एटले नवकार एम कहेवामां साथे एवं सूचवन रहुं जणाय छे के हे भव्य ! तारां ए आंगळीनां टेरवांथी ( नवकार ) मंत्र नववार गण.-कार एटले करनार एम पण थाय छे. बारने नवे गुणतां जेटला थाय एटला गुणनो परेलो मंत्र एम नवकार मंत्र तरीके एनो अर्थ थइ शके छे. पंचपरमेष्टि एटले आ सकळ जगत्मां पांच वस्तुओ परमोत्कृष्ट छे ते ते कयी कयी ?-तो कही बतावी के अरि Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु, एने नमस्कार करवानो जे मंत्र ते परमेष्टि मंत्री अने पांच परमेष्टिने साथे नमस्कार होवाथी पंचपरमेष्टिमंत्र एवो शब्द थेयो. आ मंत्र अनादिसिद्ध मनाय छे, कारण पंचपरमेष्टि अनादिसिद्ध छे. एटले ए पांचे पात्रो आद्यरुप नथी प्रवाहथी अनादि छे, अने तेनो जपनार पण अनादिसिद्ध एथी ए जाप पण अनादिसिद्ध ठरे छ. प्रश्न-ए पंचपरमेष्टिमंत्र परिपूर्ण जाणवाथी मनुष्य उत्तम गतिने पामे छे एम सत्पुरुषो कहे छे ए माटे तमारुं शुं मत छे ? उत्तर-ए कहे, न्यायपूर्वक छे, एम हुं मानुं ... प्रश्न-एने कयां कारणथी न्यायपूर्वक कही शकाय ? उत्तर-हा. ए तमने हुं समजावू. मननी निग्रहता अर्थे एक तो सर्वोत्तम जगत्भूषणना सत्य गुणतुं ए चितवन छे. तत्वथी जोतां वळी अर्हतस्वरुप, सिद्धस्वरुप, आचार्यस्वरुप, उपाध्याय स्वरुप अने साधुस्वरुप एनो विवेकथी विचार करवानुं पण ए सूचवन छे; कारण के तेओ पूनवा योग्य शाथी छे ? एम विचारतां एओनां स्वरुप, गुण इ० माटे विचार करवानी सत्पुरुषने तो खरी अगत्य छे. हवे कहो के ए मंत्र केटलो कल्याणकारक छ ? __ प्रश्नकार-सत्पुरुषो नमस्कारमंत्रने मोक्षनुं कारण कहे छे. ए आ व्याख्यानथी हुँ पण मान्य राखुं छ. ___अहंत भगवंत, सिद्ध भगवंत, जाचार्य, उपाध्याय अने साधु एओनो अकेको प्रथमअक्षर लेतां “असिआउसा" एवं महद्भूत वाक्य नीकळे छ जेनुं 'ओं एवू योगबिंदुनु स्वरुप थाय छे माटे आपणे ए मंत्रनो अवश्य करीने विमळ भावथी जाप करवो. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. शिक्षापाठ ३६ अनानुपूर्वि. पिता-आवी जातनां कोष्टकथी भरेलुं एक नानुं पुस्तक छे. ते तें जोयुं छे ? पुत्र-हा पिताजी. पिता-एमां आडा अवळा अंक मूक्या छे, तेनुं कांइ. पण कारण तारा समजवामां छे ? पुत्र-नहि पिताजी. मारा समजवामां नथी माटे आप ते कारण कहो. पिता-पुत्र ! प्रत्यक्ष छे के मन ए एक बहु चंचळ चीज छे, जेने एकाग्र करवु बहु बहु विकट छे. ते ज्यां सुधी एकाग्र थतुं नथी त्यां सुधी आत्ममलिनता जती नथी. पापना विचारो घटता नथी. ए एकाग्रता माटे बार प्रतिज्ञादिक अनेक महान साधनो भगवाने कह्यां छे. मननी एकाग्रताथी महा योगनी श्रेणिए चढवा माटे अने तेने केटलाक प्रकारची निर्मळ करवा माटे सत्पुरुषोए आ एक साधनरूप कोष्टकावलि करी छे. पंचपरमेष्टि मंत्रना पांच Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक विचार भाग १. अंक एमां पहेला मूक्या छे, अने पछी लोमविलोम स्वरुपमा लक्षबंध एना ए पांच अंक मूकीने भिन्न भिन्न प्रकारे कोष्टको कों छे. एम करवानुं कारण पण मननी एकाग्रता थईने निर्जरा करी शकाय ए छे. पुत्र-पिताजी ! अनुक्रमे लेवाथी एम शा माटे न थइ शके ? पिता-लोमविलोम होय तो ते गोठवतां जवू पडे अने नाम संभारतां जवू पडे. पांचनो अंक मूक्या पछी बेनो आंकडो आवे के 'नमो लोए सव्वसाहुणं' पछी-' नमो अरिहंताणं' ए वाक्य मूकीने 'नमो सिद्धाणं' ए वाक्य संभार, पडे. एम पुनः पुनः लक्षनी द्रढता राखतां मन एकाग्रताए पहोंचे छे. अनुक्रमबंध होय तो तेम थइ शकतुं नथी, कारण के विचार करवो पडतो नथी. ए सूक्ष्म वखतमा मन परमेष्टिमंत्रमाथी नीकळीने संसारतंत्रनी खटपटमां जइ पडे छे, अने वखते धर्म करतां धाड पण करी नाखे छे, जेथी सत्पुरुषोए अनानुपूर्विनी योजना करी छे. ते बहु सुंदर छे अने आत्मशांतिने आपनारी छे. शिक्षापाठ ३७ सामायिक विचार भाग १. आत्मशक्तिनो प्रकाश करनार, सम्यग्ज्ञानदर्शननो उदय करनार, शुद्ध समाधिभावमा प्रवेश करावनार, निर्जरानो अमूल्य लाभ आपनार, रागद्वेषथी मध्यस्थ बुद्धि करनार एवं सामायिक नामनुं शिक्षाबत छे. सामायिक शब्दनी व्युत्पत्ति समआय-इक ए शब्दोथी थाय छे. सम एटले रागद्वेषरहित मध्यस्थ परिणाम, आय एटले ते समभावनाथी उत्पन्न थतो ज्ञानदर्शन चारित्ररुप मोक्षमार्गनो लाभ, अने इक कहेतां भाव एम अर्थ थाय छे. एटले. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा - पुस्तक बीजं. जे वडे करीने मोक्षना मार्गनी लाभदायक भाव उपजे ते सामायिक. आर्त्त, अने रौद्र ए वे प्रकारनां ध्याननो त्याग करीने मन, वचन, कायाना पापभावने रो हीने विवेकी मनुष्यो सामायिक करे छे. ५४ मनना पुद्गल तरंगी सामायिकमां ज्यारे विशुद्ध परिणामथी रहेतुं योग्य छे त्यारे पण ए मन आकाश पातालना घाट घड्या करे छे तेमज भूल, विस्मृति, उन्माद इत्यादिथी वचनकायामां पण दूषण आववाधी सामायिकमां दोष लागे छे. मन, वचन अने कायाना थईने बत्रीश दोष उत्पन्न थाय छे. दश मनना, दश वचनना अने बार कामना एम बत्रीश दोष जाणवा अवइयना छे. जे जाणवाथी मन सावधान राखी शकाय. मनना दश दोष कहुं एं. १ अविवेवकदोष- सामायिकनुं स्वरुप नहि जाणवाथी मनमां एवो विचार करे के आथी गुं फळ थवानुं हतुं ? आधी ते कोण तर्यु हशे ? एवा विकल्पनुं नाम अविवेकदोष. २ यशोवांच्छादोष- पोने सामायिक करे छे एम बीजा मनुष्यो जाणे तो प्रशंसा करे एवी इच्छाए सामायिक करवुं ते यशोवांच्छादोष. ३ धनवांछादोष - धननी इच्छाए सामायिक करवुं ते धनवांच्छा दोष. ४ गर्वदोष -मने लोको धर्मि कहे छे अने हूं सामायिक पण तेज करूं छं ? एवो अध्यवसाय ते गर्वदोष. ५ भयदोष - हुं श्रावककुलमां जन्म्यो लुं, मने लोको मोटा तरीके मान आपे छे, अने जो सामायिक नहि करु तो कहेशे के आटली क्रिया पण नथी करतो; एम निंदाना भयथी सामायिक करे ते भयदोष. ६ निदानदोष - सामायिक करीने तेनां फळथी धन, स्त्री, पुत्रादिक मळवानुं इच्छे ते निदानदोष. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक विचार भाग २० .५५ ७ संशयदोष- सामायिकनुं फळ हशे के नहि होय ? एवो विकल्प करे ते संशयदोष. ८ कषायदोष- सामायिक क्रोधादिकथी करवा बेसी जाय किंवा पछी क्रोध, मान, माया, लोभमां वृत्ति घरे ते कषायदोष. ९ अविनयदोष - विनय वगर सामायिक करे ते अविनयदोष. १० अबहुमानदोष भक्तिभाव अने उमंगपूर्वक सामायिक न करे ते अबहुमानदोष. - शिक्षापाठ ३८ सामायिक विचार भाग २. मनना दश दोष कह्या हवे वचनना दश दोष कहीशुं. १ कुबोलदोष - सामायिकमां कुवचन बोलवु ते कुबोलदोष. २ सहसात्कारदोष-सामायिकमां साहसथी अविचारपूर्वक वाक्य बोलं ते सहसात्कारदोष. ३ असदारोपणदोष- बीजाने खोटो बोध आदि आपवां ते असदारोपणदोष. ४ निरपेक्षदोष- सामायिकमां शास्त्रनी दरकार विना वाक्य बोले ते निरपेक्षदोष. ५ संक्षेपदोष सूत्रना पाठ इत्यादिक हुंकामां बोली नाखे, यथार्थ उच्चार करे नहि ते संक्षेपदोष. ६ शदोष - कोईथी कंकाश करे ते क्लेशदोष. ७ विकथादोष - स्त्रियादि चार के सात प्रकारनी विकथा मां से विकथादोष. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा - पुस्तक बीजं. ८ हास्यदोष - सामायिकमां कोइनी हांसी मश्करी करे ते हास्यदोष. ५६ ९ अशुद्धदोष- सामायिकमां सूत्रपाठ न्यूनाधिक अने अशुद्ध बोले ते अशुद्धदोष. १० मुणमुणदोष- गडवडगोटाथी सामायिकमां सूत्रपाठ बोले जे पोते पण पूरुं मांड समजी शके ते मुणमुणदोष. ए वचनना दश दोष कहा, हवे कायाना बार दोष कहुं छं. १ अयोग्य आसनदोष - सामायिकमां पगपर पग चढावी बेसे, ते श्री गुरु आदि प्रत्ये अविनयरुपआसन ते अयोग्य आसनदोष. २ चलासनदोष - डगडगते आसने बेसी सामायिक करे, किंवा वारंवार ज्यांथी उठवुं पडे तेवे आसने बेसे ते चलासनदोष. ३ चलद्रष्टिदोष-- कार्योत्सर्गमां आंखो चंचळ राखे ए चलद्रष्टिदोष. ४ सावद्यक्रियादोष -- सामायिकमां कंइ पाप क्रिया के तेनी संज्ञा करे ते सावद्यक्रियादोष. ५ आलंबनदोष - भीतादिके ओठींगण दइ बेसे एथी त्यां बेठेला जंतुनो नाश थाय के तेने पीडा थाय तेमज पोताने प्रमादनी प्रवृत्ति थाय, ते आलंबनदोष. ६ आकुंचनप्रसारणदीप हाथ पग संकोचे, लांबा करे ए आदि ते आकुंचनप्रसारणदोष. ७ आलसदोष - अंग मरडे, टचाका बगाडे ए आदि ते आळसदोष. ८ मोटनदोष -आंगळी वगेरे वांकी करी टचाका बगाडे ते मोटनदोष, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक विचार भाग ३. ९ मलदोष-घरडा घरड करी सामायिकमां चल करी मेल खंखेरे ते मलदोष. १० विमासणदोष-गळामांहाथ नाखी बेसेइ. ते विमासणदोष. ११ निद्रादोष--सामायिकमां उंघ आवे ते निद्रादोष. १२ वस्त्रसंकोचन-सामायिकमांदाढ प्रमुखनी भीतिथी वस्तथी शरीर संकोचे ते. ए वत्रीश दूषणरहित सामायिक करवू. पांच अतिचार टाळवा. शिक्षापाठ ३९ सामायिक विचार भाग३. एकाग्रता अने सावधानी विना ए बत्रीश दोषमांना अमुक दोष पण आवी जाय छे. विज्ञानवेत्ताओए सामायिकर्नु जघन्य प्रमाण बे घडीनुं बांध्युं छे. ए व्रत सावधानीपूर्वक करवाथी परमशांति आपे छे. केटलाकनो ए बे घडीनो काळ ज्यारे जतो नथी त्यारे तेओ बहु कंटाळे छे. सामायिकमां नवराश लइने बेसवाथी काळ जाय पण क्यांथी ? आधुनिक काळमां सावधानीथी सामायिक करनारा बहुज थोडा छे. प्रतिक्रमण सामायिकनी साथे करवानुं होय छे त्यारे तो वखत जवो सुगम पडे छे. जो के एवा पामरो प्रतिक्रमण लक्षपूर्वक करी शकता नथी तोपण केवळ नवराश करता एमां जरुर कंइक फेर पडे छे. जेओने सामायिक पण पुरुं आवडतुं नथी तेओ बीचारा सामायिकमां पछी बहु मुंझाय छे. केटलाक भारे कर्मियो ए अवसरमां व्यवहारना प्रपंचो पण घडी राखे छे. आथी सामायिक बहु दोषित थाय छे. विधिपूर्वक सामायिक न थाय ए बहु खेदकारक अने कर्मनी बाहुल्यता छे. साठ घडीना अहोरात्र व्यर्थ चाल्या जाय छे. असं Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. ख्याता दिवसथी भरेलां अनंता कालचक्र व्यतित करतां पण जे सार्थक न थयुं ते वे घडीना वेशुद्ध सामायिकथी थाय छे. लक्षपूर्वक सामायिक थवा माटे तेम' प्रवेश कर्या पछी चार लोगस्सथी वधारे लोगस्सनो कायोत्सर्ग करी चित्तनी कंइक स्वस्थता आणवी. पछी सूत्रपाठ के उत्तम ग्रंथ मनन करवू, वैराग्यनं उत्तम काव्यो बोलवां, पाछळनुं अध्ययन करेलुं स्मरण करी जवू, नूतन अभ्यास थाय तो करवो. कोइने शात्राधारथी बोध आपको; एम सामायिकी काळ व्यतित करवे . मुनिराजनो जो समागम होय तो आगमवाणी सांभळवी अने ते मनन करवी, तेम न होय अने शास्त्र परिचय न होय तो विचक्षण अभ्यासी पामेथी वैराग्यवोधक कथन श्रवण करवू; किंवा कंइ अभ्यास करवो. ए सघळी योगवाइ न होय तो केटलोक भाग लक्षपूर्वक कार्य त्सर्गमा रोकवो अने केटलोक भाग महा पुरुषोनां चरित्रकथामां उपयोगपूर्वक रोकवो, परंतु जेम बने तेम विवेकथी अने उत्साहथी सामायिकीकाळ व्यतित करवो. कंइ भाहित्य न होय तो पंच परमेष्टिमंत्रनो जापज उत्साहपूर्वक करवो पण व्यर्थ काळ काही नाखवो नहि. धीरजथी, शांतिथी अने यत्राथी सामायिक करमु. जेम बने तेम सामायिकमां शास्त्रपरिचय वधारवो. ___ साठ घडीना अहोरात्रिमाथी बे घडी अवश्य बचावी सामायिक तो सद्भावथी करवं. शिक्षापाठ ४० प्रतिक्रमणविचार. प्रतिक्रमण एटले पार्क फरवू-फरीथी जोई जq एम एनो अर्थ थई शके छे. भावनी अपेक्षाए जे दिवसे जे वखते प्रतिक्रमण Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण विचार. करवानुं थायः ते वखतनी अगाउ अथवा ते दिवसे जे जे दोष थया होय ते एक पछी एक अंतरात्म्मथी जोइ जवा अने तेनो पश्चाताप करी ते दोषथी पार्छ वळवू तेनुं नाम प्रतिक्रमण कहेवाय. उत्तम मुनियो अने भाविक श्रावको संध्याकाळे अने रात्रिना पाछळना भागमां दिवसे अने रात्रे एम अनुक्रमे थयेला दोषना पश्चाताप करे छे के तेनी क्षमापना इच्छे छे, एनुं नाम अहीं आगळ प्रतिक्रमण छे. ए प्रतिक्रमण आपणे पण अवश्य करवू. कारण के आ आत्मा मन, वचन अने कायाना योगथी अनेक प्रकारनां कर्म वांधे छे. प्रतिक्रमण सूत्रमा एनुं दोहन करेलुं छे, जेथी दिवस रात्रमा थयेलां पापना पश्चाताप ते वडे थइ शके छे. शुद्धभाव वडे करी पश्चाताप करवाथी लेश पाप थतां परलोकभय अने अनुकंपा छूटे छे, आत्मा कोमळ थाय छे. त्यागवा योग्य वस्तुनो विवेक आवतो जाय छे. भगवत्साक्षीए अज्ञान आदि जे जे दोष विस्मरण थया होय तेनो पश्चाताप पण थई शके छे. आम ए निर्जरा करवानुं उत्तम साधन छे. ___ एर्नु आवश्यक एवं पण नाम छे. आवश्यक एटले अवश्य करीने करवा योग्य ए सत्य छे. ते वडे आत्मानी मलिनता खसे छे, माटे अवश्य करवा योग्यज छे. सायंकाळ जे प्रतिक्रमण करवामा आवे छे तेनुं नाम 'देवसीयपडिक्कमण' एटले दिवस संबंधी पापनो पश्चाताप, अने रात्रिना पाछला भागमा प्रतिक्रमण करवामां आवे छे ते 'राइपडिक्कमण' कहेवाय छे. देवसीय अने राइ ए पाकृत भाषाना शब्दो छे. पखवाडीए करवानुं प्रतिक्रमण ते पाक्षिक अने संवत्सरे करवातुं ते संवत्सरिक कहेवाय छे. सत्पुरुषोए योजनाथी बांधेलो ए सुंदर नियम छे. केटलाक सामान्य बुद्धिमानो एम कहे छे के दिवस अने Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजु. रात्रिनुं सवारे प्रायश्चितरूप प्रतिक्रमण कयु होय तो कंइ खोटुं नथी परंतु ए कहे, प्रमाणिक ना. रात्रिये अकस्मात् अमुक कारण आवी पडे के काळधर्म प्राप्त थाय तो दिवस संबंधी पण रही जाय. ___ प्रतिक्रमणसूत्रनी योजना बहु सुंदर छे. एनां मूळतत्व बहु उत्तम छे. जेम बने तेमप्रतिक्रमण धीरजथी, समजाय एवी भाषाथी, शांतिथी, मननी एकाग्रताथी अने यत्नापूर्वक करवू. शिक्षापाठ ४१ भीखारीनो खेद भाग १. एक पामर भीखारी जंगलमां भटकतो हतो. त्यां तेने भूख लागी. एटले ते विचारो लडथडीआं खातो खातो एक नगरमां एक सामान्य मनुष्यने घेर पहोंच्यो, त्यां जइने तेणे अनेक प्रकारनी आजीजी करी; तेना कालावालाथी करुणा पामीने ते गृहस्थनी स्त्रीए तेने घरमांथी जमतां वधेलुं मिष्टान्न आणी आप्यु. भोजन मळवाथी भीखारी बहु आनंद पामतो पामतो नगरनी बहार आव्यो, आवीने एक झाड तळे बेठो; त्यां जरा स्वच्छ करीने एक बाजुए अती जुनो थयेलो पोतानो जळनो घडो मूक्यो. एक बाजुए पोतानी फाटीतुटी मलिन गोदडी मूकी अने एक बाजुए पोते ते भोजन लइने बेठो. गजी राजी थतां एणे ते खाइने पुरु कयु. पछी ओशिके एक पथ्थर मूकीने ते सुतो. भोजनना मदथी जरावारमां तेनी आंखो मिचाइ गइ. निद्रावश थयो एटले तेने एक स्वम आव्यु. पोते जाणे महा राजरिद्धिने पाम्यो छे, सुंदर वस्त्राभूषण धारण कर्यां छे, देश आखामां पोतानो विजयनो डंको वागी गयो छे, समीपमां तेनी आज्ञा अवलंबन करवा अनुचरो उभा थइ रह्या छे, आजुबाज, छडीदारो खमा खमा पोकारे छे, एक रमणिय महेलमां सुंदर पलंगपर तेणे शयन कयु छे, देवांगना Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीखारीनो खेद भाग २० ६१ जेवी स्त्रीओ तेना पग चांपे छे, पंखाथी एक बाजुएथी पंखानो मंद मंद पवन ढोळाय छे, एवा स्वमामां तेनो आत्मा चढी गयो. ते स्वमाना भोग लेतां तेनां रोम उल्लसी गयां. एवामां मेघ महाराजा चढी आयो, विजळीना झवकारा थवा लाग्या. सूर्य वादळांथी ढंकाइ गयो, सर्वत्र अंधकार पथराई गयो, मुशलधार वरसाद शे एवं जणायुं अने एटलामां गाजवीजथी एक प्रबळ कडाको थयो. कडाकाना अवाजथी भय पामीने ते पामर भीखारी बिचारो जागी गयो. शिक्षापाठ ४२ भीखारीनो खेद भाग २. -- जुए छे तो जे स्थळे पाणीनो खोखरो घडो पड्यो हतो ते स्थळे ते घडो पड्यो छे, ज्यां फाटी टुटी गोदडी पडी हती त्यांज ते पड़ी छे, पोते जेवां मलिन अने फाटेलां कपडां धारण कर्या हतां तेवां ने तेवां ते वस्त्रो शरीर उपर छे. नथी तलभार वध्युं के नथी जवभार घटयुं, नथी ते देश के नथी ते नगरी, नथी ते महेल के नथी ते पलंग नथी ते चामरछत्र धरनारा के नथी ते छडीदारो नथी ते स्त्रीयो के नथी ते वस्त्रालंकारो, नथी ते पंखा के नथी ते पवन, नथी ते अनुचरो के नथी ते आज्ञा, नथी ते सुख विलास के नथी ते मदोन्मत्तता, भाइ तो पोते जेवा हता तेवा ने तेवा देखाया. एथी ते देखाव जोइने ते खेद पाम्यो. स्वनामां में मिथ्या आडंबर दीठो तेथी आनंद मान्यो. एमांनुं तो अहीं कशुए नथी. स्वमाना भोग भोगव्या नहि अने तेनुं परिणाम जे खेद ते हुं भोगनुं छं. एम ए पामर जीव पश्चातापमां पडी गयो. अहो भव्यो ! भीखारीनां स्वमां जेवां संसारनां सुख अनित्य छे. स्वनामां जेम ते भीखारीए सुख समुदाय दीठो अने आनंद Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. मान्यो तेम पामर प्राणीओ संसार स्वमाना सुखसमुदायमा आनंद माने छे. जेम ते सुख समुदाय जागृतिमां मिथ्या जणाया तेम ज्ञान प्राप्त थतां संसारनां सुख तेव जणाय छे. स्वमाना भोग न भोगव्या छतां जेम भीखारीने खेइनी प्राप्ति थइ, तेम मोहांध प्राणीओ संसारनां सुख मानी बेसे छे, अने भोगव्या सम गणे छे. परंतु परिणाम खेद, दुर्गति अने पश्चाताप ले छे ते चपळ अने विनाशी छतां स्वमाना खेद जेवू तेनुं परिणाम रहुं छे. ए उपरथी बुद्धिमान पुरुषो आत्महितने शोधे छे. संसारनी अनित्यतापर एक काव्य छे के: उपजाति. विद्युतलक्ष्मी प्रभुता पतंग, आयुष्य तेतो जळना तरंग पुरंदरी चाप अनंगरंग, शुं राचिये त्यां क्षणनो प्रसंग ! विशेषार्थः-लक्ष्मी विजठी जेवी छे. विजळीनी झबकार जेम थइने ओलवाइ जाय छे ते लक्ष्मी आवीने च ली जाय छे. अधिकार पतंगना रंग जेवो छ, पतंगनो रंग जेम चार दिवसनी चटकी छे तेम अधिकार मात्र थोडो काळ रही हाथमाथी जतो रहे छे. आयुष्य पाणीना मोजां जेवू छे. पाणीनो हिलोळो आव्यो के गयो तेम जन्म पाम्या अने एक देहमा रह्या के न रह्या त्यां बीजा देहमां पडवू पडे छे. कामभोग आकाशमा उत्पन्न थतां इंद्रनां धनुष्य वर्षाकाळमां थइने क्षणवारमा लय थई जाय छे, तेम योवनमां कामना विकार फळीभूत थई जरा वयमां जता रहे छे. टुंकामां हे जीव ! ए सघळी वस्तुओनो संबंध क्षणभर छे, एमां प्रेमबंधननी सांकळे बंधाईने शु राचवू ? तात्पर्य ए सघळां चपळ अने विनाशी छे, तुं अखंड अने अविनाशी छे, भाटे तारा जेवी नित्य वस्तुने प्राप्त करे ! ए बोध यथार्थ छे. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपम क्षमा. शिक्षापाठ ४३ अनुपम क्षमा. क्षमा ए अंतर्शत्रु जीतवामां खडग छे. पवित्र आचारनी रक्षा करवामां बख्तर छे. शुद्धभावे असह्य दुःखमां, समपरिणामथी क्षमा राखनार मनुष्य भवसागर तरी जाय छे. कृष्ण वासुदेवना गजसुकुमार नामना नाना भाइ महासुरुपवान, सुकुमार मात्र बारवर्षनी वये भगवान् नेमिनाथनी पासेथी संसारत्यागी थइ स्मशानमां उग्र ध्यानमा रह्या हता. त्यारे तेओ एक अद्भुत क्षमामय चरित्रथी महासिद्धिने पामी गया ते अहीं कहुं छं. सोमल नामना ब्राह्मणनी सुरुपवर्णसंपन्न पुत्री जोडे गजसुकुमारनुं सगपण कर्यु हतुं. परतुं लग्न थया पहेलां गजसुकुमार तो संसार त्यागी गया. आथी पोतानी पुत्री- सुख जवाना द्वेषथी ते सोमल ब्राह्मणने भयंकर क्रोध व्याप्यो. गजसुकुमारनो शोध करतो करतो ए स्मशानमां ज्यां महामुनि गजसुकुमार एकाग्र विशुद्धभावथी कायोत्सर्गमां छे त्यां आवी पहोंच्यो. कोमळ गजसुकुमारना माथापर चीकणी माटीनी वाड करी अने अंदर धखधखता अंगारा भयो, इंधन पूर्यु एटले महा ताप थयो. एथी गजसुकुमारनो कोमळ देह बळवा मंडयो एटले ते सोमल जतो रह्यो. ते वखतना गजसुकुमारना असह्य दुःखनुं वर्णन केम थई शके ? त्यारे पण तेओ समभाव परिणाममा रह्या. किंचित् क्रोध के द्वेष एना हृदयमां जन्म पाम्यो नहि. पोताना आत्माने स्थितिस्थापक करीने बोध दीधो के जो ! तुं एनी पुत्रीने परण्यो होत तो ए कन्यादानमां तने पाघडी आपत. ए पाघडी थोडा वखतमां फाटी जाय तेवी अने परिणामे दुखदायक थात. आ एनो बहु उपकार Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ मोक्षमाळा- पुस्तक बीजं• थयो के ए पाघडी बदल एणे मोक्षनी पाघडी बंधावी. एवां विशुद्ध परिणामथी अडग्ग रही समभावधी असह्य वेदना सहीने ओ सर्वज्ञ सर्वदर्शी थई अनंतजीवन सुखने पाम्या. केवी अनु पम क्षमा अने केवुं तेनुं सुंदर परिणाम ! तत्वज्ञानीओनां वचन छे के आत्मा मात्र स्वसद्भावमां आववो जोइए, अने ते आव्यो तो मोक्ष हथेळीमांज छे. गजसुकुमारनी नामांकित क्षमा केवो शुद्ध बोध करे छे ! शिक्षापाठ ४४ राग. श्रमण भगवान् महावीरना अग्रेसर गणधर गौतमनुं नाम तमे बहुवार जाण्युं छे. गौतमस्वामीना बोधेला केला शिष्यो, केवळ ज्ञान पाम्या छतां गौतम पोते केवळज्ञान पाम्या नहोता, कारण के भगवान महावीर अंगोपांग, वर्ण, वाणीरूप इत्यादिपर हजु गौतमने मोह हतो. निषेधवचननो निष्पक्षपाती न्याय एवो छे के गमे ते वस्तुपरनो राग दुःखदायक छे. राग ए मोह अने मोह ए संसारज छे. गौतमना हृदयथी ए राग ज्यां सुधी खस्यो हि त्यां सुधी ते केवळतान पाम्या नहि. श्रमण भगवान ज्ञातपुत्र ज्यारे अनुपमयसिद्धिने पाम्या, त्यारे गौतम नगरमांथी आवता हता. भगवाननानिर्वाण समाचार सांभळी तेओ खेद पाम्या. विरहथी तेओ अनुराग वचनथी बोल्याः हे महावीर ! तमे मने साथे तो न राख्यो परंतु संभायए नहि. मारी प्रीति सामी तमे द्रष्टि पण करी नहि ! आम तमने छाजतुं नहोतुं एवा विकल्पो यतां तां तेनो लक्ष फर्य ने ते निरागश्रेणिए चढ्या; हुं बहु मूर्खता करूं छं. ए वीतराग निर्विकारी अने निरागी ते मारामां केम मोह राखे ? एनी शत्रु अने मित्रपर केवळ समान दृष्टि हती ! हुं Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य मनोर्थ. ६५ ए निरागीनो मिथ्या मोह राखुं छं. मोह संसारनुं प्रबळ कारण छे, एम विचारतां विचारतां तेओ शोक तजीने निरोगी थया. एटले अनंतज्ञान प्रकाशित थयुं, अने प्रांते निर्वाण पधार्या. गौतम मुनिनो राग आपणने बहु सूक्ष्म बोध आपे छे, भगबानपरनो मोह गौतम जेवा गणधरने दुःखदायक थयो तो पछी संसारनो, ते वळी पामर आत्माओनो मोह केवुं अनंत दुःख आपतो हशे ! संसाररुपी गाडीने राग अने द्वेष ए वे रुपी बळद छे. ए न होय तो संसारनुं अटकन छे. ज्यां राग नथी त्यां द्वेष नथी; आ मान्य सिद्धांत छे. राग तीव्र कर्मबंधननुं कारण छे, एना क्षयथी आत्मसिद्धि छे. शिक्षापाठ ४५ सामान्य मनोर्थ. सवैया. मोहिनिभावविचार आधीन थइ, ना निरखुं नयने परनारी; पत्थरतुल्य गणुं परवैभव, निर्मळ तात्विक लोभ समारी ! द्वादश व्रत अने दिनता धरि, सात्विक थाउं स्वरुप विचारी; ए मुजम सदा शुभ क्षेमक, नित्य अखंड रहो भवहारी. १ त्रिशलातनये मन चिंतवि, ज्ञान विवेक विचार वधारूं; नित्य विशोध करी नव तत्वनो, उत्तम बोध अनेक उच्चार; संशय बीज उगे नहि अंदर, जे जिननां कथनो अवधारुं; राज्य, सदा सुज एज मनोरथ, धार, थशे अपवग उतारुं. २ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. शिक्षापाठ ४६ कपिलमुनि भाग १. कौसांबी नामनी एक नगरी हती, त्यांना राजदरबारमा राज्यनां आभूषणरुप काश्यप नामनो एक शास्त्री रहेको हतो. एनी स्त्रीचें नाम श्रीदेवी हतुं, तेना उदरथी कपिल नामनो एक पुत्र जन्म्यो हतो. ते पंदर वर्षनो यो त्यारे तेना पिता परधाम गया. कपिल लाडपाडमां उछरेलो वाथी कंइ विशेष विद्वता पाम्यो नहोतो, तेथी एना पितानी जनो कोइ बीजा विद्वानने मळी. काश्यपशास्त्री जे पुंजी कमाइ गया ह ना ते कमावामां अशक्त एवा कपिले खाइने पुरी करी. श्रीदेवी एक दिवस घरना बारणामां उभी हती त्यांबे चार नोकरो सहित प ताना पतिनी शास्त्रीयपदी पामेलो विद्वान जतो तेना जोवामां आ यो. घणा मानथी जता आ शास्त्रीने जोइने श्रीदेवीने पोतानी पूर्व स्थतिनुं स्मरण थइ आव्युं. ज्यारे मारा पति आ पद्वीपर हता त्य रे हुं केवं सुख भोगवती हती ? ए मारुं सुख तो गयुं परंतु मागे पुत्र पण पुरुं भण्यो नहि. एम विचारमा डोलतां डोलतां तेर्न आंखमाथी दड दड आंसु खरवा मंड्यां. एवामां फरतो फरतो व पिल त्यां आवी पहोंच्यो. श्रीदेवीने रडती जोइ तेनुं कारण पूछयुः कपिलना बहु आग्रहथी श्रीदेवीए जे हतुं ते कही बताव्युं. पछी कपिल बोल्योः जो मा ! हुं बुद्धिशाळी छु, परंतु मारी बुद्धिनो उपयोग जेवो जोइए तेवो थइ शक्यो नथी. एटले विद्या वगर हुँ ए पद्वी पाम्यो नहि. तुं कहे त्यां जइने हवे हुं माराथी वनती विद्या माध्य करूं. श्रीदेवीए खेद साथे काः ए ताराथी बनी शके नहि, नहि तो आर्यावर्तनी मर्यादापर आवेली सावस्थी नगरीमां इंद्र त्त नामनो तारा पितानो मित्र रहे छे, त अनक विद्यार्थियोने विद्यादान आपे छे; जो ताराथी त्यां Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपिलमुनि भाग २. ६७ जवाय तो धारेली सिद्धि थाय खरी. एक वे दिवस रोकाइ सज थइ अस्तु कही कपिलजी पंथे पड्या. अवध वीततां कपिल सावस्थीए शास्त्रीजीने घेर आवी पहोंच्या. प्रणाम करीने पोतानो इतिहास कही बताव्यो. शास्त्रीजीए मित्रपुत्रने विद्यादान देवाने माटे बहु आनंद देखाड्यो, पण कपिल आगळ कंइ पुंजी नहोती के न तेमांथी खाय अने अभ्यास करी श; एथी करीने तेने नगरमां याचवा जवुं पडतुं हतुं. याचतां याaai aपोर थइ जता हता, पछी रसोई करें अने जमे त्यां सांजनो थोडो भाग रहे तो हतो. एटले कंइ अभ्यास करी शकतो नहोतो. पंडिते तेनुं कारण पूछयुं त्यारे कपिले ते कही बतान्युं पंडिते तेने एक गृहस्थ पासे तेडी गया. ते गृहस्थे कपिलनी अनुकंपा खातर एने हमेशां भोजन मळे एवी गोठवण एक विधवा ब्राह्मणीने त्यां करी दीधी, जेथी कपिलने ए एक निता ओछी थइ. · शिक्षापाठ ४७ कपिलमुनि भाग २. एनानी चिंता ओछी थइ त्यां पीजी मोटी जंजाळ उभी था. भद्रिक कपिल हवे युवान् थयो हतो, अने जेने त्यां ते जमवा जतो ते विधवा बाइ पण युवान् हती. तेनी साथे तेना घरमा बीजुं कोइ माणस नहोतुं. हमेशनो परस्परनो वातचित्तनो संबंध वध्यो. वधीने हास्यविनोदरूपे थयो, एम करतां करतां बन्नेने प्रीति बंधाई. कपिल तेनाथी लुब्धायो ! एकांत बहु अनिष्ट चीज छे !! विद्या प्राप्त करवानुं ते भूली गयो. गृहस्थ तरफथी मळतां सीधांथी बन्नेनुं मांड पुरुं यतुं हतुं, पण लूगडांलत्तांना वांधा थया. कपिले गृहस्थाश्रम मांडी बेठां जेवुं करी मूक्युं गमे तेवो छतां Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૮ मोक्षमाळा - पुस्तक बीजं• हळु- कर्मी जीव होवाथी संसारनी विशेष लोताळनी तेने माहिती पण नहोती, एथी पैसा केम पैदा करवा ते विचारां ते जाणतो पण नहोतो. चंचळ स्त्रीए तेने रस्तो बताव्यो के मुंझावामां कंह वळवानुं नथी, परंतु उपायथी सिद्धि छे. आ गामना राजानो एवो नियम छे के सवारमा पहेलो जइ जे ब्राह्मण आशिर्वाद आपे तेने ते वे मासा सोनुं आपे छे. त्यां जो जइ शको अने प्रथम आशिर्वाद आपी शको तो ते वे मासा सोनुं मळे. कपिले ए वातनी हा कही. आठ दिवस सुधी आंग खाधा पण वखत वीत्या पछी जाय एटले कंइ वळे नहि. एथी तेणे एक दिवस एवो निश्चय कर्यों के जो हुं चोकमां सुजं तो चीवट राखीने उठाशे पछी ते चोकमां सुतो, अधरात भांगतां चंद्रनो उदय थयो. कपिले प्रभात समीप जाणीने मुठीओ वाळीने आशिर्वाद देवा माटे दोडतां जवा मांडयुं. रक्षपाळे चोर जाणीने तेने पकडी राख्यो. एक करतां बीजुं थइ पडयुं. प्रभात थयो पटले रक्षपाळे तेने लइ जइने राजानी समक्ष उभो राख्यो. कपिल भान जेवो उभो रह्यो, राजाने तेनां चोरनां लक्षण भाश्यां नहि; एथी तेने सघळं वृत्तांत पूछयुं. चंद्रना प्रकाशने सूर्यसमान गणनारनी भद्रिकतापर राजाने दया आवी. तेनी दरिद्रता टाळवा राजानी इच्छा थइ एथी कपिलने कं आशिर्वादने माटे थइ तारे जा एटली बधी तरखड थइ पडी छे तो हवे तारी इच्छा पुरतुं तुं मागी ले. हुं तने आपीश. कपिल थोडीवार मूढ जेवो रह्यो. एथी राजाए कह्यं: केम विम ! कंइ मागता नथी ? कपिले उत्तर आप्योः मारुं मन हजु स्थिर थयुं नथी, एटले शुं मागवुं ते सूझतुं नथी. राजाए सामेना बागमां जइ त्यां बेसीने स्वस्थतापूर्वक विचार करी कपिलने मागवानुं कहुं, एटले कपिल बागमां जइने विचार करना बेठो. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ कपिलमुनि भाग ३. शिक्षापाठ ४८ कपिलमुनि भाग ३. बे मासा सोनुं लेवानी जेनी इच्छा हती ते कपिल हवे तुष्णातरंगमां घसडायो. पांच महोर मागवानी इच्छा करी तो त्यां विचार आव्यो के पांचथी कई पुरुं थनार नथी, माटे पंचवीश महोर मागवी. ए विचार पण फर्यो. पंचवीश महोरथी कंइ आखुं वर्ष उतराय नहि माटे सो महोर मागर्व, त्यां वळी विचार फर्यो. सो महोरे बे वर्ष उतरी वैभव भोगवीए; पाछां दुःखनां दुःख. माटे एक हजार महोरनी याचना करवी ठीक छे; पण एक हजार महोर छोकरां छैयांनां बेचार खर्च आवे के एवं थाय तो पुरुं पण शुं थाय ? माटे दश हजार महोर मागवी के जेथी जींदगी पर्यंत पण चिंता नहीं. त्यां वळी इच्छा फरी. दश हजार महोर खवाई जाय एटले पछी मुडी वगरना थई रंगवुं पडे. माटे एक लाख महोरनी मागणी करूं के जेना व्याजमां बधा वैभव भोगनुं, पण जीव ! लक्षाधिपति तो घणाय छे. एमां आपणे नामांकित क्यांथी थवाना ? माटे करोड महोर मागवी के जेथी महान् श्रीमंतता कहेवाय. वळी पाछो रंग फर्यो. महान् श्री मंतताथी पण घेर अमल कहेबाय नहि माटे राजानुं अर्धं राज्य मागवुं; पण जो अर्धु राज्य मागीश तोय राजा मारा तुल्य गणाशे अने वळी हुं एनो याचक पण गणाइश. माटे मागवुं तो आखं राज्य मागवुं. एम ए तृष्णामां डुब्यो, परंतु तुच्छ संसारी एटले पाछो वो भला जीव ! आपणे एवी कृतघ्नता शा माटे करवी पडे के जे आपणने इच्छा प्रमाणे आपवा तत्पर थयो तेनुंज राज्य लई लेबुं, अने तेनेज भ्रष्ट करवो ? खरुं जोतां तो एमां आपणीज भ्रष्टता छे. माटे अर्धं राज्य मागवुं, परंतु ए उपाधिए मारे नथी जोइती ! त्या रे नाणांनी उपाधि पण क्यों ओछी छे ? माट करोड लाख मूकीने सो बसें महोरज मागी लेवी. जीव ! सो बसें महोर हमणां आवो तो पछी विषय बैभ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. वमांज वखत चाल्यो जशे भने विद्याभ्यास पण धर्यो रहेशे, माटे पांच महोर हमणां तो लई रवी पछीनी वात पछो. अरे! पांच महोरनीए हमणां कंइ जरुर सथी; मात्र बे मासा सोनुं लेवा आव्यो हतो तेज मागी लेवू. आ तं: जीव बहु थई. तृष्णासमुद्रमां तें बहु गळकां खाधां. आखं राज्य मागतां पण तृष्णा छीपती नहोती. मात्र संतोष अने विवेकथी त घटाडी तो घटी. ए राजा जो चक्रवर्ति होत तो पछी हुँ एथी विशेष शुं मागी शकन ? अने विशेष ज्यां सुधी न मळत त्यांसुर्ध मारी तृष्णा समात पण नहि, ज्यां सुधी तृष्णा समात नहि त्या सुधी हुं सुखी पण न होत. एटलेथी ए मारी तृष्णा टळे नहि तो पछी बे मासाथी करीने क्याथी टळे ? एनो आत्मा सवळीए आवर। अने ते बोल्योः हवे मारे ए बेमासानुं पण कंइ काम नथी. बे मानाथी वधीने हुँ केटले सुधी पहोंच्यो ! सुख तो संतोषमांज छे. तृष्णा ए संसार वृक्षनुं बीज छे. एनो हे जीच, तारे शुं खप छे ? विद्य लेतां तुं विषयमां पडी गयो, विषयमां पडवाथी आ उपाधिमां पडयो, उपाधि वडे करीने अनंत तृष्णा समुद्रना तरंगमां तुं पडयो. एक उपाधिमांथी आ संसारमा एम अनंत उपाधि वेठवी पडे हे . एथी एनो त्याग करवो उचित छे. सत्य संतोष जेवू निरुपाधि सुख एके नथी. एम विचारतां विचारतां तृष्णा समाववाथी ते कपिलनां अनेक आवरण क्षय थयां. तेनुं अंतःकरण प्रफुल्लित उने बहु विवेकशील थयु. विवेकमां ने विवेकमां उत्तम ज्ञानवडे ते स्वात्मनो विचार करी शक्यो. अपूर्व श्रोणिए चढी ते कैवल्यज्ञान ने पाम्यो. तृष्णा केवी कनिष्ठ वस्तु छे ! ज्ञानीओ एम कहे छे के तृष्णा आकाशना जेवी अनंत छे, निरंतर ते नवयौवन रहे छे. चाहना जेटलुं मळ्युं एटले चाहनाने वधारी दे छे. संतोष एज मात्र कल्पवृक्ष छे, अने एज मात्र मन वांच्छितता पूर्ण करे छे. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृष्णानी विचित्रता. शिक्षापाठ ४९ तृष्णानी विचित्रता. __ मनहर छंद. . (एक गरीबनी वधी गयली तृष्णा ) हती दीनताइ त्यारे ताकी पटेलाइ अने, मळी पटेलाइ त्यारे ताकी छे शेठाइने सांपडी शेठाइ त्यारे ताकी मंत्रिताइ अने, आवी मंत्रिताइ त्यारे ताकी नृपताइने मळी नृपताइ त्यारे ताकी देवताइ अने, दीठी देवताइ त्यारे ताकी शंकराइने अहो राज्यचंद्रमानो मानो शंकराइ मळी (!) वधे तृशनाइ तोय जाय न मराइने. (२) करोचली पडी डाढी डाचांतणो दाट वळ्यो, काळी केशपटी विषे, श्वेतता छवाइ गइ सूंघवं सांभळवं ने देखq ते मांडी वाळ्यु, तेम दांत आवली ते, खरी के खवाइ गइ वळी केड वांकी हाड गयां अंगरंग गयो, उठवानी आय जतां लाकडी लेवाइ गइ अरे ! राज्यचंद्र एम, युवानी हराइ पण, मनथी न तोय रांड, ममता मराइ गइ. . (३) करोडोना करजना, शीरपर डंका वागे, रोमयी रुंधाइ गयुं, शरीर सूकाइने; Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजु. पुरपति पण माथे, पीडवाने ताकी रह्यो, पेट तणी वेठ पण, शके न पुराइने पितृ अने परणी ते, मचावे अनेक धंध, पुत्र, पुत्री भाखे खाउँ खाउं दुःखदाइने अरे राज्यचंद्र तोय जीव झावा दावा करे, जंजाळ छंडाय नहीं तजी तृशनाइने. W थइ क्षीण नाडी अवाचक जेवो रह्यो पडी, जीवन दीपक पाम्यो केवळ झंखाइने छेल्ली इसे पडयो भाळी भाइए त्यां एम भाख्युं, इवे टाढी माटी थाय तो तो ठीक भाइने हाथने हलावी त्यां तो खीजी बुढे सूचव्यु ए, बोल्या विना बेश बाळ तारी चतुराइने ! अरे राज्यचंद्र देखो देखो आशापाश केवो ? जतां गइ नहि डोशे ममता मराइने ! शिक्षापाठ ५० प्रमाद. धर्मनी अनादरता, उन्माद, आळस, कषाय ए सघळां प्रमादनां लक्षण छे. भगवाने उत्तराध्ययन सूत्रमा गौतमने कह्यु के, हे गौतम! मनुष्यनुं आयुष्य डाभनी अणीपर पडेला जळना बिंदु जेई छे. जेम ते बिंदुने पडतां वार लागती नथी तेम आ मनुष्यायु जतां वार लागती नथी. ए बोधनी काव्यमां चोथी कडी स्मरणमा अवश्य राखवा जेवी छ: 'समयंगोयम मापमाए'-एपवित्र पाक्यना Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद. बे अर्थ थाय छे. एक तो हे गौतम ! समय एटले अवसर पामीने प्रमाद न करवो अने बीजो ए के मेषानुमेषमा चाल्या जता असं. ख्यातमा भागनो जे समय कहेवाय छे तेटलो वखत पण प्रमाद न करवो. कारण देह क्षणभंगुर छे काळशीकारी माथे धनुष्यवाण चढावीने उभो छे. लीधो के लेशे एम जंजाळ थइ रही छे, त्यां प्रमादयी धर्म कर्त्तव्य करवू रही जशे. अति विचिक्षण पुरुषो संसारनी सर्वोपाधि त्यागीने अहो रात्र धर्ममां सावधान थाय छे, पळनो पण प्रमाद करता नथी. विचक्षण पुरुषो अहोरात्रना थोडा भागने पण निरंतर धर्मकर्तव्यमां गाळे छे, अने अवसरे अवसरे धर्मकर्तव्य करता रहे छे. पण मूंढ पुरुपो निद्रा, आहार, मोजशोख अने विकथा तेमज रंगरागमां आयुष्य व्यतित करी नाखे छे. एनुं परिणाम तेओ अधोगति रूप पामे छे. जेम बने तेम यत्न अने उपयोगथी धर्मने साध्य करवो योग्य छे. साठ घडीना अहोरात्रमा वीशघडी तो निद्रामां गाळीए छीए. बाकीनी चाळीश घडी उपाधि, टेलटप्पा अने रझळवामां गाळीए छीए. ए करतां ए साठ घडीना वखतमाथी बे चार घडी विशुद्ध धर्मकर्त्तव्यने माटे उपयोगमां लइए तो बनी शके एवं छे एर्नु परिणाम पण केवू सुंदर थाय ! . पळ ए अमूल्य चीज छे, चक्रवर्ति पण एक पळ पामवा आखी रिद्धि आपे तोपण ते पामनार नथी. एक पळ व्यर्थ खोवाथी एक भव हारी जवा जेतुं छे. एम तत्वनी द्रष्टिए सिद्ध छे ! ... Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ मोक्षमाळा - पुस्तक बीजं. शिक्षापाठ ५१ विवेक एटले शुं ? लघु शिष्योः - भगवन् ! आप अपने स्थळे स्थळे कहेता आवो छो के विवेक ए महान् श्रेयस्कर छे, विवेक ए अंधारामां पडेला 'आत्माने ओळखवानो दीवां छे, विवेक वडे करीने धर्म टके छे ? विवेक नथी त्यां धर्म नथी तो विवेक एटले शुं ? ते अमने कहो. गुरु: - आयुष्यमन्नो ! सत्यासत्यने तेने स्वरुपे करीने समजवाँ तेनुं नाम विवेक. लघु शिष्योः - सत्यने सत्य अने असत्यने असत्य कहेवानुं तो बधाए समजे छे. त्यारे महाराज । एओ धर्मनुं मूळ पाम्या कहेवाय ? गुरुः- तमे जे वात कहो छो तेनुं एक दृष्टांत आपो जोइए ? लघु शिष्योः - अमे पोते कडवाने कडवुंज कहीए छीए, मधुरांने मधुरु कहीए छीए झरने झेर ने अमृतने अमृत कहीए छीए. गुरुः- आयुष्यमन्नो ! ए बधां द्रव्य पदार्थ छे; परंतु आत्माने कयी कडवाश, कयी मधुराश, कयुं झेर अने कयुं अमृत छे. भावपदार्थोनी एथी कंइ परीक्षा थइ शके ? ए लघु शिष्यः - भगवन् ! ए संबंधी तो अमारुं लक्ष पण नथी. गुरुः-त्यारे एज समजवानुं छे के ज्ञान - दर्शनरूप आत्माना सत्य भाव पदार्थने अज्ञान अने अदर्शनरूप असत् वस्तुए घेरी लीघा छे, एमां एटली बधी मिश्रता थइ गइ छे के परीक्षा करबी अति अति दुर्लभ छे. संसारनां सुखो अनंतिवार आत्माए भोगव्यां छतां, तेमांथी हजु पण मोह टळ्यो नहीं, अने तेने अमृत जेवो गयो ए अविवेक छे. कारण संसार कडवो छे, कडवा विपाकने Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानीओए वैराग्य शा माटे बोध्यो ? ७५ आपे छे तेमज वैराग्य जे ए कडवा विपाकनुं औषध छे, तेने कडवो गण्यो. आपण अविवेक छे. ज्ञान दर्शनादि गुणो अज्ञानदर्शने घेरी लइ जे मिश्रता करी नांखी छे ते ओळखी भावअमृतमां आवघुं एनुं नाम विवेक छे. कहो त्यारे हवे विवेक ए केवी वस्तु ठरी ! लघु शिष्योः - अहो ! विवेक एज धर्मनुं मुळ अने धर्म रक्षक कहेवाय छे ते सत्य छे. आत्म स्वरुपने विवेक विना ओळखी शकाय नहीं ए पण सत्य छे. ज्ञान, शील, धर्म तत्व अने तप ए सघळां विवेक विना उदय पामे नहीं ए आपनुं कहेतुं यथार्थ छे. जे विवेकी नथी ते अज्ञानी अने मंद छे. तेज पुरुष मतभेद अने मिथ्यां दर्शनमां लपटाइ रहे छे. आपनी विवेक संबंधीनी शिक्षा अमे निरंतर मनन करीशुं. शिक्षापाठ ५२ ज्ञानीओए वैराग्य शा माटे बोध्यो ? संसारनां स्वरुप संबंधी आगळ कंटलंक कहेवामां आव्युं छे ते तमने लक्षमां हशे . ज्ञानीओए ने अनंत खेदमय, अनंत दुःखमय, अव्यवस्थित, चळवळ अने अनित्य कह्यो छे. आ विशेषणो लगाडवा पहेलां एमणे संसारसंबंधी संपूर्ण विचार करेलो जणाय छे. अनंत भवनुं पर्यटन, अनंतकाळनुं अज्ञान, अनंतजीवननो व्याघात, अनंत मरण, अनंतशोक ए बंड करीने संसारचक्रमां आत्मा भम्या करे छे. संसारनी देखाती इंद्रवारणा जेवी सुंदर मोहिनीए आत्माने तटस्थ लीन करी नांख्यो छे. एना जेवुं सुख आत्माने क्यांय भासतुं नथी. मोहिनीथी सत्य सुख अने एनुं स्वरुप जोवानी एणे आकांक्षा पण Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजुं. करी नथी. पतंगनी जेम दीपक प्रत्ये मोहिनी छे तेम आत्मानी संसार संबंधे मोहिनी छे. ज्ञानीओ ए संसारने क्षणभर पण सुखरूप कहेता नथी. ए संसारनी तल जेटली जग्यो पण झेर विना रही नथी. एक झुंडथी करीने एक चक्रवर्ति सुधी भावे करीने सरखापणुं रह्यं छे. एटले चक्रवर्तिनी संसार संबंधमां जेटली मोहिनी छे, तेटलीज बलके तेथी विशेष अँडने छे. चक्रवर्ति जेम समग्र प्रजापर अधिकार भोगवे छे तेम तेनी उपाधि पण भोगवे छे. मुंडने एमांनुं क\ए भोगवq पडतुं नथी. अधिकार करता उलटी उपाधि विशेष छे. चक्रवर्त्तिनो पोतानी पत्नी प्रत्येनो जेटलो प्रेम छे तेटलोज अथवा तेथी विशेष भुंडनो पोतानी भुंडणी प्रत्ये प्रेम रह्यो छे. चक्रवर्ति भोगथी जेटलो रस ले छे, तेटलोज रस भुंड पण मानी बेहुं छे. चक्रवर्तिनी जेटली वैभवनी बहोळता छे तेटलीज उपाधि छे. भुंडने एना वैभवना प्रमाणमां छे. बन्ने जन्म्यां छे अने बन्ने मरवानां छे. आम अति सूक्ष्म विचारे जोतां क्षणिकताथी, रोगथी, जरा वगेरेथी बन्ने ग्राहित छे. द्रव्ये चक्रवर्ति समर्थ छे. महा पुण्यशाळी छे. मुख्यपणे शातावेदनीय भोगवे छे. अने भुंड बिचारु असातावेदनीय भोगवी रह्यु छे. बन्नेने असाता-साता पण छे, परंतु चक्रवर्ति महा समर्थ छे. पण जो ए जीवन पर्यंत मोहांध रह्यो तो सघळी बाजी हारी जवा जेवू करे छे. भुंडने पण तेमज छे. चक्रवर्ति शलाका पुरुष होवाथी भुंडथी ए रुपे एनी तुल्यनाज नथी, परंतु आ स्वरुप छे. भोग भोगवनामा बन्ने तुच्छ छे, बन्नेना शरीर पर मांसादिकनां छेः अशाताथी पराधीन छे संसारनी आ उत्तमोत्तम पद्वी आवी रही तेमां आई दुःख, आवी क्षणिकता, आवी तुच्छता, आयु अंधपणुं ए रहुं छे तो पछी बीजे सुख सा माटे गणवू जोइए ? ए सुग्व नथी छतां सुख गणो तो जे सुख भयवाळां अने क्षणिक छे ते दुःखज छे. अनंत ताप, अनंत शोक, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरशासन. ७७ अनंत दुःख जोइने ज्ञानीओए ए संसारने पुंठ दीधी छे; ते सत्य छे. ए भणी पार्छ वाळी जोवा जेवुनथी. त्यां दुःख दुःख ने दुःखज छ. दुःखनो ए समुद्र छे. वैराग्य एज अनंतसुखमां लइ जनार उत्कृष्ट भोमियो छे. शिक्षापाठ ५३ महावीरशासन. हमणां जे जिनशासन प्रवर्त्तमान छे ते श्रमण भगवंत महावीरनुं प्रणीत करेलुं छे. भगवान् महावीरने निर्वाण पधार्या २४०० वर्ष थइ गयां, मगध देशना क्षत्रियकुंड नगरमां सिद्धार्थ राजानी राणी त्रिशलादेवी क्षत्रियाणीनी कुखे भगवान् महावीर जन्म्या. महावीर भगवानना मोटा भाइर्नु नाम नंदीवर्द्धमान हतुं. तेमनी स्त्रीनुं नाम यशोदा हतुं. त्रीश वर्ष तेओ गृहस्थाश्रममा रह्या. एकातिक विहारे साडाबार वर्ष एक पक्ष तपादिक सम्यकाचारे, एमणे अशेष घनघाती कर्मने वाळीने भस्मिभूत कर्या; अनुपमेय केवळज्ञान अने केवळदर्शन ऋजुवालिका नदीने किनारे पाम्या. एकंदर बहोतेर वर्षनी लगभग आयु भोगवी सर्व कर्म भस्मिभूत करी सिद्धस्वरुपने पाम्या. वर्तमान चोवीशीना ए छेल्ला जिनेश्वर हता. एओर्नु आ धर्मतीर्थ प्रवर्ते छे ते २१००० हजार वर्ष एटले पंचमकाळनी पूर्णता सुधी प्रवर्तशे एम भगवतीसूत्रमा प्रवचन छे. आ काळ दश आश्चर्यथी युक्त होवाथी ए श्री धर्मतीर्थ प्रत्ये अनेक विपत्तिओ आवी गइ छ, आवे छे अने प्रवचन प्रमाणे आवशे पण खरी. __ जैन समुदायमा परस्पर मतभेद बहु पडी गया छे. परस्पर निंदाग्रंथोथी जंजाळ मांडी बेठा छे. मध्यस्थ पुरुषो मतमतांतरमा Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. नहीं पडतां विवेक विचारे जिनशिक्षानां मूळ तत्वपर आवे छे, उत्तम शीलवान मुनियोपर भाविक रहे छे, अने सत्य एकाग्रताथी पोताना आत्माने दमे छे. काळप्रभावने लीधे वखने वखते शासन कंइ सामान्य प्रकाशमां आवे छे. पण ते जोइए एवं प्रफुल्लित न थइ शके. 'वंक जडाय पछिमा' एवं उत्तराध्ययन सूत्रमा वचन छे, एनो भावार्थ ए छे के छल्ला तीर्थकर ( महावीरस्वामी ) ना शिष्यो वांका अने जड थशे. अने तेनी सत्यता विषे कोइने बोलवू रहे तेम नथी. आपणे क्यां तत्वनो विचार करीए छीए ? क्या उत्तम शीलनो विचार करीए छीए ? नियमित वखत धर्ममां क्यां व्यतित करीए छीए ? धर्मतीर्थना उदयने माटे क्यां लक्ष राखीए छीए ? क्यों दाझवडे धर्मतत्वने शोधीए छीए ? श्रावक कुळमां जन्म्या एथी करीने श्रावक, ए वात आपणे भावे करीने मान्य करवी जोइती नथी; एने माटे जोइता आचार-ज्ञान-शोध के एमांनां कंड विशेष लक्षणो होय तेने श्रावक मानिये तो ते यथायोग्य छे. द्रव्यादिक केटलाक प्रकारनी सामान्य दया श्रावकने घेर जन्मे छे अने ते पाळे छे. ए वात वखाणवा लायक छ, पण तत्वने कोइकज जाणे छे, जाण्या करतां झाझी शंका करनारा अर्धदग्धो पण छे जाणीने अहंपद करनारा पण छे, परंतु जाणीने तत्वना कांटामां सोळनारा कोइक विरलाज छे. परंपर आम्नायथी केवळ, मनःपर्यव अने परम अवधिज्ञान विच्छेद गयां द्रष्टिवाद विच्छेद गडे, सिद्धांतनो घणो भाग पण विच्छेद गयो; मात्र थोडा रहेला भागपर सामान्य समजणथी शंका करवी योग्य नथी. जे शंका थाय ते विशेष जाणनारने पूछवी. त्यांथी मनमानतो उत्तर न मळे तोपण जिनवचननी श्रद्धा चळविचल करवी योग्य नथी, कमके अनेकांत शैलीना स्वरुपने विरला जाणे छे. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुचि कोने कहेवी? उत्तम अने शांत मुनिओनो समागम, विमळआचार, विवेक तेमज दया, क्षमा आदिनु सेवन करवू. तुच्छ बुद्धिथी शंकित थर्बु नहीं, एमां आपणुं परम मंगळ छे ए वीसर्जन करवू नहीं. शिक्षापाठ ५४ अशुचि कोने कहेवी ? जिज्ञासुः-मने जैन मुनिओना आचारनी वात बहु रुची छे. एओना जेवो कोइ दर्शनना संतोमा आचार नथी. गमे तेवा शीयाळानी टाढमां अमुक वस्त्रवडे तेओने रेडवर्बु पडे छे उनाळामां गमे तेवा ताप तपता छतां पगमां तेओने पगरखां के माथापर छत्री लेवाती नथी. उनी रेतीमां आतापना लेवी पडे छे. याव जीवंत उनुं पाणी पीए छे, गृहस्थने घेर तेभो बेसी शकता नथी. शुद्ध ब्रह्मचर्य पाळे छे. फुटी बदाम पण पासे राखी शकता नथी. अयोग्य वचन तेथी बोली शकातुं नथी. वाहन तेओ लइ शकता नथी. आवा पवित्र आचारो, खरे ! मोक्षदायक छे. परंतु नववाडमां भगवाने स्नान करवानी ना कही छे ए वात तो मने यथार्थ बेसती नथी. सत्यः-शा माटे बेसती नथी ? जिज्ञासुः-कारण एथी अशुचि वधे छे. सत्यः-कइ अशुचि वधे छे ? जिज्ञासुः-शरीर मलिन रहे छे ए. सत्यः-भाइ, शरीरनी मलिनताने अशुचि कहेवी ए वात कंड विचारपूर्वक नथी. शरीर पोते शानुं बन्युं छे एतो विचार करो. रक्त, पित, मळ, मूत्र, श्लेष्मनो ए भंडार छे ते पर मात्र त्वचा छे छता ए पवित्र केम थाय ? वळी साधुए एवं कंइ संसारी कर्तव्य कयु न होय के जेथी तेओने स्नान करवानी आवश्यक रहे. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाला-पुस्तक बीजु. जिज्ञासुः-पण स्नान करवाथी तेओने हानि शुं छे ? सत्यः-ए तो स्थूळबुद्धिज प्रश्न छे. नहावाथी कामाग्रिनी प्रदीप्तता, व्रतनो भंग, परिणामर्नु बदलवू, असंख्याता जंतुनो विनाश, ए सघळी अशुचि उत्पन्न थाय छे अने एथी आत्मा महामलीन थाय छे. प्रथम एनो विचार करवो जोइए. जीवहिंसायुक्त शरीरनी जे मलिनता छे ते अशुचि छे. अन्य मलिनताथी तो आत्मानी उज्वळता थाय छे ए तत्वविचारे समजवायूँछे. नहावाथी व्रत भंग थइ आत्मा मलीन थाय छे, अने आत्मानी मलीनता एज अशुचि छे. जिज्ञासुः-मने तमे बहु सुंदर कारण बताव्यु. सूक्ष्म विचार करतां जिनेश्वरनां कथनथी वोध अने अत्यानंद प्राप्त थाय छे. वारु, गृहस्थाश्रमीओए सांसारिक प्रवर्तनथी थयेली अनीच्छित जीवहिंसादियुक्त एवी शरीर संबंधी अशुचि टाळवी जोइए के नहि ? __सत्यः-समजणपूर्वक अशुचि टाळवीज जोइए. जैन जेवू एके पवित्र दर्शन नथी, यथार्थ पवित्रतानो बोधक ते छेपरंतु शौचाशौचनुं स्वरुप समजवं जोइए. शिक्षापाठ ५५ मामान्य नित्यनियम. प्रभात पहेलां जागृत थइ नमस्कारमंत्रनुं स्मरण करी मनविशुद्ध करवू. पापव्यापारनी वृत्ति रोकी रात्री संबंधी थयेला दोषनुं उपयोगपूर्वक प्रतिक्रमण कर. प्रतिक्रमण कर्या पछी यथावसर भगवाननी उपासना-स्तुति तथा स्वाध्यायथी करी मनन उज्वळ कर. मात पितानो विनय करी संसारीकाममां आत्महितनो लक्ष भूलाय नहीं तेम व्यहारिक कार्यमा प्रवर्तन करवू. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमापना. पोते भोजन करतां पहेलां सत्पात्रे दान देवानी परम आतुरता राखी तेवो योग मळतां यथोचित प्रवृत्ति करवी. आहारविहारादिमां नियम सहित प्रवर्त्तं . सत्शास्त्रना अभ्यासनो नियमित वखत राखवो. सायंकाळे उपयोगपूर्वक संध्यावश्यक कर. निद्रा नियमितपणे लेवी. ८१ सुता पहेलां अढार पापस्थानक, द्वादशवृतदोष, अने सर्व जीव प्रत्ये क्षमावी पंचपरमेष्टि मंत्रनुं स्मरण करी समाधिपूर्वक शयन करवुं. आ सामान्य नियमो बहु मंगळकारी छे, जे अहीं संक्षेपमां कला छे. विशेष विचारवाथी अने तेम प्रवर्त्तवाथी ते विशेष मंगळदायक अने आनंदकारक थशे. शिक्षापाठ ५६ क्षमापना. हे भगवान ! हुं बहुं भूली गयो, में तमारां अमूल्य वचनने लक्षमां लीधां नहीं. में तमारां कहेलां अनुपम तत्वनो विचार कर्यो नहीं. तमारां प्रणीत करेलां उत्तम शीलने सेव्युं नहीं. तमारां कहेलां दया, शांति, क्षमा अने पवित्रता में ओळख्यां नहीं. हे भगवान ! हुं भूल्यो, आथड्यो - रझळ्यो अने अनंत संसारनी विटम्बनामां पड्यो छं. हुं पापी हुँ. हुं बहु मदोन्मत्त अने कर्म - रजथी करीने मलिन छु. हे परमात्मा ! तमारां कहेलां तत्व विना मारो मोक्ष नथी. हुं निरंतर प्रपंचमां पड्यो हुं, अज्ञानथी अंध थयो छु, मारामां विवेकशक्ति नथी अने हुं मुंढ हुँ, हुं निराश्रित छु, अनाथ लुं. निरागी परमात्मा ! हवे हुं तमारुं तमारा धर्मनुं अने तमारा मुनिनुं शरण गृहुं हुं मारा अपराध क्षय थइ हुं ते सर्व • Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाला-पुस्तक बीजु. पापथी मुक्त थउं ए मारी अभिलाषा छे. आगळ करेलां पापोनो हुँ हवे पश्चाताप करूं . जेम ऊम हुं सूक्ष्म विचारथी उंडो उतरूं छु तेम तेम तमारा तत्वना चमत्कारो मारा स्वरुपनो प्रकाश करे छे. तमे निरागी, निर्विकारी, सच्चिदानंदस्वरुप, सहजानंदी, अनंतज्ञानी, अनंतदर्शी अने त्रैला त्यप्रकाशक छो. हुं मात्र मारा हितने अर्थे तमारी साक्षीए क्षमा चाहुं छु. एक पळ पण तमारां कहेलां तत्वनी शंका न थाय, तमारा कहेला रस्तामा अहोरात्र हुं रहुं एज मारी आकांक्षा अने वृत्ति थ ओ ! हे सर्वज्ञ भगवान ! तमने हुं विशेष शुं कहुं ? तमाराथी के अजाण्यु नथी. मात्र पश्चातापथी हुँ कर्मजन्य पापनी क्षमा इच्छं छ-ॐ शांतिः शांतिः शांतिः शिक्षापाठ ५७ वैराग्य ए धर्म, स्वरुप छे. एक वस्त्र लोहीनी मलि ताथी रंगायुं तेने जो लोहीथी धोइए तो ते उजळू थई शके नहिपण वधारे रंगाय छे. जो पाणीथी ए वस्त्रने धोइए तो ते मलिन्ता जवानो संभव छे. आ द्रष्टांतपरथी आत्मापर विचार लइए. अगदिकाळथी आत्मा संसाररुपी लोहीथी मलिन थयो छे. मलिन्ता प्रदेशे प्रदेशे व्यापि रही छे ! ए मलिनता आपणे विषय शृंगारथी टाळवी धारीए तो टळी शके नहि. लोहीथी जेम लोही धोव तुं नथी, तेम शृंगारथी करीने विषयजन्य आत्ममलिनता टळनार नथी ए जाणे निश्रयरुप छे. आ जगत्मां अनेक धर्ममतो चाले छे ते संबंधी अपक्षपाते विचार करतां आगळथी आटलं विचार, वश्यतुं छे के ज्यां स्त्रीलो भोगववानो उपदेश को होय, लक्ष्मीली ठानी शिक्षा आपी होय; रंग, राग गुलतान अने एशाराम करव नुं तत्व वताव्युं होय त्यां आपणा Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मना मतभेद भाग १. ८३. आत्मानी सत् शांति नथी; कारण र धर्ममत गणीए तो आखो संसार धर्ममतयुक्तज छे. प्रत्येक गृहस्थनुं घर एज योजनाथी भरपूर होय छे. छोकरांछैयां, स्त्री, रंग राग तान त्यां जाम्युं पडयुं होय छे अने ते घर धर्ममंदिर कहेतुं तो पछी अधर्मस्थानक कयुं ? अने जेम वर्त्तिए छीए तेम वर्त्तवाथी खोडं पण शुं ? कोइ एम कहे के पेलां धर्ममंदिरमां तो प्रभुनी भक्ति थइ शके छे तो तेओने माटे खेदपूर्वक आटलोज उत्तर देवानो हो के ते परमात्मतत्व अने वैराग्यमय भक्तिने जाणता नथी. गमे तेम हो पण आपणे आपणा मूळ विचारपर आवकुं जोइए. तत्वज्ञानानी द्रष्टि आत्मा संसारमां विषयादिक मलिनताथी पर्यटन करे छे. ते मलिनतानो क्षय विशुद्ध भाव जळथी होवो जोइए. अर्हतना तत्वरुप साबु अने वैराग्यरुपी जळ वडे, उत्तम आचाररुप पथ्थरपर, आत्मवस्त्रने धोनार निथ गुरु छे, आमां जो वैराग्यजळ न होय तो बीजां वधां साहित्यो कंड करी शकतां नथी, माटे वैराग्यने धर्मनुं स्वरूप कही शकीए अर्हतप्रणीत तत्व वैराग्यज बोध छे, तो तेज धर्म तुं स्वरूप एम गणवु. शिक्षापाठ ५८ धर्मना मतभेद भाग १. पडेला छे. तेवा : आ जगतमां अनेक प्रकारथी धर्मना मत मतभेद अनादिकाळथी छे, ए न्यायसिद्ध छे. पण ए मत भेदो देश काळादि योगे कई कंइ रुपांतर पामे खरा. ए संबंधी केटलोक विचार करीए. केटलाक परस्पर मळता अने केटलाक परस्पर विरुद्ध छे, केटलाक केवळ नास्तिकना पाथरेला पण छे. केटलाक सामान्य Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ मोक्षमाळा- पुस्तक बीजं. नीति धर्म कहे छे, केटलाक ज्ञाननेज धर्म कहे छे, केटलाक अज्ञाननेज धर्ममत कहे छे, केटलाक भक्तिने कहे छे, केटलाक क्रियाने कहे छे, केटलाक विनयने कहे छे अने केटलाक शरीरने साचaj एनेज धर्ममत कहे छे ए धर्ममत स्थापको एम बोध कर्यो जणाय छे के अमे जे कहीए छी ते सर्वज्ञवाणीरुप छे; के सत्य छे, बाकीना सघळा मतो असत्य अने कुतर्कवादी छे; तथा परस्पर ते मत वादीओए योग्य के अयोग्य खंडन कर्यु छे. वेदांतना उपदेशक एज बोधे छे, सांख्यनो पण एज बोध छे, बौधनो पण एज वोध छे, न्यायमतवाळानो पण एज बोध छे, वैशेषिकनो एज बोध छे, शक्ति पंथीनो एज बोध छे; वैष्णवादिकनो एज बोध छे. इस्लामीनो एज बोध छे; अने एज रीते क्राइस्टनो एम बोध छे के आ अमारुं कथन तमने सर्व सिद्धि आपशे. त्यारे आपणे हवे शुं विचार करवो ? वादी प्रतिवादी बन्ने साचा होता नथी, तेम बन्ने खोटा होता नथी. बहु तो वादी कंक वधारे साचो, अने प्रतिवादी कंइक ओछो खोटो होय. अथवा प्रतिवादी कंईक वधारे साचो, अने वादी कंईक ओछो खोटा होय. केवळ बन्नेनी वात खोटी होवी न जोइए. आम विचार करतां तो एक धर्ममन साचो ठरे, अने बाकीना खोटा ठरे. जिज्ञासु - ए एक आश्चर्यकारक वात छे. सर्वने असत्य के सर्वने सत्य केम कही शकाय ? जो सर्वने असत्य एम कहीए तो आपणे नास्तिक ठरीए, अने धर्मनी सच्चाइ जाय. आ तो निश्चय छे के धर्मनी सच्चाइ छे तेम जगत्पर तेनी अवश्य छे. एक धर्ममत सत्य अने बाकीना सर्व असत्य एम कहीए तो ते बात सिद्ध करी बतावी जोइए. सर्व सत्य कहीए तो तो ए रेतीनी जेत्री वात भींत Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मना मतभेद भाग २. करी, कारण के तो आटला बधा मतभेद केम पडे ? जो कंइ पण मतभेद न होय तो पछी जुदा जुदा पोतपोताना मतो स्थापवा शा माटे यत्न करे? एम अन्योन्यना विरोधथी थोडीवार अटकवु पडे छे. तोपण ते संबंधी अत्रे कंइ समाधान करीशुं. ए समाधान सत्य अने मध्यस्थभावनानी द्रष्टिथी कर्यु छे. एकांतिक के मतांतिक द्रष्टिथी कर्यु नथी. पक्षपाती के अविवेकी नथी, उत्तम अने विचारवा जेतुं छे. देखावे ए सामान्य लागशे, परंतु सूक्ष्म विचारथी बहु भेदवाळु लागशे. शिक्षापाठ ५९ धर्मना मतभेद भाग २. आटलं तो तमारे स्पष्ट मानवु के गमे ते एक धर्म आ लोकपर संपूर्ण सत्यता धरावे छे. हवे एक दर्शनने सत्य कहेतां वाकीना धर्ममतने केवळ असत्य कहेवा पडे, पण हुँ एम कही न शकुं. शुद्ध आत्मज्ञानदाता निश्चयनयवडे तो ते असत्यरुप ठरे, परंतु व्यवहारनये ते असत्य कही शकाय नहीं. एक सत्य अने बाकीना अपूर्ण अने सदोष छे एम कहुं छु. तेमज केटलांक कुतर्कवादी अने नास्तिक छे ते केवळ असत्य छे, परंतु जेओ परलोक संबंधी के पाप संबंधी कंइ पण बोध के भय बतावे छे ते जातना धर्ममतने अपूर्ण अने सदोष कही शकाय छे. एक दर्शन जे निर्दोष अने पूर्ण कहेवानुं छे ते विषेनी वात हमणा एक बाजु राखीए. हवे तमने शंका थशे के सदोष अने अपूर्ण एवं कथन एना प्रवर्तके शा माटे बोध्यु हशे ? तेनुं समाधान थर्बु जोइए. एनुं समाधान एम छे के ते धर्ममतवाळाओनी ज्यांसुधी बुद्धिनी गति पहोंची त्यां सुधी तेमणे विचारो कर्या. अनुमान, तर्क अने उप Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. मादिक आधारवडे तेओने जे कथन सिद्ध जणायुं ते प्रत्यक्षरुपे जाणे सिद्ध छे एवं तेमणे दर्शाव्यु. जे पक्ष लीधो तेमां मुख्य एकांविक वाद लीधो. भक्ति, वि वास, नीति, ज्ञान, क्रिया आदि एक पक्षने विशेष लीधो, एथी वजा मानवा योग्य विषयो तेमणे दूषित करी दीधा. वळी जे विषयो तेमणे वर्णव्या ते सर्व भाव भेदे तेओए कंइ जाण्या नहोता, पण पोतानी बुद्धि अनुसारे बहु वर्णव्या. तार्किक सिद्धांत द्रष्टांतादिकथी सामान्य बुद्धिवाला आगळ के जडभरत आगळ तेओए सिद्ध करी बताव्यो. कार्ति, लोकहित, के भगवान मनावानी आकांक्षा एमांनी एकादि पण एमना मननी भ्रमना होवाथी अत्युग्रउद्यमादिथी तेओ जय पाम्या. केटलाके शृंगार अने लोकेच्छित साधनोथी मनुष्यनां मन हरण को. दुनियां मोहमां तो मूळे डुवी पडी छे, एटले ए इच्छित दर्शनथी गाडररुपे थइने तेओए राजी थइ तेनुं कहेवू मान्य राख्यु. केटलाके नीति, तथा कंइ वैराग्यादि गुण देखी इत्यादिकी ते कथन मान्य राख्यु. प्रवर्तकनी बुद्धि तेओ करतां विशेष होवाथी तेने पछी भगवानरुपज मानी लीधा. केटलाके वैराग्यथी धर्ममत फेलावी पाछळथी केटलांक सुखशीलियां साधननो बोध खोशी पोताना मतनी वृद्धि करी. पोतानो मत स्थापन करवानी महान् भ्रमनाए अने पोतानी अपूर्णता इत्यादिक गमे ते कारणथी बीजानुं कहेलं पोबाने न रुच्यु एटले तेणे जूदोज राह काढ्यो. आम अनेक मतमतांतरनी जाळ थती गइ. चार पांच पेढी एकनो एक धर्म मत रह्यो एटले पछी ते कुळधर्म थइ पडयो. एम स्थळे स्थळे थतुं गयु. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मना मतभेद भाग ३० ८७ शिक्षापाठ ६० धर्मना मतभेद भाग ३. जो एक दर्शन पूर्ण अने सत्य न होय तो बीजा धर्म मतने अपूर्ण अने असत्य को प्रमाणथी कही शकाय नहीं; ए माटे थइने जे एक दर्शन पूर्ण अने सत्य छे तेनां तत्वप्रमाणथी बीजा मतोनी अपूर्णता अने एकांतिकता जोइए. ए बीजा धर्ममतोमा तत्वज्ञान संबंधी यथार्थ सूक्ष्म विचारो नथी. केटलाक जगत्कर्त्तानो बोध करे छे, पण जगत्कर्त्ता प्रमाणवडे सिद्ध थइ शकतो नथी. केटलाक ज्ञानथी मोक्ष छे एम कहे छे ते एकांतिक छे तेमज क्रियाथी मोक्ष ले एम कहेनारा पण एकांतिक छे. ज्ञान, क्रिया ए वनेथी मोक्ष कहेनारा तेना यथार्थ स्वरुपने जाणता नथी अने ए बन्नेना भेद श्रेणिबंध नथी कही शक्या एज एमनी सर्वज्ञतानी खामी जणाइ आवे छे. ए धर्ममतस्थापको सत्देवaani कलां अष्टादश दूपणोथी रहित नहोता एम एओए उपदेशेलां शास्त्रो अथवा तेमना चरित्रोपरथी पण तत्वनी द्रष्टिए जोतां देखाय छे. केटलाक मतोमां हिंसा, अब्रह्मचर्य ई० अपवित्र आचरणनो बोध छे ते तो सहजमां अपूर्ण अने सरागीना स्थापेलां जोवामां आवे छे. कोइए एमां सर्वव्यापक मोक्ष, कोइए कंइ नहीं ए रूप मोक्ष, कोइए साकारमोक्ष अने कोइए अमूक काळसुधी रही पतित थ ए रुप मोक्ष मान्यो छे; पण एमांथी कोइ वात ओनी सप्रमाण थइ शकती नथी. एओना विचारोनुं अपूर्णपण निस्पृह तत्ववेत्ताओए दर्शाव्युं छे ते यथावस्थित जाणवुं योग्य छे. वेद शीवायना वीजा मतोना प्रवर्त्तकोनां चरित्रो अने विचारो इत्यादिक जाणवाथी ते मतो अपूर्ण छे एम जणाई आवे छे, वर्त्तमानमां जे वेदो छे ते घणा प्राचीन ग्रंथो छे तेथी ते मतनुं प्राची - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजु. नपणुं छे, परंतु ते पण हिंसाए करीने दूषित होवाथी अपूर्ण छ, तेमज सरागीनां वाक्य छे एम स्पष्ट जणाय छे. जे पूर्ण दर्शन विषे अत्रे कहेवानुं छे ते जैन एटले निरागीनां स्थापन करेलां दर्शन विषे छे. एना बोधदाता सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी हता; काळभेद छे तोपण ए वात सिद्धांतिक जणाय छे. दया, ब्रह्मचर्य, शील, विवेक, वैराग्य, ज्ञान, क्रियादि एना जेवां पूर्ण एकेए वर्णव्यां नथी. तेनी साथे शुद्ध आत्मज्ञान, तेनी कोटिओ, जीवनां च्यवन, जन्म, गति, विगति, योनिद्वार, प्रदेश, काळ, तेनां स्वरुप ए विषे एवो सक्ष्म बोध छे के जे वडे तेनी सर्वज्ञतानी निःशंकता थाय. काळभेदे परंपराम्नायथी केवळ ज्ञानादि ज्ञानो जोवामां नथी आवतां, छतां जे जेजिनेश्वरनांरहेलां सिद्धांतिक वचनो छे ते अखंड छे. तेओना केटलाक सिद्धांतो एवा सुक्ष्म छे के जे अकेक विचारतां आखी जींदगी वही जाय. जिनेश्वरनां कहेलां धर्मतत्वथी कोइ पण प्राणीने लेश खेद उत्पन्न थतो नथी. सर्व आत्मानी रक्षा अने सर्वात्मशक्तिनो प्रकाश एमां रह्यो छे. ए भेदो वांचवाथी, समजवाथी, अने ते पर अति अति सूक्ष्म विचार करवाथी आत्मशक्ति प्रकाश पामी जैनदर्शननी सर्वोत्कृष्टपणानीहा कहेवरावे छे. बहु मननथी सर्व धर्ममत जाणी पछी तुलना करनाग्ने आ कथन अवश्य सिद्ध थशे. निर्दोष दर्शननां मूळनत्वो अने सदोष दर्शननां मूळतत्वो विषे बीजे प्रसंगे विस्तारथी कहीशुं. शिक्षापाठ ६१ सुख विषे विचार भाग १. एक ब्राह्मण दरिद्रावस्थाथी बहु पीडातो हतो. तेणे कंटाळीने छेवटे देवर्नु उपासन करी लक्ष्मी मेळववानो निश्चय कर्यो. पोते विद्वान् होवाथी उपासन करवा पहेलां विचार कर्यो के कदापि Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख विषे विचार भाग १. देव तो कोइ तृष्ट थशे; पण पछी ते आगळ सुख कयु मागवू ? तप करी पछी मागवानुं कंइ सूजे नहि, अथवा न्यूनाधिक सूजे ता करेल तप पण निरर्थक जायः माटे एक वखत आखा देशमा प्रवास करवो. संसारना महत्पुरुषोनां धाम, वैभव अने सुख जोवां. एम निश्चय करी ते प्रवासमां नीकळी पडयो. भारतनां जे जे रमणिय अने रीद्धिमान शहेरो हतां ते जोयां. युक्तिप्रयुक्तिए राजाधिराजनां अंतःपुर, सुख अने वैभव जोयां. श्रीमंतोना आवास, वहिवट, बागबगीचा अने कुटुंब परिवार जोया; पण एथी तेनुं कोइ रीते मन मान्युं नहि. कोइने स्त्रीनुं दुःख, कोइने पतिनुं दुःख, कोइने अज्ञानथी दुःख, कोइने वहालांना वियोगर्नु दुःख, कोइने निर्धनतानुं दुःख, कोइने लक्ष्मानी उपाधिनुं दुःख, कोइने शरीर संबंधी दुःख, कोइने पुत्रनु दुःख, कोइने शत्रुनु दुःख, कोइने जडतानुं दुःख, कोइने मावापर्नु दुःख, कोइने वैधव्य दुःख, कोइने कुटुंबनु दुःख, कोइने पोताना नीच कुळनुं दुःख, कोइने प्रीतिर्नु दुःख, कोइने इानुं दुःख, कोइने हानिनुं दुःखः एम एक, बे विशेष के बधां दुःख स्थळे स्थळे ते विप्रना जोवामां आव्यां. एथी करीने एनुं मन कोई स्थळे मान्युं नहि ज्यां जुए त्यां दुःख तो खरुंज. कोइ स्थळे संपूर्ण सुख तेना जोवामां आव्युं नहि. हवे त्यारे शुं मागवू ! एम विचारतां विचारतां एक महा धनाढ्यनी प्रशंसा सांभळीने ते द्वारिकामां आव्यो. द्वारिकां महारीद्धिमान, वैभवयुक्त, बागबगीचावडे करीने सुशोभित अने वस्तीथी भरपूर शहेर तेने लाग्यु. सुंदर अने भव्य आवासो जोतो, अने पूछतो पूछतो ते पेला महा धनाढ्यने घेर गयो. श्रीमंत मुखग्रहमां बेठा हता. तेणे अतिथि जाणीने ब्राह्मणने सन्मान आप्यु, कुशलता पूछी; अने तेओने माटे भोजननी योजना करावी. जरा वार जवा दई धीरजथी शेठे ब्राह्मणने पूछयुः आपनुं आगमनकारण जो मने कहेवा जेवू Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. होय तो कहो. ब्राह्मणे कयु: हमणा आप क्षमा राखो, आपनो सघळी जातनो वैभव, धाम, बागबगीचा इत्यादि मने देखाडवू पडशे; ए जोया पछी आगमन कारण कहीश. शेठे एजें कंइ मर्मरुप कारण जाणीने कह्युः भले, आनंदपूर्वक आपनी इच्छा प्रमाणे करो. जम्या पछी ब्राह्मणे शेठने पोते साथे आवीने धामादिक बताववा विनंति करी. धनाढ्रं ते मान्य राखी, अने पोते साथे जई वागबगीचा, धाम, वैभव ए सघळु देखाडयु. शेठनी स्त्री अने पुत्रो पण त्यां ब्राह्मणना जोवामां आव्यां. तेओए योग्यतापूर्वक ते ब्राह्मणनो सत्कार कर्यो. एओनां रुप, विनय अने स्वच्छता जोइने तेमज तेओनी मधुरवाणी सांभळीने ब्राह्मण राजी थयो। पछी तेनी दुकाननो वहिवट जायो. तेमां सोएक वहिवटिया त्यां बेठेला जोया. तेओ पण माया छु, विनयी अने नम्र ते ब्राह्मणना जोवामां आव्या. एथी ते बहु संतुष्ट थयो. एनुं मन अहीं कंइक संतोषायु. सुखी तो जगत्मां आज जणाय छे एम तेने लाग्युं. शिक्षापाठ ६२ सुख विषे विचार भाग २. केवां एनां सुंदर घर छे ! केवी सुंदर तेनी स्वच्छता अने जाळवणी छे ! केवी शाणी अने मनोज्ञा तेनी सुशीळ स्त्री छे ! केवा तेना कांतिमान अने कह्यागरा पुत्रो छे ! केवु संपीलं तेनुं कुटुंब छे ! लक्ष्मीनी महेर पण एने त्यां केवी छे ! आखा भारतमा एना जेवो बीजो कोइ सुखी नथी. हवे तप करीने जो हुँ मागुं तो आ महाधनाढ्य जेवुज सघळं भागुं, बीजी चाहना करुं नहीं. दिवस वीती गयो अने गत्रि थइ. सुवानो वखत थयो. धनाढ्य अने ब्राह्मण एकांतम बेठा हता, पछी धनाढ्ये विप्रने आगमन कारण कहेवा विनंति करी. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख विषे विचार भाग २. ९१ विप्रः - हुं घेरथी एवो विचार करी नीकळ्यो हतो के बधाथी धारे सुखी कोण छे ते जोवुं, अने तप करीने पछी एना जेवुं सुख संपादन कर. आखा भारत ने तेनां सघळां रमणीय स्थळो जोयां, परंतु कोइ राजाधिराजने त्यां पण मने संपूर्ण सुख जोवामां आव्युं नहि. ज्यां जोयुं त्यां आधि, व्याधि अने उपाधि जोवामां आवी. आप भणी आवतां आपनी प्रशंसा सांभळी एटले हुं अहीं आव्यो अने संतोष पण पाम्यो. आपना जेवी रीद्धि, सत्पुत्र, कमाइ, स्त्री, कुटुंब, घर वगेरे मारा जोवामां क्यांय आव्युं नथी. आप पोते पण धर्मशील, सद्गुणी अने जिनेश्वरना उत्तम उपासक छो. एथी हुं एम मानुं हुं के आपना जेवुं सुख बीजे नथी. भारतमां आप विशेष सुखी छो. उपासना करीने कदापि देवकने याचुं तो आपना जेवी सुखस्थिति याचं. धनाढ्यः - पंडितजी ! आप एक बहु मर्मभरेला विचारथी नीकळ्या छो, एटले अवश्य आपने जेम छे तेम स्वानुभवी वात कहुं हुं; पछी जेम तमारी इच्छा थाय तेम करजो. मारे त्यां आपे जे जे सुख जोयां ते ते सुख भारतसंबंधमां क्यांय नथी एम आपे कयुं तो तेम हशे, पण खरुं ए मने संभवतुं नथी; मारो सिद्धांत एवो छे के जगत्मां कोइ स्थळे वास्तविक सुख नथी. जगत् दुःखथी करीने दाझतुं छे तमे मने सुखी जुओ छो परंतु वास्तविक रीते हुं सुखी नथी. विप्रः - आपनुं आ कहेतुं कोइ अनुभवसिद्ध अने मार्मिक हशे . में अनेक शास्त्रो जोयां छे, छतां मर्मपूर्वक विचारो आवा लक्षमां लेवा परिश्रमज लीधो नथी. तेम मने एवो अनुभव सर्वने माटे थइने थयो नथी. हवे आपने शुं दुःख छे ? ते मने कहो. धनाढ्यः - पंडितजी ! आपनी इच्छा छे तो हुं कहुं छं. ते लक्षपूर्वक मनन करवा जेवुं छे, अने ए उपरथी कंइ रस्तो पामवा जेवुं छे. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा- पुस्तक बीजं. शिक्षापाठ ६३ सुख विषे विचार भाग ३. ९२ जे स्थिति हमणां मारी आप जुओ छो तेवी स्थिति लक्ष्मी, कुटुंब अने स्त्री संबंधमां आगळ पण हती. जे वखतथी हुं वात करूं छु, ते वखतने लगभग वीश वर्ष थयां व्यापार, अने वैभवनी बहोळाश ए सघळु वहिवट अवळी पडवाथी घटवा मंडयुं. aurat aarat हुं उपराचापरी खोटना भार वहन करवाथी लक्ष्मी वगरनो मात्र त्रण वर्षमां थइ पड्यो. ज्यां केवळ सवळं धारीने नांख्युं हतुं त्यां अवळु पड्युं. एवामां मारी स्त्री पण गुजरी गइ. ते वखतमां मने कई संतान नहोतुं . जबरी खोटोने लीधे मारे अहींथी नीकळी जनुं पडयुं. मारां कुटुंबीओए थनी रक्षा करी, परंतु ते आभफाट्यानुं थीगडुं हतुं. अन्नने अने दांतने वेर थयानी स्थितिए, हुं बहु आगळ नीकळी पड्यो. ज्यारे हुं त्यांथी नीक यो त्यारे मारां कुटुंबीओ मने रोकी राखवा मंडयां के तें गामनो दरवाजो पण दीठो नथी माटे तने जवा दइ शकाय नहि. तारुं कोमल शरीर कंइ पण करी शके नहि, अने तुं त्यांना अने सुखी था तो पछी आवे पण नहि; माटे ए विचार तारे मांडी वाळवो. घणा प्रकारथी तेओने समजावी, सारी स्थितिमां आवीश त्यारे अवश्य अहीं आवीश. एम वचन दइ जावावंदर हुं पर्यटने नीकळी पडयो. प्रारब्ध पाछां बळवानी तैयारी थइ. दैवयोगे मारीकने एक दमडी पण रही नहोती. एक के वे महीना उदरपोषण चाले तेनुं साधन र नहोतुं छतां जावामां हुं गयो; त्यां मारी बुद्धिए प्रारब्ध खीलव्यां. जे वहाणमां हुं बेठो हतो ते वहाणना नाविके मारी चंचळता अने नम्रता जोइने पोताना शेठ आगळ मारां Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस पर सुख विषे विचार भाग ३. दुःखनी वात करी. ते शेठे मने बोलावी अमुक काममां गोठव्यो, जेमां हुँ मारा पोषणथी चोगणुं पेदा करतो हतो. ए वेपारमा मारुं चित्त ज्यारे स्थिर थयुं त्यारे भारतसाथे ए वेपार वधारवा में प्रयत्न कर्युः अने तेमां फाव्यो, बे वर्षमां पांच लाख जेटली कमाइ थइ. पछी शेठ पासेथी राजी खुशीथी आज्ञा लइ में केटलोक माल खरीदी द्वारिका भणी आववानुं कयु. थोडे काळे त्यां आवी पहोंच्यो, त्यारे बहु लोक सन्मान आपवा मने सामा आव्या हता. हुं मारांकुटुंबीओने आनंदभावथी जइ मळ्यो. तेओ मारा भाग्यनी प्रशंसा करवा लाग्या. जावेथी लीधेला माले मने एकना पांच कराव्या. पंडितजी ! त्यां केटलाक प्रकारथी मारे पाप करवां पड्यां हताः पुरुं खावा पण हुँ पाम्यो नहोतो; परंतु एकवार लक्ष्मी साध्य करवानो जे प्रतिज्ञाभाव को हतो ते प्रारब्धं योगथी पळ्यो. जे दुःखदायक स्थितिमां ई हतो ते दुःखमां शुं खामी हती ? स्त्री, पुत्र ए तो जाणे नहोतांज, माबाप आगळथी परलोक पाम्यां हतां. कुटुंबीओना वियोगवडे अने विना दमडीए जावे जे वखते हुँ गयो ते वखतनी स्थिति अज्ञानदृष्टिथी आंखमां आंसु आणी दे तेवी छे; आ वखते पण धर्ममां लक्ष राख्यु हतुं. दिवसनो अमुक भाग तेमां रोकतो हतो, ते लक्ष्मी के एवी लालचे नहीं; परंतु संसारदुःखथी ए तारनार साधन छे एम गणीने. मोतनो भय क्षण पण दूर नथी, माटे ए कर्त्तव्य जेम बने तेम त्वराथी करी लेवू, ए मारी मुख्य नीति हती. दुराचारथी कंइ सुख नथी, मननी तृप्ति नथी, अने आत्मानी मलिनता छे. ए तत्व भणी में माझं लक्ष दोरेलु हतुं. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. शिक्षापाठ ६४ सुख विषे विचार भाग ४. अहीं आव्या पछी हुं सारां ठेकाणांनी कन्या पाम्यो. ते पण सुलक्षणी अने मर्यादाशील नीवडी, ए वडे करीने मारे त्रण पुत्र थया. वहिवट प्रबळ होवार्थी अने नाणुं नाणांने वधारतुं होवाथी दश वर्षमां हुं महा कोय्यावधि थइ पड्यो. पुत्रनां नीति, विचार, अने बुद्धि उत्तम रहेवा में बहु सुंदर साधनो गोठव्यां. जेथी तेओ आ स्थिति पाम्या छे. मारां कुटुंबीओने योग्य योन्य स्थळ गोठवी तेओनी स्थितिने सुधरती करी, दुकानना में अमुक नियमो बांध्या. उत्तम धामनो आरंभ पण करी लीधो. आ फक्त एक ममत्व खातर कयु. गयेलुं पार्छ मेळव्यु, अने कुळ परंपरानुं नामांकितपणुं जतुं अटकाव्यु, एम कहेवराववा माटे में आ सघळु कर्युः एने हुं सुख मानतो नथी. जो के हुं बीजा करतां सुखी छु, तोपण ए शातावेदनी छे. सत्सुख नथी. जगत्मां बहुधा करीने अशातावेदनी छे. में धर्ममां मारो काळ गाळबानो नियम राख्यो छेः शास्त्रनां मनन, सत्पुरुषोना समागम, यमनियम, एक महीनामां बार दिवस ब्रह्मचर्य, बनतुं गुप्तदान, सर्व व्यवहार संबंधीनी उपाधिमांथी केटलोक भाग बहुं अंशे में त्याग्यो छे. पुत्रोने व्यवहारमा यथायोग्य करीने हुं निग्रंथ थवानी इच्छा रा छं. हमणां निग्रंथ थइ शकुं तेम नथी, एमां संसारमोहिनी के एवं कारण नथी; परंतु ते पण धर्मसंबंधी कारण छे. गृहस्थ धर्मनां आचरण बहु कनिष्ठ थइ गयां छे, अने मुनियो ते सुधारी शकता नथी. गृहस्थ गृहस्थने विशेष बोध करी शके, आचरणथी पण असर करी शके. एटला माटे थइने धर्मसंबंधे गृहस्थवर्गने हुँ घणे भागे बोधी यमनियममां आ[छु. दरसप्ताहिके आपणे त्यां पांच में जेटला सद्गृहस्थोनी सभा भराय Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख विषे विचार भाग ५. छे. आठ दिवसनो नवो अनुभव अने बाकीनो आगळनो धर्मानुभव एमने बेत्रण मुहुर्त बोधुं छु, मारी स्त्री धर्मशास्त्रनो केटलोक बोध पामेली होवाथी ते पण स्त्रीवर्गने उत्तम यमनियमनो बोध करी सप्ताहिक सभा भरे छे. पुत्रो पण शास्त्रनो बनतो परिचय राखे छे. विद्वानोनुं सन्मान, अतिथिनो विनय, अने सामान्य सत्यता-एकज भाव-एवा नियमो बहुधा मारा अनुचरो पण सेवे छे. एओ बधा एथी शाता भोगवी शके छे. लक्ष्मीनी साथे मारा नीतिधर्म, सद्गुण, विनय एणे जनसमुदायने बहु सारी असर करी छे. राजासहित पण मारी नीति वात अंगीकार करे तेवू थयु छे. आ सघळं आत्मप्रशंसा माटे हुं कहेतो नथी, ए आपे स्मृतिमां राखवू मात्र आपना पूछेला खुलासा दाखल आ सघंलं संक्षेपमा कहेतो जउं छु. शिक्षापाठ ६५ सुख विषे विचार भाग ५. आ सघळां उपरथी हुं सुखी छं एम आपने लागी शकशे, अनेसामान्य विचारे मने बहु सुखी मानो तो मानी शकाय तेम छे. धर्म, शील अने नीतिथी तेमज शास्त्रावधानथी मने जे आनंद उपजे छे ते अवर्णनिय छे. पण तत्व दृष्टियी हुं सुखी न मनाउं. ज्यां सुधी सर्व प्रकारे बाह्य अने अभ्यंतर परिग्रह में त्याग्यो नथी, त्यां सुधी राग दोषनो भाव छे. जो के ते बहु अंशे छे. नथी पण छे, तो त्यां उपाधि पण छे. सर्वसंग परित्याग करवानी मारी संपूर्ण आकांक्षा छ, पण ज्यांसुधी तेम थयुं नथी त्यां सुधी गणातां हजु कोइ प्रियजननो वियोग, व्यवहारमा हानि, कुटुंबीनुं दुःख ए थोडे अंशे पण उपाधि आपी शके. पोताना देहपर मोत शिवाय पण नाना प्रकारना रोगनो संभव छे. माटे केवळ निग्रंथ, बाह्यां Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजु. भ्यतर परिग्रहनो त्याग, अल्पारंभनो त्याग ए सघळु नथी थयु त्यां सुधी हुं मने केवळ सुखी मानतो नथी. हवे आपने तत्वनी द्रष्टिए विचारतां मालम पडशे के लक्ष्मी, स्त्री, के कुटुंब एवडे सुख नथी. अने एने सुख गणुं तो ज्यारे मारी स्थिति पतित थइ हती त्यारे ए सुख क्यां गयुं हतुं ? जेनो वियोग छे, जे क्षणभंगुर छे अने ज्यां अव्याबाधपणुं नथी ते संपूर्ण के वास्तविक सुख नथी. एटला माटे थइने हुं मने सुखी कही शकतो नथी. हुं बहु विचारी विचारी व्यापार वहिवट करतो हतो तोपण मारे आरंभोपाधि, अनीति अने लेश पण कपट सेवq पडयुं नथी, एम तो नथीज. अनेक प्रकारना आरंभ, अने कपट मारे सेववां पडयां हतां. आप जो धारता होके देवोपासनथी लक्ष्मी प्राप्त करवी. तो ते जो पूण्य न होय तो कोइ काले मळनार नथी. पूण्यथी पामेली लक्ष्मी महारंभ कपट अने मानप्रमुख वधारवां ते महापापनां कारण छे, पाप नरकमां नाखे छे. पापथी, आत्मा महान् मनुष्यदेह एळे गुमावी दे छे. एक तो जाणे पुण्यने खाइ जवां, बाकी वळी पापर्नु बंधन करवू, लक्ष्मीनी अने ते वडे आखा संसारनी उपाधि भोगववी ते हुं धारु छ के विवेकी आत्माने मान्य न होय. में जे कारणथी लक्ष्मी उपार्जन करी हती, ते कारण में आगळ आपने जणाव्युं हतुं. जेम आपनी इच्छा होय तेम करो. आप विद्वान छो. हुं विद्वानने चाहुं छं. आपनी अभिलाषा होय तो धर्मध्यानमा प्रसस्त थइ सहकुटुंब अहीं भले रहो. आपनी उपजीविकानी सरळ योजना जेम कहो नेम हुं रुचिपूर्वक करावी आ. अहीं शास्त्राम्ययन अने सत्वस्तुनो उपदेश करो. मिथ्यारंभोपाधिनी लोलुप्तामा हुं धारु छ के न पडो, पछी आपनी जेवी इच्छा. पंडितः-आपे आपना अनुभवनी बहु मनन करवा जेवी Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ - सुख विषे विचार भाग ६. आख्यायिका कही. आप अवश्य कोइ महात्मा छो. पूण्यानुबंधीपुण्यवान जीव छो, विवेकी छो, आपनी विचारशक्ति अद्भूत छे; हुं दरिद्रताथी कंटाळीने जे इच्छा राखतो हतो ते एकांतिक हती. आवा सर्व प्रकारना विवेकी विचार में कर्या नहोता. आवो अनुभव-आवी विवेकशक्ति हुं गमे तेवो विद्वान छु छतां मारामां नथी, ए वात हुं सत्यज कहुं छु. आप मारे माटे जे योजना दर्शावी ते माटे आपनो बहु उपकार मार्नु छ; अने नम्रतापूर्वक ए हुं अंगि: कार करवा हर्ष बताq छु. हुं उपाधिने चाहतो नथी. लक्ष्मीनो फंद उपाधिज आपे छे. आपन अनुभवसिद्ध कथन मने वहु रुच्यु छे. संसार बळतोज छे. एमां सुख नथी. आपे निरुपाधि मुनिसुननी प्रशंसा कही ते सत्य छे. ते सन्मार्ग परिणामे सर्वोपाधि, आधि व्याधिथी तेमज सर्व अज्ञानभावथी रहित एवा शाश्वत मोक्षनो हेतु छे. शिक्षापाठ ६६ सुख विषे विचार भाग ६. धनाढ्यः-आपने मारी वात रुची एथी हुँ निराभिमानपूर्वक आनंद पामुंछु. आपने माटे हुं योग्य योजना करीश. मारा सामान्य विचारो कथानुरूप अहीं कहेवानी हुँ आज्ञा लउं छं. ... जेओ मात्र लक्ष्मीने उपार्जन करवामां कपट, लोभ अने मायामां मुंझाया पड्या छे ते बहु दुःखी छे. तेनो ते पुरो उपयोग के अधुरो उपयोग करी शकता नथी. मात्र उपाधिज भोगवे छे. ते असंख्यात पाप करे छे. काळ अचानक लइने उपाडी जाय छे. अधोगति पामी ते जीव अनंतसंसार वधारे छे. मळेलो मनुष्य देह निर्माल्य करी नाखे छे जेथी ते निरंतर दुःखीज छे....... Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाला - पुस्तक बीजं. जेओए पोतानां उपजीविका जेटलां साधनमात्र अल्पारंभथी राख्यां छे, शुद्ध एक पत्निव्रत, संतोष, परात्मानी रक्षा, यम, नियम, परोपकार, अल्पराग, अल्पद्रव्यमाया अने सत्य तेमज शास्त्राध्ययन राखेल छे, सत्पुरुषोने सेवे छे, निर्ग्रथतानो मनोरथ राख्यो छे, बहु प्रकारे करीने संसारथी जे त्यागी जेवा छे, जेनां वैराग्य अने विवेक उत्कृष्ट छे तेवा पुरूषो पवित्रतामां सुखपूर्वक काळ निर्गमन करे छे. ९८ सर्व प्रकारना आरंभ अने परिग्रहथी जेओ रहित थया छे. द्रव्यथी, क्षेत्रथी, काळथी अने भावथी जेओ अप्रतिबंधपणे विचरे छे, शत्रु, मित्र प्रत्ये समान दृष्टिवाळा अने शुद्ध आत्मध्यानमां जेमनो काळ निर्गमन थाय छे, अथवा स्वाध्याय ध्यानमां लीन छे. जितेंद्रिय अने जित कपाय एवा ते निर्ग्रथो परम सुखी छे. सर्व घनघाती कर्मनो क्षय जेमणे कर्यो छे, चार कर्म पातळां जेनां पड्यां छे, जे मुक्त छे. जे अनंतज्ञानी अने अनंतदर्शि छे ते तो संपूर्ण सुखीज छे. मोक्षमां तेओ अनंत जीवननां अनंत सुखमां सर्व कर्म विरक्तताथी विराजे छे. • आम सत्पुरुषोए कहेलो मत मने मान्य छे पहेलो तो मने त्याज्य छे. बीजो हमणां मान्य छे; अने घणे भागे ए ग्रहण कर - वानो मारो बोध छे. त्रीजो बहु मान्य छे। अने चोथो तो सर्वमान्य अने सच्चिदानंद स्वरूप छे. एम पंडितजी आपनी अने मारी सुख संबंधी वातचित थई. प्रसंगोपात ते वात चर्चता जइशुं. तेपर विचार करीशुं . आ विचारो आपने कह्याथी मने बहु आनंद थयो छे. आप तेवा विचारने अनुकूळ थया एथी वळी आनंदमां वृद्धि थई छे. एम परस्पर वातचित करतां करतां हर्षभर पछी तेओ समाधिभावथी शयन करी गया. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमूल्य तत्व विचार. ९९ • जे विवेकीओ आ सुख संबंधी विचार करशे तेओ बहु तत्व अने आत्मश्रेणिनी उत्कृष्टताने पामशे एमां कहेलां अल्पारंभी, निरारंभी अने सर्वमुक्त लक्षणो लक्षपूर्वक मनन करवा जेवां छे. जेम बने ते अल्पारंभी थई सम्भावथी जनसमुदायनां हित भणी वळवं. परोपकार, दया, शांति, क्षमा अने पवित्रतानुं सेवन करं ए बहु सुखदायक छे. निर्ग्रथता विपे तो विशेष कहेवानुं नथी. मुक्तात्मा अनंत सुखमयज छे. शिक्षापाठ ६७ अमूल्य तत्व विचार हरिगीत छंद. बहु पूण्य केरा पुंजी शुभ देह मानवनो मळ्यो, तोये अरे ! भवचक्रनो आंटो नहिं एके टळ्यो; सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो, क्षण क्षण भयंकर भाव मरणे कां अहो राची रहो ? १ लक्ष्मी अने अधिकार वधतां, शुं वध्धुं ते तो कहो, शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं, ए नय गृहो; वधवापणुं संसारनुं नर देहने हारी जवो, एनो विचार नहीं अहोहो ! एक पळ तमने हवो !!! २ निर्दोष सुख निर्दोष आनंद, ल्यो गमे त्यांथी मले; ए दिव्य शक्तिमान जेथी जंजिरेथी नीकळे !! परवस्तुमां नहि सुझबो, एनी दया मुजने रही; ए त्यागवा सिद्धांत के पश्चात दुःख ते सुख नहि. B Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० मोक्षमाळा-पुस्तक बाजु. हुं कोण छं? क्याथी थयो ? शुं स्वरुप छे मारुं खरुं? कोना संबंधे वळगणा छे ? रा के ए परहरूं? एना विचार विवेकपूर क शांत भावे जो कर्याः तो सर्व आत्मिकज्ञानना सिद्धांत तत्व अनुभव्यां. ते-प्राप्त करवा वचन कोनुं सत्य केवळ मानवू ? निर्दोष नरनुं कथन मानो "तेह" जेणे अनुभव्यु; रे ! आत्म तारो ! आत्म तारो ! शीघ्र एने ओळखो; सर्वात्ममां समद्रष्टि द्या आ वचनने हृदये लखो. ५ शिक्षापाठ ६८ जितेंद्रियता. ज्यां सुधी जीभ स्वादिष्ट भोजन चाहे छे; ज्यां सुधी नासिका सुगंधी चाहे छे; ज्यां सुधी कान वारांगना आदिनां गायन अने वाजिंत्र चाहे छे; ज्यां सुधी आंख वनोपवन जोवानुं लक्ष राखे छे ज्यां सुधी त्वचा सुगंधीलेपन चाहे छे, त्यांसुधी, ते मनुष्य निरोगी निग्रंथ, निःपरिग्रही, निरा भी अने ब्रह्मचारी थई शकतो नथी. मनने वश करवं ए सर्वोसम छे. एना वडे सघळी इंद्रियो वश करी शकाय छे. मन जीतबुं बहु दुर्घट छे. एक समयमां असंख्यात योजन चालनार अश्व ते मन छे. एने थकावq बहु दुल्लभ छे. एनी गति चपळ अने न झाली शकाय तेवी छे. महा ज्ञानीओए ज्ञानरुपी लगामवडे करीने एने स्थंभित राखी सर्व जय कर्यो छे. उत्तराध्ययन सूत्रमा नमिराज महर्षिए शकेंद्रप्रत्ये एम कडं के दश लाख सुभटने जीतनार कइक पडया छे; परंतु स्वात्माने जीतनारा बहु दुल्लभ छ भने ते दश लाख सुभटने जीतनार करतां अत्युत्तम छे. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्यनी नववाड• मनज सर्वोपाधिनी जन्मदाता भूमिका छे. मनज बंध अने मोक्षनुं कारण छे. मनज सर्व संसारनी मोहिनी रूप छे. ए वश थतां आत्मस्वरुपने पामकुं लेश मात्र दुल्लभ नथी. मनवडे इंद्रियोनी लोलुप्ता छे. भोजन, वाजिंत्र, सुगंधी, स्त्रीनुं निरीक्षण, सुंदर विलेपन ए सघळं मनज मागे छे. ए मोहिनी आडे ते धर्मने संभारवा पण देतुं नथी. संभार्या पछी सावधान थवा देतुं नथी. साबधान थया पछी पतितता करवामां प्रवृत्त थाय छे. मां नथी फावतुं त्यारे सावधानीमां कंइ न्यूनता पहचाडे छे. जेओ ए न्यूनता पण न पामतां अडग रहीने ते मनने जीते छे ते सर्वथा सिद्धिने पामे छे. मन कोइथीज अकस्मात जीती शकाय छे, नहि तो गृहस्थाश्रमे अभ्यास करीने जीताय छे; ए अभ्यास निर्ग्रथतामां बहु थ‍ शके छे छतां सामान्य परिचय करवा मांगिए तो तेनो मुख्य मार्ग आछे के ते जे दुरेच्छा करे तेने भूली जवी तेम करतुं नहि. ते ज्यारे शब्दस्पर्शादि विलास इच्छे त्यारे आपवां नहि. कामां आपणे एथी दोरावुं नहि पण आपणे एने दोरतुं; मोक्षमार्ग चिंतव्यामां रोकj. जितेंद्रियता विना सर्व प्रकारनी उपाधि उभीज रही छे. त्यागे न त्याग्या जेवो थाय छे, लोक लज्जाए तेने सेववो पडे छे. माटे अभ्यासे करीने पण मनने स्वाधीनतामां लई अवश्य आत्महित करं. शिक्षापाठ ६९ ब्रह्मचर्यनी नववाड. ज्ञानीओए थोडा शब्दोमां केवा भेद अने केतुं स्वरुप बतावेल. छे! ए वडे केटली बधी आत्मोन्नति थाय छे ! ब्रह्मचर्य जेवा गंभीर विषयनुं स्वरुप संक्षेपमां अति चमत्कारिक रीते Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ मोक्षमाळा - पुस्तक बीजं. आप्युं छे. ब्रह्मचर्यरुपी एक सुंदर झाड अने तेने रक्षा करनारी जे नव विधियोतेने वाडनुं रुप आपी आचार पाळवामां विशेष स्मृति रही शके एवी सरळता करी छे. ए नव वाड जेम छे तेम अहीं कही जडं छं. १ वसति - ब्रह्मचारी साधुए स्त्री, पशु के पडंग एथी संयुक्त वसतिमां रहेवुं नहीं. स्त्री वे प्रकारनी छे; - मनुष्यणी अने देवांगना. ए प्रत्येकना पाछा वे वे भेद छे. एकतो मूळ अने वीजी स्त्रीनी मूर्ति के चित्र. एमांथी गमे ते प्रकारनी स्त्री ज्यां होय त्यां ब्रह्मचारी साधुए न रहेवुं, केमके ए विकारहेतु छे. पशु एटले तिर्यंचणी. गाय भैंस इत्यादिक जे स्थळे होय ते स्थळे न रहेवुं; अने पडंग एटले नपुंसक एनो वास होय त्यां पण न रहेवुं. एवा प्रकारनो वास ब्रह्मचर्यनी हानि करे छे. तेओना कामचेष्टा हावभाव इत्यादिक विकारो मनने भ्रष्ट करे छे. २ कथा. - मात्र एकली स्त्रियोनेज के एकज स्त्रीने धर्मोपदेश ब्रह्मचारी न करवो. कथा ए मोहनी उत्पत्ति रुप छे. ब्रह्मचारीए स्त्रीना रुप कामविलास संबंधी ग्रंथो वांचवा नहीं, तेमज जेथी चित्त चळे एवा प्रकारनी गने ते शृंगार संबंधी कथा ब्रह्मचारीए करवी नहीं. ३ आसन. - स्त्रियोनी साथै एक आसने न बेसवुं, तेमज स्त्री बेठी होय त्यां वे घडी सुधीमां ब्रह्मचारीए न बेसवुं. ए स्त्रियोनी स्मृतिनुं कारण छे, एथी विकारनी उत्पत्ति थाय छे. एम भगवाने कं छे. ४ इंद्रियनिरीक्षण - स्त्रीओनां अंगोपांग ब्रह्मचारी साधुए न जोवां, न निरखवां एनां अमुक अंगपर द्रष्टि एकाग्र थवाथी विकारनी उत्पत्ति थाय छे. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनत्कुमार भाग १. १०३. ५ कुड्यांतर - भींत, कनात के त्राटानो अंतरपट राखी स्त्रीपुरुष ज्यां मैथुन सेवे त्यां ब्रह्मचारीए रहेवुं नहि. कारण शल, चेष्टादिक विकारनां कारण छे. ६ पूर्वक्रीडा-पोते गृहस्थावासमां गमे तेवी जातना शृंगारथी विषयक्रीडा करी होय तेनी स्मृति करवी नहीं; तेम करवाथी ब्रह्मचर्य भंग थाय छे. ७ प्रणीत - दूध, दहीं, घृतादि मधुरा अने चीकाशवाळा पदार्थोनो बहुधा आहार न करवो. एथी वीर्यनी वृद्धि अने उन्माद थाय छे अने तेथी कामनी उत्पत्ति थाय छे. माटे ब्रह्मचारीए तेम करतुं नहीं. ८ अतिमात्राहार- पेट भरीने अतिमात्र आहार करवो नहीं; तेम अति मात्रानी उत्पत्ति थाय तेम करतुं नहीं. एथी पण विकार वधे छे. ९ विभूषण - स्नान, विलेपन करवां नहि, तेमज पुष्पादिक ब्रह्मचारीए ग्रहण करवुं नहि. एथी ब्रह्मचर्यने हानि उत्पन्न थाय छे. एम विशुद्ध ब्रह्मचर्यने माटे भगवंते नव वाड व ही छे. बहुधा. ए तमारा सांभळवामां आवी हशे; परंतु गृहस्थावासमां अमुक. अमुक दिवस ब्रह्मचर्य धारण करवामां अभ्यासीओने लक्षमां रहेवा अहीं आगळ कंइक समजणपूर्वक कही छे. शिक्षापाठ ७० सनत्कुमार भाग १. चक्रवतींना वैभवमांशी खामी होय ? सनत्कुमार ए चक्रवर्त्ती हतो. तेनां वर्ण अने रुप अत्युत्तम हतां. एक वेळा सुधर्मसभामां ते रुपनी स्तुति थइ कोइ बे देवोने ते वात रुची नहीं; पछी तेओ ते शंका टाळवाने विप्ररुप सनत्कुमारनां अंतःपुरमां Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ मोक्षमाळा- पुस्तक बीजं. • गया. सनत्कुमारनो देह ते वेळा खेळथी भर्यो हतो. तेने अंग मर्दनादिक पदार्थोनुं मात्र विपन हतुं तेणे एक नानुं पंचीयुं पहेर्यु हतुं, अने ते स्नान - मज्न करवा माटे बेठा हता. विप्ररुपे आवेला देवता तेनुं मनोहर मुख, कंचनवर्णि काया, अने चंद्र जेवी कांति जोने बहु आनंद पाम्पा, अने माथु धुणान्युं . आ जोइने चक्रवत्तीए पूछर्युः तमे माधुं शा माटे धुणान्युं ? देवोए कयुं, अमे तमारुं रुप अने वर्ण निरखवा माटे बहु अभिलाषी हता. स्थळे स्थळे तमारा वर्ण रुपनी स्तुति सांभळी हती; आजे अमे ते प्रत्यक्ष जोयुं, जेथी अमने पूर्ण आनंद उपज्यो. माधुं धुणाव्युं नुं कारण एके जेवुं लोकोम कहेवाय छे तेवुंज रुप छे. एथी विशेष छे पण ओछु नथी. सनत्कुमार स्वरुपवर्णनी स्तुतिथी प्रभुत्व लावी बोल्यो, तमे आ वेळा मारुं रुप जोयुं ने भले, परंतु हुं राजसभामां वस्त्रालंकार धारण करी, केवळ सज्ज थइने ज्यारे सिंहासनपर बेसुं हुं त्यारे, मारुं रूप अने मारो वर्ण जोवा योग्य छे. अत्यारे तो हुं खेळभरी कायाए बेठो छं. जो ते वेळा तमे मारां रूपवर्ण जुओ तो अद्भुत चमत्कारने पामो अने चकित थई जाओ. देवोए कः त्यारे पछी अमे राजसभामां आवीशुं; एम कहीने त्यांथी चाल्या गया. सनत्कुमारे त्यार पछी उत्तम वस्त्रालंकारो धारण कर्या. अनेक उपचारथी जेम पोतानी काया विशेष आश्चर्यता उपजावे तेम करीने ते राजसभामां आवी सिंहासनपर बेठो. आजुबाजु समर्थ मंत्रियो, सुभटो, विद्वानो अने अन्य सभा योग्य आसने सी गया हता. राजेश्वर चामर छाथी विज्ञाता अने खमा खमाथी वधावानां विशेष शोभी रह्या छे, त्यां पेला देवताओ पाछा विरुपे आव्या. अद्भूत रूपवर्णथी आनंद पामवाने बदले जाणे खेद पाया छे एवा स्वरुपमां तेओए माधुं धुणान्युं. चक्रवर्त्तीए पूछयुं, अहो ब्राह्मणो ! गइ वेळा करतां आ वेळा तमे Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनत्कुमार भाग २. १०५ जूदा रुपमा माथु धुणाव्युं एवं कारण छ ? ते मने कहो. अवधज्ञानानुसारे विप्रे कयु के हे महाराजा ! ते रुपमा अने आ रुपमा भूमी आकाशनो फेर पडी गयो छे. चक्रवर्तीए ते स्पष्ट समजाववाने कह्यु. ब्राह्मणोए कयु, अधिराज ! तमारी काया प्रथम अमृततुल्य हती. आ वेळा झेर तुल्य छे. ज्यारे अमृततुल्य अंग हतुं त्यारे आनंद पाम्या, अने आ वेळा झेरतुल्य छे त्यारे खेद पाम्या. अमे कहीए छीए ते वातनी सिद्धता करवी होय तो तमे तांबुल थुको, तत्काळ ते पर मांखी बेसशे अने ते परलोक पहोंची जशे. शिक्षापाठ ७१ सनत्कुमार भाग २. सनत्कुमारे ए परीक्षा करी तो सत्य ठरी. पूर्वित कर्मनां पापनो जे भाग तेमां आ कायाना मद संबंधीनु मेळवण थवाथी ए चक्रवर्तिनी काया झेरमय थइ गइ हती. विनाशी अने अशुचिमय कायाना आवा प्रपंच जोइने सनत्कुमारने अंत:करणमां वैराग्य उत्पन्न थयो. आ संसार केवळ तजवा योग्य छे. आवीने आवी अशुचि स्त्री, पुत्र, मित्रादिकनां शरीरमा रही छे. ए सघळं मोहमान करवा योग्य नथी, एम विचारीने ते छ खंडनी प्रभुता त्यागी चाली नीकळ्या. साधुरुपे ज्यारे विचरता हता त्यारे तेओने महारोग उत्पन्न थयो. तेनां सत्यत्वनी परीक्षा लेवाने कोइ देव त्यां वैदरुपे आव्यो. साधुने कषु, हुं बहु कुशळ राजवैद छु. तमारी काया रोगनो भोग थयेली छे. जो इच्छा होय तो तत्काळ हुं ते टाळी आपू. साधु बोल्या, हे वैद ! कर्मरुपी रोग महोन्मत्त छे ए रोग टाळवानी तमारी जो समर्थता होय तो भले मारो ए रोग टाळो, ए समर्थता न होय तो आ रोग भले रह्यो. देवता बोल्यो, ए रोग टाळवानी समर्थता नथी. साधुए पोतानी लब्धिनां परिपूर्ण Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ मोक्षमाळा- पुस्तक बीजूं. प्रबळवडे थुंकवाळी अंगुलि करी ते रोगने खरडी के तत्काळ ते रोग नाश थयो; अने काया पाछी हती तेवी बनी गइ पछी ते वेळा देवे पोतानुं स्वरुप प्रकाश्युं धन्यवाद गाइ वंदन करी पोताने स्थानक गयो. रक्तपीत जेवा सदैव लोही परुथी गद्गद्ता महारोगनी उत्पत्ति जे कायामां छे; पळमां वणसी जवानो जेनो स्वभाव छे; जे प्रत्येक रोमे पोणा बब्बे रोगवाळी होइ रोगनो भंडार छे, अन्न वगेरेनी न्यूनाधिकताथी जे प्रत्येक कायामां देखाव दे छे, मळमूत्र, नर्क, हाड, मांस, परु अने श्लेष्मश्री जेनुं बंधारण टक्युं छे, त्वचाथी मात्र जेनी मनोहरता छे ते कायानो मोह खरे विभ्रमज छे. सनतुकुमारे जेनुं लेशमात्र मान कर्यु ते पण जेथी संखायुं नहीं ते कायामां अहो पामर ! तुं शुं मोहे छे ? ए मोह मंगळदायक नथी. शिक्षापाठ ७२ बत्रिस योग. 11809 सत्पुरुषो नीचेना बत्रिश योगनो संग्रहकरी आत्माने उज्वळ करवानुं कहे छे. १. मोक्षसाधक योग माटे शिष्ये आचार्य प्रत्ये आलोचना करवी. २. आलोचना बीजा पासे प्रकाशवी नहीं. ३. आपत्तिकाळे पण धर्मनुं द्रढपणुं त्यागनुं नहीं. ४. लोक परलोकनां मुखनां फलनी वांछना विना तप कर. ५. शिक्षा मळी ते प्रमाणे यत्नाथी वर्त्तनुं अने नवी शिक्षा विवेकथी गृहण करवी. ६. ममत्वनो त्याग करवो. ७. गुप्त तप करवुं. ८. निर्लोभता राखर्व :. ९. परिषह उपसर्गने जीतवा. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्रिस योग. १०. सरळ चित्त राखq. ११. आत्मसंयम शुद्ध पाळवी. १२. समकित शुद्ध राखq. १३. चित्तनी एकाग्र समाधि राखवी. १४. कपटरहित आचार पाळवो. १५. विनय करवा योग्य पुरुषोनो यथायोग्य विनय करवो. १६. संतोषथी करीने तृष्णानी मर्यादा टुंकी करी नांखवी. १७. वैराग्यभावनामां निमग्न रहे,. १८. मायारहित वर्त. १९. शुद्ध करणीमां सावधान थq. २०. सम्वरने आदरवो अने पापने रोकवां. २१. पोताना दोष सम्भावपूर्वक टाळवा. २२. सर्व प्रकारना विषयथी विरक्त रहेवू. २३. मूळ गुणे पंचमहावृत्त विशुद्ध पाळवां. २४. उत्तर गुणे पंचमहावृत्तने विशुद्ध पाळवां. २५. उत्साहपूर्वक कार्योत्सर्ग करवो. २६. प्रमादरहित ज्ञान ध्यानमा प्रवर्त्तन करवं. २७. हमेशां आत्मचारित्रमा सूक्ष्म उपयोगथी वर्त्त २८. ध्यान, जीतेंद्रियताअर्थे एकाग्रतापूर्वक करवू. २९. मरणांत दुःखथी पण भय पामवो नहीं. ३०. स्त्रियादिकना संगने त्यागवो. ३१. प्रायश्चित विशुद्धि करवी. ३२. मरणकाले आराधना करवी. ए अकेका योग अमूल्य छे. सघळा संग्रह करनार परिणामे अनंत सुखने पामे छे. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा - पुस्तक बीजं. शिक्षापाठ १३ मोक्ष सुख आ जगत् मंडळपर केटलीक एवी वस्तुओ अने मनेच्छा रही छे के जेकेटलाक अंशे जाणना छतां कही शकाती नथी. छतां ए वस्तुओं कं संपूर्ण शाश्वत के अनंत भेदवाळी नथी. एवी वस्तुनुं ज्यारे वर्णन न थइ शके त्यारे अनंत सुखमय मोक्ष सबंधीतो उपमा क्यांथीज मळे ? भगवानने गौतमस्वामी मोक्षना अनंत सुखविषे प्रश्न कर्यु त्यारे भगवाने उत्तरमां कहुं, गौतम ! ए अनंतसुख हुं जाएं छउं; पण ते कही शकाय एवी अहीं आगळ कंइ उपमा नथी. जगत्मां ए सुखना तुल्य कोइपण वस्तु के सुख नथी, एम वदी एक भीलनुं द्रष्टांत नीचेना भावमां आप्युं हतुं. एक जंगलमां एक भद्रिकभील तेनां वाळवच्चां सहीत रहेतो हतो. शहेर वगेरेनी समृद्धिनी उपाधिनुं तेने लेश भान पण नहोतुं. एक दिवस कोइ राजा अश्वक्रीडा माटे फरतो फरतो त्यां नीकळी आव्यो; तेने बहु तृषा लागी हती; जेथी करीने सानवडे भील आगळ पाणी माग्युं. भीले पाणी आप्युं. शीतळ जलथी राजा संतोषायो. पोताने भील तरफथी मळेलां अमूल्य जळदाननो प्रत्युपकार करवा माटे भीलने समजावीने साथे लीधो. नगरमां आव्या पछी तेणे भीलने तेनी जींदगीमां नहीं जोयेली वस्तुमा राख्यो. सुंदर महलमां, कने अनेक अनुचरो; मनोहर छत्रपलंग, अने स्वादिष्ट भोजनथी मंदमंद पवनमां, सुगंधी विलेपनमां तेने आनंद आनंद करी आप्यो. विविध जातिना हीरामाणेक, मौक्तिक, मणिरत्न अने रंग बेरंगी अमूल्य चीजो निरंतर ते भीलने जोवा माटे मोकल्यां करे बागबगीचा मां फरवा हरवा मोकले. एम राजा तेने सुख आया करतो हतो. कोइ रात्रे वधां सुइ रह्यां हतां, त्यारे ते भीलने बाळबच्चां सांभरी आव्यां एटले ते त्यांथी कंइ लीधा १०८ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष सुख. १०९ कर्यावगर एकाएक नीकळी पड्यो. जइने पोतानां कुटुंबीने मळ्यो. ते बांये मळीने पूछयुं के तुं क्या हतो? भीले कडं, बहु सुखमां; त्यां में बहु वखाणवा लायक वस्तुओ जोइ. कुटुंबीओ-पण ते केवी ? ते तो अमने कहे. भील-शुं कहुं, अहीं एवी एके वस्तुज नथी. कुटुंबीओ-एम होय के ? आ शंखलां, छींप, कोडां केबां मजानां पड्यां छे त्यां कोइ एवी जीवालायक वस्तु हती ? भील-नहीं, भाइ, एवी चीज तो अहीं एके नथी. एना सोमा भागनी के हजारमा भागनी पण मनोहर चीज अहीं नथी. कुटुंबीओ-त्यारे तो तुं बोल्याविना बेठो रहे. तने भ्रमणा थइ छे; आथी ते पछी सारुं शुं हशे? . हे गौतम ! जेम ए भील राजवैभवसुख भोगवी आव्यो हतो तेमज जाणतो हतो; छतां उपमा योग्य वस्तु नहीं मळबाथी ते कंड कही शकतो नहोतो. तेम अनुपमेय मोक्षने सच्चिदानंद स्वरुपमय निर्विकारी मोक्षनां सुखना असंख्यातमा भागने पण योग्य उपमेय नहीं मळबाथी हुँ तने कही शकतो नथी. ___ मोक्षनां स्वरुपविषे शंका करनारा तो कुतर्कवादी छे एओने क्षणिक सुखसंबंधी विचार आडे सत्सुखनो विचार क्यांथी आवे? कोइ आत्मिकज्ञानहीन एम पण कहे छे के आथी कोइ विशेष सुखनुं साधन त्यां रहुं नहि एटले अनंत अव्याबाध सुख कही दे छे, आ एy कथन विवेकी नथी. निद्रा प्रत्येक मानवीने प्रिय छे; पण तेमां तेओ कंइ जाणी के देखी शकता नथी; अने नाणवामां आवे तो मात्र स्वमोपाधिनुं मिथ्यापणुं आवे जेनी कंड असरपण थाय ए स्वमा वगरनी निंद्रा जेमां सूक्ष्मस्थूळ सर्व जाणी अने देखी शकाय; अने निरुपाधिी शांत उंघ लइ शकाय तो तेनुं ते वर्णन शुं करी शके ? एने उपमा पण शी आपे ? आ तो Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० मोक्षमाळा - पुस्तक बीजं• स्थूळ द्रष्टांत छे; पण बालविवेकी ए परथी कंइ विचार करी शके एमटेक छे. भीलनुं द्रष्टांत, समजाववा रुपे भाषाभेद फेरफारथी तमने कही बताव्यं. शिक्षापाठ ७४ धर्मध्यान भाग १. भगवाने चार प्रकारनां ध्यान कह्यां छे. आर्च, रौद्र, धर्म अने शुक्ल, पहेलां वे ध्यान त्यागवा योग्य छे. पाछळनां बे ध्यान आत्मसार्थकरूप छे. श्रुतज्ञानना भेद जाणवा माटे, शास्त्र विचारमां कुशळ थवा माटे, निग्रंथप्रवचननुं तत्त्व पामवा माटे, सन्पुरुषोए सेववा योग्य, विचारवा योग्य अने ग्रहण करवा योग्य धर्मध्यानना मुख्य सोळ भेद छे. पहेलां चार भेद कहुं छं. १ आणाविजये ( आज्ञाविचय ). २ आवाया वेजय ( अपायविचय: ३ विवागविजये ( विपाकविचय ). सठांणविजय ( संस्थानविचय ). १ आज्ञाविचय. आज्ञा एटले सर्वज्ञ भगवाने धर्मतत्त्व संबंधी जे जे क छे ते ते सत्य छे; एमां शंका करवा जेवुं नथी; काळनी हीनताथी; उत्तम ज्ञानना विच्छेद जवाथी; बुद्धिनी मंदताथी के एवां अन्य कोई कारणथी मारा समजवामां ते तत्त्व आवतुं नथी. परंतु अर्हत भगवंते अंश मात्र पण माया युक्त के असत्य कहुं नथीज, कारण एओ निरागी, त्यागी, अने निस्पृही हता. मृषा कहेवानुं is कारण एमने हतुं नहीं. नेम एओ सर्वदर्शी होवाथी अज्ञानथी पण मृषा कहे नहीं, ज्यां अज्ञानज नथी, त्यां ए संबंधी मृषा क्यांथी होय ? एवं जे चिंतन करवुं ते ' आज्ञाविषय ' नामनो प्रथम भेद छे. २ अपायविच . राग, द्वेष, काम, क्रोध ए वगेरेथीज जीवने जे दुःख उत्पन्न थाय छे तेथीज तेने भवमां भटक Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान भाग १. १११ पडे छे. तेनुं जे चिंतन करवुं ते ' अपायविचय ' नामे बीजो भेद छे. अपाय एटले दुःख. ३ विपाकविचय. हुं जे जे क्षणे जे जे दुःख सहन करूं छु, भवाटविमां पर्यटन करूं लुं, अज्ञानादिक पाएं छं, ते सघकुं कर्मनां फळना उदय बडे छे; एम चिंतवनुं ते धर्मध्याननो त्रीजो 'कर्मविपाक' चिंतन भेद छे. ४ संस्थानविचय. ऋणलोकनुं स्वरूप चिंतवनुं ते. लोकस्वरुप सुप्रतिष्टिकने आकारे छे. जीव अजीवे करीने संपूर्ण भरपुर छे. असंख्यात योजननी कोटानुकोटी त्रिच्छो लोक छे. ज्यां असंख्याता द्वीप - समुद्र छे. असंख्याता ज्योतिष्यि, वाणव्यंतरादिकना निवास छे. उत्पाद, व्यय अने ध्रुवतानी विचित्रता एमां लागी पडी छे. अढीद्दीपमां जघन्य तीर्थंकर २०, उत्कृष्टा एकसो सितेर होय. तेओ तथा केवळी भगवान अने निर्ग्रथ मुनिराज विचरे छे, तेओने “वंदामि, नमसामि, सकारेमि, समाणेमि, कल्लाणं, मंगळं, देवयं, चेइयं पज्जुवासामि " एम तेमज त्यां वसतां श्रावक, श्राविकानां गुणग्राम करीए. ते त्रिछालोकथकी असंख्यात गुणो अधिक उर्द्ध लोक छे. त्यां अनेक प्रकारना देवताओना निवास छे. पछी इषत् प्राग्भारा छे. ते पछी मुक्तात्माओ विराजे छे. तेने “वंदामि, यावत् पज्जुवासामि " ते उर्द्ध लोकधी कंइक विशेष अधो लोक छे, त्यां अनंत दुःखी भरेला नर्कावास अने भुवन पतिनां भुवनादिक छे. ए aण लोकनां सर्व स्थानक आ आत्माएं सम्यक्त्वरहितकरणीथी अनंतिवार जन्म मरण करी स्पर्शि मूक्यां छे, एम जे चिंतन कर ते संस्थान विचय नामे धर्मध्याननो चोथो भेद छे. ए चार भेद विचारीने सम्यक्त्वसहित श्रुत अने चारित्र धर्मनी आराधना करवी. जेथी ए अनंत जन्म मरण टळे. ए धर्मध्यानना चार भेद स्मरमां राखवा. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा - पुस्तक बजं, शिक्षापाठ ७५ धर्मध्यान भाग २. ११२ धर्मध्याननां चार लक्षण कहुं छं, आज्ञारुचि- एटले वीतराग भगवाननी आज्ञा अंगीकार करवानी रुचि उपजे ते. २. निसर्ग रुचि - आत्मा स्वाभाकिपणे जातिस्मरणादिक ज्ञाने करी श्रुत सहित चारित्र धर्म घरवानी रुचि पामे तेने निसर्ग रुचि कही छे. ३ सूत्र रूचि. श्रुतज्ञान, अने अनंत तत्वना भेदने माटे भाखेलां भगवाननां पवित्र - वचनोनुं जेमां गुंथन थयुं छे, ते सूत्र श्रवण करवा, मनन करवा, अने भावथी पहन करवानी रुचि उपजे ते सुत्र रुचि. ४ उपदेशरुचि. ज्ञाने करीने उपार्जेलां कर्म ज्ञाने करीने खपावीए, तेमज ज्ञानवडे करीने नवां कर्म न बांधीए. मिथ्यात्वे करीने उपाय कर्म ते सम्यग्भावधी खपावीए, सम्यग् - भावी नवां कर्म न बांधीए अवैराग्य करीने उपाय कर्म ते .वैराग्ये करीने खपावीए अने वैराग्यवडे करीने पाछां नवां कर्म न बांधीए. कषाये करी उपाज्यों कर्म ते कषाय टाळीने खपावीए, थी नवां कर्म न बांधीए अशुभ योगे करी उपाय कर्म ते शुभ योगेकरी खपावीए, शुभ योगेकरी नवां कर्म न बांधीए पांच इंद्रियना स्वादरुप आश्रये करी उपाय कर्म ते संवरे करी खपावीए. तपरुप संवरे करी नवां कर्म न बांधीए. ते माटे अज्ञानादिक आश्रवमार्ग छांडीने ज्ञानादिक संवर मार्ग गृहण करवा माटे तीर्थंकर भग वंतनो उपदेश सांभळवानी रु चे उपजे तेने उपदेश रुचि कहीए. ए धर्मध्याननां चार लक्षण कहेनायां. धर्मध्याननां चार आलंगन कहुं छं. १ वांचना २ पृच्छना ३परावर्त्तना ४ धर्मकथा. वांचना एटले विनय सहित निर्जरा तथा ज्ञान पामवाने माटे सूत्र सिद्धांतना मर्मना जाणनार गुरु के सत्पुरुष Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मध्यान भाग ३. ११३ समीपे सूत्र तत्वनुं वांचन लइए तेनुं नाम वांचनाआलंबन. २ पृच्छणा-अपूर्व ज्ञान पामवा माटे, जिनेश्वर भगवंतनो मार्ग दीपाववाने तथा शंकाशल्य निवारवाने माटे तेमज अन्यना तत्त्वनी मध्यस्थ परीक्षाने माटे यथायोग्य विनय सहित गुर्वादिकने प्रश्न पूछीए तेने पृच्छना कहीए. ३ परावर्त्तना-पूर्वे जिनभाषित सूत्रार्थ जे भण्या होइए ते स्मरणमा रहेवा माटे, निर्जरा ने अर्थे शुद्ध उपयोग सहित शुद्ध सूत्रार्थनी वारंवार सझ्झाय करीए तेनुं नाम परावर्त्तनालंबन. ४ धर्मकथा-वीतराग भगवाने जे भाव जेवा प्रणीत कर्या छे ते भाव. तेवा लइने, ग्रहीने, विशेष करीने, निश्चय करीने, शंका, कंखा अने वितिगिछारहितपणे, पोतानी निर्जराने अर्थे सभा मध्ये ते भाव प्रणीत करीए के जेथी सांभळनार, सदृहनार बन्ने भगवंतनी आज्ञाना आराधक थाय. ए धर्मकथालंबन कहिए. ए धर्मध्यानमां चार आलंबन कहेवायां. धर्मध्याननी चार अनुप्रेक्षा कहुं छु. १ एकत्वानुप्रेक्षा, २ अनित्यानुप्रेक्षा, ३ अशरणानुप्रेक्षा, ४ संसारानुप्रेक्षा. ए चारेनो बोध बारे भावनाना पाठमां कहेवाइ गयो छे, ते तमने स्मरणमां हशे. शिक्षापाठ ७६ धर्मध्यान भाग ३. धर्मध्यान पूर्वाचार्योए अने आधुनिक मुनीश्वरोए पण विस्तारपूर्वक बहु समजाव्युं छे. ए ध्यानवडे करीने आत्मा मुनित्वमावमां निरंतर प्रवेश करे छे. जे जे नियमो एटले भेद, लक्षण, आलंबन अने अनुप्रेक्षा कह्यां ते बहु मनन करवा जेवा छे. अन्य मुनीश्वरोना कहेवा प्रमाणे में सामान्य भाषामां ते तमने कह्या; ए साथे निरंतर लक्ष राखवानी आवश्यकता छे के एमांथी आपणे कयो भेद पाम्या, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. अथवा कया भेदभणी भावना राखी छे ? ए सोळ भेदमांनो गमे ते भेद हितकारी अने उपयोगी छे; परंतु जेवा अनुक्रमथी लेवो जोइए ते अनुक्रमथी लेवाय तो ते विशेष आत्मलाभनुं कारण थइ पडे. सूत्रसिद्धांतनां अध्ययनो केटलाक मुखपाठे करे छे तेना अर्थ, तेमां कहेलां मूळतत्त्वो भणी जो तेओ लक्ष पहोंचाडे तो कंइक सूक्ष्मभेद पामी शके. केळनां पत्रमां, पत्रनी जेम चमत्कृति छे तेम सूत्रार्थने माटे छे. ए उपर विचार करतां निमेळ अने केवळ दयामय मार्गनो जे वीतरागरणीत तत्त्वबोध तेनुं बीज अंतःकरणमां उगी नीकळशे. ते अनेक प्रकारनां शास्त्रावलोकनथी, प्रश्नोत्तरथी, विचारथी अने सत्पुरुषना समागमथी पोषण पामीने वृद्धि थई वृक्षरुपे थशे. जे पछी निलरा अने आत्मप्रकाशरुप फळ आपशे. श्रवण, मनन अने निदिध्यासनना प्रकारो वेदांतवादियोए बताव्या छे; पण जेवा आ धर्मध्यानना पृथक् पृथक् सोळ भेद कह्या छे तेवा तत्त्वपूर्वक भेद कोई स्थळे नथी, ए अपूर्व छे. एमांथी शास्त्रने श्रवण करवानो, मनन करवानो, विचारवानो, अन्यने बोध करवानो, शंकाकंखा टाळवानो, धर्मकथा करवानो, एकत्व विचारवानो, अनित्यता विचारवानो, अशरणता विचारवानो, वैराग्य पामवानो, संसारनां अनंत दुःख मनन करवानो, अने वीतराग भगवंतनी आज्ञावडे करीने आखा लोकालोकना विचार करवानो अपूर्व उत्साह मळे टि. भेदे भेदे करीने एना पाछा अनेक भाव समजाव्या छे. ___ एमांना केटलाक भाव समजवाथी तप, शांति, क्षमा, दया, वैराग्य अने ज्ञाननो बहु बहु उदय थशे. तमे कदापि ए सोळ भेदतुं पट्टन करी गया हशो तो पण फरी फरी तेनुं पुनरावर्तन करजो. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान संबंधी बे बोल भाग १. शिक्षापाठ ७७ज्ञानसंबधी बेबोल भाग १. जेवडे वस्तुनुं स्वरुप जाणीए ते ज्ञान. ज्ञान शब्दनो आ अर्थ छे. हवे यथामति विचारवानुं छे के ए ज्ञाननी कंइ आवश्यकता छे ? जो आवश्यकता छ तो ते प्राप्तिनां कंइ साधन छे ? जो साधन छे तो तेने अनुकुळ देशकाल भाव छे ? जो देशकाळादिक अनुकुळ छे तो क्यां सुधी अनुकुळ छे ? विशेष विचारमा ए ज्ञानना भेद केटला छे? जाणवारुप छे शुं ? एना वळी भेद केटला छे ? जाणवानां साधन कयां कयां छे ? कयी कयी वाटे ते साधनो प्राप्त कराय छे ? ए ज्ञाननो उपयोग के परिणाम शुं छे ? ए जाणवू अवश्यतुं छे.. १. ज्ञाननी शी आवश्यकताछे ? ते विषे प्रथम विचार करीए. आ चतुर्दश रजवात्मक लोकमां, चतुर्गतिमां अनादिकाळथी सकमस्थितिमा आ आत्मानुं पर्यटन छे. मेषानुमेष पण सुखनो ज्यां भाव नथी एवां नर्कनिगोदादिक स्थानक आ आत्माए बहु बहु काळ वारंवार सेवन कयाँ छे; असह्य दुःखोने पुनः पुनः अने कहो तो अनंतिवार सहन कर्यां छे. ए उतापथी निरंतर तपतो आत्मा मात्र स्वकर्मविपाकथी पर्यटन करे छे. पर्यटनकारण अनंत दुःखद ज्ञानावरणादि कर्मों छे, जेवडे करीने आत्मा स्वस्वरुपने पामी शकतो नथी; अने विषयादिक मोहबंधनने स्वस्वरुप मानी रह्यो छे. ए सघळांनुं परिणाम मात्र उपर कहुं तेज छे के अनंत दुःख अनंत भावे करीने सहेवू; गमे तेटलं अप्रिय, गमे तेटलं खेददायक अने गमे तेटलुं रौद्र छतां जे दुःख अनंतकाळथी अनंतिवार सहन करवू पडयुं ते दुःख मात्र सह्यं ते अज्ञानादिक कर्मथी, माटे ए अज्ञानादिक टाळवा माटे ज्ञाननी परिपूर्ण आवश्यकता छे. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजुं. शिक्षापाठ ७८ज्ञान संबंधी बे बोल भाग २. २ हवे ज्ञानप्राप्तिनां साधनो विषे कंइ विचार करीए. अपूर्ण पर्याप्तिवडे परिपूर्ण आत्मज्ञान साध्य थतुं नथी ए माटे थइने छ पर्याप्तियुक्त जे देह ते आत्मज्ञान साध्य करी शके. एवो देह ते एक मानवदेह छे. आ स्थळे प्रश्न उठशे के मानवदेह पामेला अनेक आत्माओ छे, तो ते सघळा आत्मज्ञान कां पामता नथी ? एना उत्तरमां आपणे मानी शकीडा के जेओ संपूर्ण आत्मज्ञानने पाम्या छे तेओनां पवित्र वचनामृतनी तेओने श्रुति नहीं होय. श्रुतिविना संस्कार नथी. जो संस्कार थी तो पछी श्रद्धा क्याथी होय ? अने ज्यां ए एक्के नथी त्यां नानप्राप्ति शानी होय ? ए माटे मानवदेहनी साथे सर्वज्ञवचनामृती प्राप्ति अने तेनी श्रद्धा ए पण साधनरुप छे. सर्वज्ञवचनामृत अकर्म भूमि के केवळ अनार्य भूमिमा मळतां नथी तो पछी मानवह शुं उपयोगनो ? एमाटेथइने सकर्म आर्यभूमि ए पण साधनरुप के . तत्वनी श्रद्धा उपजवा अने बोध थवा माटे निग्रंथ गुरुनी आवश्यकता छे. द्रव्ये करीने जे कुल मिथ्यात्वि छे, ते कुळमां थयेलो जन्म पण आत्मज्ञान प्राप्तिनी हानि रुपज छे. कारण धर्ममत भेद ए अति दुःखदायक छे. परंपराथी पूर्वजोए गृहण करेलु जे दर्शन तेमांज सत्यभावना बंधाय छे, एथी करीने पण आत्मज्ञान अटके छे. ए माटे भलं कुळ पण जरुरनुं छे. ए सघळां प्राप्त करवा माटे थ ने भाग्यशाळी थर्बु तेमां सद्पुण्य एटले पुण्यानुबंधी पुण्य इत्य दिक उत्तम साधनो छे. ए द्वितीय साधन भेद कह्यो. ३ जो साधन छे तो तेन अनुकुळ देश काळ छे ? ए त्रीजा भेदना विचार करीए. भारतमां महाविदेह इ० कर्म भूमि अने Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान संबंधी बे बोल भाग ३. ११७ तेमां पण आर्यभूमि ए देश भावे अनुकूळ छे. जिज्ञासु भव्य ! तमे सघळा आ काळे भारतमा छो, माटे भारत देश अनुकूळ छे. काळभाव प्रमाणे मति अने श्रुत प्राप्त करी शकाय एटली अनुकूळता छे. कारण आ दुःषमपंचम काळमां परमावधि, मनःपर्यव अने केवळ ए पवित्र ज्ञान विच्छेद छे. एटले काळनी परिपूर्ण अनुकूळता नथी. ४ देशकाळादि जो अनुकूळ छे तो क्यां सुधी छे ? एनो उत्तर शेष रहेलुं सिद्धांतिक मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, सामान्यमतथी ज्ञान काळभावे एकवीश हजार वर्ष रहेवानुं तेमांथी अढी सहस्त्र गयां, बाकी साडाअढार हजार वर्ष रह्यां; एटले पंचमकाळनी पूर्णता सुधीकाळनी अनुकूळताछे. देशकाळ ते लेइने परिपूर्ण अनुकूळ छे. शिक्षापाठ ७९ज्ञान संबंधी बेबोल भाग ३. हवे विशेष विचार करीए. १. आवश्यकता शी छे ? ए महद् विचारनु आवर्तन पुनः विशेषताथी करीए. मुख्य अवश्य स्वस्वरुपस्थितिनी श्रेणिए चढवू ए छे अनंत दुःखनो नाश, दुःखना नाशथी आत्मानुं श्रेयिक सुख ए हेतु छे केमके सुख निरंतर आत्माने प्रियज छे पण जे स्वस्वरुपिक सुख छे ते. देशकाळ भानने लेइने श्रद्धा, ज्ञान इ० उत्पन्न करवानी आवश्यकता अने सम्यग् भाव सहित उच्चगति, त्यांथी. महाविदेहमा मानवदेहे जन्म, त्यां सम्यग् भावनी पुनः उन्नति तत्त्वज्ञाननी विशुद्धता अने वृद्धि छेवटे परिपूर्ण आत्मसाधन ज्ञान अने तेनुं सत्य परिणाम केवळ सर्व दुःखनो अभाव एटले अखंड, अनुपम अनंत शाश्वत पवित्र मोक्षनी प्राप्ति ए सघळां माटे ज्ञाननी आवश्यकता छे ! Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ मोक्षमाळा-पुस्तक बाजु. २. ज्ञानना भेद केटला छे एनो विचार कहुं छं. ए ज्ञानना भेद अनंत छे. पण सामान्य द्रष्टि समजी शके एटला माटे सर्वज्ञ भगवाने मुख्य पांच भेद वह्या छे ते जेम छे तेम कहुं छु. प्रथम मति द्वितीय श्रुत, तृतीय अवध, चतुर्थ मनःपर्यव अने पांचमुं संपूर्ण स्वरुप केवळ. एना पाछा प्रतिभेद छे तेनी वळी अतींद्रिय स्वरुपे अनंत भंगजाळ छे. ३. शुं जाणवारुप छे ? एनो हवे विचार करीए. वस्तुनुं स्वरुप जाणवू तेनुं नाम ज्यारे ज्ञान; त्यारे वस्तुओ तो अनंत छे एने कयी पंक्तिथी जाणवी ? सर्वज्ञ थयः पछी सर्वदर्शिताथी ते सत्पुरुष, ते अनंत वस्तुनुं स्वरुप सर्व भेदे करीने जाणे छे अने देखे छे; परंतु तेओ ए सर्वज्ञ श्रेणिने पाम्या ते कयी कयी वस्तुने जाणवाथी ? अनंत श्रेणिओज्यांसुधी जाणी नथी त्यांसुधी कयी वस्तुने जाणता जाणता ते अनंत वस्तुओने अनंत रुपे जाणीए ? ए शंकानुं समाधान हवे करीए. जे अनंतवस्तुओ मानी ते अनंत भंगे करीने छे. परंतु मुख्य वस्तुत्व स्व रुपे तेनी बे श्रेणीओ छे. जीव अने अजीव. विशेष वस्तुत्व स्वरुपे नवतत्त्व किंवा षड्द्रव्यनी श्रेणिओ जाणवा रुप थइ पडे छे. जे पंक्तिए चढतां चढतां सर्व भावे जणाइ लोकालोक स्वरुप हस्तामलकवत् जाणी देखी शकाय छे. एटला माटे थइने जाणवारुप पदार्थ ते जीव अने अजीव छे ए जाणवा रुप मुख्य बे श्रेणिओ कहवाइ. शिक्षापाठ ८० ज्ञान संबंधी बेबोल भाग ४. - -- ४. एना उप भेद संक्षेपमां कहुं छु. ए चैतन्य लक्षणे एक रुप छे. देहस्वरुपे अने द्रव्य स्वरुपे अनंतानु अनंत छ. देहस्वरुपे तेना इंद्रियादिक जाणवा रुप छे तेनी गति, विगति इत्यादिक Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान संबंधी बे बोल भाग ४. ११९ जाणवा रुप छे तेनी संसर्ग ऋद्धि जाणवा रुप छे; तेमज अजीव तेना रुपी अरुपी पुद्गल आकाशादिक विचित्र भाव काळचक्र इ० जाणवा रुप छे. जीवाजीव जाणवानी प्रकारांतरे सर्वज्ञ सर्वदर्शीए नव श्रेणि रुप नवतत्त्व कह्यां छे. जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्चव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष. एमांना केटलांक ग्राह्यरुप, केटलांक जाणवारुप केटलांक सागवा रुप छे. सघळां ए तत्त्वो जाणवा रुप तो छेज. ५. जाणवानां साधन-सामान्य विचारमा ए साधनो जो के जाण्यां छे, तो पण विशेष कंइक जाणीए, भगवाननी आज्ञा अने तेनुं शुद्ध स्वरुप यथातथ जाणवू. स्वयं कोइकज जाणे छे. नहीं तो निग्रंथज्ञानी गुरु जणावी शके, निरागी ज्ञाता सर्वोत्तम छे. एटला माटे श्रद्धानुं बीज रोपनार के तेने पोषनार गुरु ए साधन रुप छे ए साधनादिकने माटे संसारनी निवृत्ति एटले शम, दम ब्रह्मचर्यादिक अन्य साधनो छे. ए साधनो प्राप्त करवानी वाट कहीए तो पण चाले. ६. ए ज्ञाननो उपयोग के परिणामनां उत्तरनो आशय उपर आवी गयो छे; पण काळभेदे कंइ कहेवानुं छे. अने ते एटलुंज के दिवसमां बे घडीनो वखत पण नियमित राखीने जिनेश्वर भगवानना कहेला तत्त्वबोधनी पर्यटना करो. वीतरागना एक सिद्धांतिक शब्दपरथी ज्ञानावरणीनो बहु क्षयोपशम थशे एम हुँ विवेकथी कहुं छु. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० मोक्षमाळा-पुस्तक बीजु. शिक्षापाठ ८१ पंचमकाळ. काळचक्रना विचारो अवश्य करीने जाणवा योग्य छे. जिनेश्वरे ए काळचक्रना बे मुख्य भेद कह्या छे. १ उत्सर्पिणी, २ अवसर्पिणी. अकेका भेदना छ छ आरा छे. आधुनिक वर्तन करी रहेलो आरो पंचमकाळ कहेवाय छे, अने ते अवसर्पिणी काळनो पांचमो आरो छे. अवसर्पिणी एटले उतरतो काल; ए उतरता काळना पांचमा आरामां केg वर्तन आ भरतक्षेत्रे थर्बु जोइए तेने माटे सत्पुरुषोए केटलाक विचारो जणाव्या छे; ते अवश्य जाणवा जेवा छे. एओ पंचमकानुं स्वरूप मुख्य आ भावमां कहे छे. निग्रंथप्रवचनपरथी मनुष्योनी श्रद्धा क्षीण थती जशे. धर्मनां मूळतत्त्वोमां मतमतांतर वधशे. पाखंडी अन प्रपंची मतोनुं मंडन थशे. जनसमूहनी रुचि अधर्म भणी वळशे. सत्यदया हळवे हळवे पराभव पामशे. मोहादिक दोषोनी वृद्धि थती जशे. दंभी अने पापिष्ट गुरुओ पूज्यरुप थशे. दुष्टत्तिनां मनुष्यो पोताना फंदमां फावी जशे. मीठा पण धूर्त्तवक्ता पवित्र पनाशे. शुद्ध ब्रह्मचर्यादिक शीलयुक्त पुरुषो मलिन कहेवाशे. आत्मिकज्ञानना भेदो हणाता जशे; हेतु वगरनी क्रिया वधती जशे. अज्ञानक्रिया बहुधा सेवाशे; व्याकुळ करे एवा विषयोनांसाधनो धतां जशे. एकांतिक पक्षो सत्ताधिश थशे. शृंगारथी धर्म मनाशे. ___ खरा क्षत्रियो विना भूपि शोकग्रस्त थशे. निर्माल्य राजवंशीओ वेश्याना विलासमां मोह पा शे; धर्म, कर्म, अने खरी राजनीति भूली जशे; अन्यायने जन्म आपशे. जेम लुटाशे तेम प्रजाने लूटशे. पोते पापिष्ट आचरणो सेवी प्रजा आगळ ते पळावता जशे. राज Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमकाळ. १२१ बीजने नामे शून्यता आवती जशे . नीच मंत्रियोनी महत्ता वधती जशे. एओ दीनप्रजाने चुसीने भंडार भरवानो राजाने उपदेश आपशे. शीयळभंग करवानो धर्म राजाने अंगीकार करावशे. शौर्यादिक सद्गुणोनो नाश करावशे. मृगयादिक पापमां अंध बनावशे. राज्याधिकारीओ पोताना अधिकारथी हजारगुणी अपदता राखशे. विप्रो लालचु अने लोभी थइ जशे . सद्विद्याने दाटी देशे संसारी साधनोने धर्म ठरावशे. वैश्यो मायावि, केवळ स्वार्थि अने कठोर हृदयना थता जशे समग्र मनुष्यवर्गनी सद्वृत्तियो घटती जशे . अकृत अने भयंकर कृत्यो करतां तेओनी वृत्ति अटक नहीं. विवेक, विनय, सरळता इ० सद्गुणो घटता जशे. अनुकंपाने नामे हीनता थशे. माता करतां पत्निमां प्रेम वधशे; पिता करतां पुत्रमां प्रेम वधशेः पातिवृत्त्य नियमपूर्वक पाळनारी सुंदरीओ घटी जशे स्नानथी पवित्रता गणाशे; धनथी उत्तमकूळ गणाशे. गुरुथी शिष्यो अवळा चालशे भूमिनो रस घटी जशे . संक्षेपमां कवानो भावार्थ के उत्तम वस्तुनी क्षीणता छे, अने कनिष्ठ वस्तुनो उदय छे. पंचमकाळनुं स्वरुप आमांनुं प्रत्यक्ष सूचवन पण केलं बधुं करे छे ! मनुष्य सद्धर्मतत्त्वमां परिपूर्ण श्रद्धावान नहीं थइ शके, संपूर्ण तत्त्वज्ञान नहीं पामी शके; जंबुस्वामीना निर्वाण पछी दश निर्वाणी वस्तु आ भरतक्षेत्रथी व्यवच्छेद गइ. पंचमकाळनुं आवुं स्वरुप जाणीने विवेकी पुरुषो तत्त्वने गृहण करशे, काळानुसार धर्मतत्त्वश्रद्धा पामीने उच्चगति साधी परिणामे मोक्ष साधशे. निग्रंथप्रवचन, निग्रंथ गुरु इ० धर्मतत्त्व पामवामां साधनो छे. एनी आराधनाथी कर्मनी विराधना छे. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा - पुस्तक बीजं• शिक्षापाठ ८२ तत्त्वावबोध भाग १. १२२ दश वैकाळिक सूत्रमां कथन ले के जेणे जीवाजीवना भाव नथी जाण्या ते अबुध संयममां स्थिर केम रही शकशे ? ए वचनामृनुं तात्पर्य एम छे के तमे आत्मा, अनात्मानां स्वरुपने जाणो, ए जाणवानी परिपूर्ण अवश्य छे. आत्मा अनात्मानुं सत्य स्वरुप निग्रंथप्रवचनमांथीज प्राप्त थइ शके छे. अनेक अन्य मतोमां ए वे तत्त्वो विषे विचारो दर्शाव्या छे. पण ते यथार्थ नथी. महा प्रज्ञावंत आचार्योए कलां विवेचन सहित प्रकारांतरे कहेलां मुख्य नवतश्वने विवेकबुद्धिथी जे ज्ञेय करे छे, ते सत्पुरुष आत्मस्वरुपने ओळखी शके छे. स्यादवादशैली अनुपम, अने अनंत भावभेदथी भरेली छे, ए शैलीने परिपूर्ण तो सर्वज्ञ अने सर्वदर्शीज जाणी शके; छतां एओनां वचनामृतानुसार आगम उपयोगथी यथामति नव तत्त्वनुं स्वरुप जाणवुं अवश्यनुं छे. ए नवतव प्रिय श्रद्धा भावे जाणवाथी परम विवेकबुद्धि, शुद्ध सम्यक्त्व अने प्रभाविक आत्मज्ञाननो उदय थाय छे. नव तमां लोकालोकनुं संपूर्ण स्वरुप आवी जाय छे. जे प्रमाणे जेनी बुद्धिनी गति छ, ते प्रमाणे तेओ तत्त्वज्ञान संबंधी द्रष्टि पहचाडे छे, अने भावानुसार तेओना आत्मानी उज्वळता थाय छे. ते वडे तेओ आत्मज्ञाननो निर्मळ रस अनुभवे छे. जेनुं तत्वज्ञान उत्तम अने सूक्ष्म छे तेमज सुशीलयुक्त जे तत्वज्ञानने सेवे छे ते पुरुष महभागी छे. 1 ए नवतत्वनां नाम आगळना शिक्षापाठमां हुं कही गयो छु, एनुं विशेष स्वरूप प्रज्ञावंत आचार्यांना महान् ग्रंथोथी अवश्य मेळ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वावबोध भाग २. वईं; कारण सिद्धांतमा जे जे कयुं छे, ते ते विशेष भेदथी समजवा माटे सहायभूत प्रज्ञावंत आचार्यविरचित ग्रंथो छे. ए गुरुगम्यरुप पण छे. नय, निक्षेपा अने प्रमाणभेद नवतत्वनां ज्ञानमा अवश्यनां छे, अने तेनी यथार्थ समजण ए प्रज्ञावंतोए आपी छे. शिक्षापाठ ८३ तत्त्वावबोध भाग २. सर्वज्ञ भगवाने लोकालोकना संपूर्ण भाव जाण्या अने जोया तेनो उपदेश भव्य लोकोने को. भगवाने अनंत ज्ञानवडे करीने लोकालोकनां स्वरुप विषेना अनंत भेद जाण्या हता; परंतु सामान्य मानवियोने उपदेशथी श्रेणिए चढवा मुख्य देखाता नव पदार्थ तेओए दर्शाव्या. एथी लोकालोकना सर्व भावनो एमां समावेश थइ जाय छे. निग्रंथप्रवचननो जे जे सूक्ष्म बोध छे, ते तत्वनी द्रष्टिए नवतत्वमा समाइ जाय छे तेमज सघळा धर्ममतोना सूक्ष्म विचार ए नवतत्व विज्ञानना एक देशमां आवी जाय छे. आत्मानी जे अनंत शक्तियो ढंकाइ रही छे तेने प्रकाशित करवा अहंत भगवाननो पवित्र बोध छे ए अनंत शक्तियो त्यारे प्रफुल्लित थइ शके के ज्यारे नवतत्व विज्ञानमां पारावार ज्ञानी थाय. सूक्ष्म द्वादशांगी ज्ञान पण ए नवतत्व स्वरुप ज्ञानने सहायरुप छे. भिन्न भिन्न प्रकारे ए नवतत्वस्वरुप ज्ञाननो बोध करे छे एथी आ निःशंक मानवा योग्य छे के नवतत्व जेणे अनंतभाव भेदे जाण्यां ते सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी थयो. ए नवतत्व त्रिपदीने भावे लेवा योग्य छे. हेय, ज्ञेय अने उपादेय एटले त्याग करवा योग्य, जाणवा योग्य अने ग्रहण करवा योग्य एम त्रण भेद नवतत्व स्वरुपना विचारमा रहेला छे. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. प्रश्नः-जे त्यागवारुप छे तेने जाणीने करवू शुं ? जे गाम न जवं तेनो मार्ग शा माटे पूछवं ? उत्तरः-ए तमारी शंका सहजमां समाधान थइ शके तेवी छे. त्यागवारुप पण जाणवा अवश्य छे. सर्वज्ञ पण सर्व प्रकारना प्रपंचने जाणी रह्या छे. त्याग वारुप वस्तुने जाणवानुं मूळतत्व आ छे के जो ते जाणी न होय तो अत्याज्य गणी कोइ वखत सेवी जवाय; एक गामथी बीजे पहाचतां सुधी वाटमा जे जे गाम आववानां होय तेनो रस्तो पण पृछवो पडे छे नहीं तो ज्यां जवानुं छे त्यां न पहोंची शकाय. " गाम जेम पूछयां पण त्यां वास कया नहीं. तेम पापादिक तत्वो जाणवां पण ग्रहण करवां नहीं. जेम वाटमां आवतां गामनो त्याग कर्यो तेम तेनो पण त्याग करवो अवश्यनो छे. शिक्षापाठ ८४ नत्त्वावबोध भाग ३. नवतत्वनुं काळभेदे जे भत्पुरुषो गुरुगम्यताथी श्रवण, मनन अने निदिध्यासनपूर्वक ज्ञान ले छे, ते सत्पुरुषो महा पुण्यशाली तेमज धन्यवादने पात्र छे. प्रत्येक सुज्ञपुरुषोने मारी विनयभावभूषित एज बोध छे के नवतत्वने स्वबुद्धयानुसार यथार्थ जाणवां. __महावीर भगवंतनां शासनमां बहु मतमतांतर पडी गयां छे, तेनुं मुख्य कारण तत्वज्ञान भणीथी उपास्यक वर्ग- लक्ष गजु ए छे मात्र क्रियाभावपर राचता ह्या; जेनुं परिणाम दृष्टिगोचर छे. अंग्रेजोनी शोधमां आवेली पृश्विनी वस्ति एक अबज अने चाळीश करोडनी गणाई छे तेमां सर्व गच्छनी मळीने जैनप्रजा मात्र वीश लाख छ. ए प्रजा ते श्रमणोपासक छे, एमांथी हुं धारूंछ के नव Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वावबोध भाग ४. १२५ तत्वने पठनरुपे बेहजार पुरुषो पण मांड जाणता हशे, मनन अने विचारपूर्वक तो आंगळीने टेरवे गणी शकीए तेटला पुरुषो पण नहीं हशे . ज्यारे आवी पतित स्थिति तत्वज्ञान संबंधी थइ गइ छे त्यारेज मतमतांतर वधी पडया छे. एक लौकिक कथन छे के " सो शाणे एक मत तेम" अनेक तत्वविचारक पुरुषोना मतमां भिन्नता बहुधा आवती नथी. ए नवतत्व विचार संबंधी प्रत्येक मुनिओने मारी विज्ञप्ति छे विवेक ने गुरुगम्यताथी एनुं ज्ञान विशेष वृद्धिमान करवु एथी तेओनां पवित्र पंचमहाव्रत द्रढ थशे; जिनेश्वरनां वचनामृतना अनुपम आनंदनी प्रसादि मळशे; मुनित्व आचार पाळवामां सरळ थइ पडशे. ज्ञान अने क्रिया विशुद्ध रहेवाथी सम्यक्त्वनो उदय थशे; परिणामे भवांत थइ जशे . शिक्षापाठ ८५ तत्वावबोध भाग ४. जे जे श्रमणोपासक नवतत्व पठनरुप पण जाणता नथी तेओए ते अवश्य जाणवां. जाण्या पछी बहु मनन करवां. समजाय तेटला गंभिर आशय गुरुगम्यताथी सद्भावे करीने समजवा. एथी आत्मज्ञान उज्वळता पामशे, अने यमनियमादिकनुं बहु पालन थशे. नवतत्व एटले तेनुं एक सामान्यगुंथनयुक्त पुस्तक होय ते नहीं; परंतु जे जे स्थळे जे जे विचारो ज्ञानीओए प्रणीत कर्या छे, ते ते विचारो नवतत्वमांना अमुक एक बे के विशेष तत्वना होय छे. केवळी भगवाने ए श्रेणिओथी सकळ जगत्मंडळ दर्शावी दीधुं छे, एथी जेम जेम नयादि भेदथी ए तत्वज्ञान मळशे तेम तेम अपूर्व आनंद अने निर्मळतानी प्राप्ति थशे; मात्र विवेक, गुरुगम्यता अने Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजु. अप्रमाद जोइए. ए नवतत्वज्ञान मने बहु प्रिय छे. एना रसानुभवियो पण मने सदैव प्रिय छे. ___ काळभेदे करीने आ बखते मात्र मति अने श्रुत ए वे ज्ञान भरतक्षेत्रे विद्यमान छे; बाकीनां त्रण ज्ञान व्यवच्छेद छे छतां जेम जेम पूर्णश्रद्धाभावथी । नवतत्वज्ञानना विचारोनी गुफामां उतराय छे, तेम तेम तेना अंदर अद्भुत आत्मप्रकाश, आनंद, समर्थ तत्त्वज्ञाननी स्फूरणा, उत्तम विनोद अने गंभिर चळकाट दिंग करी दइ शुद्ध सम्यक ज्ञाननो ते विचारो वहु उदय करे छे. स्याद्वादवचनामृतना अनंत सुंदर आशय समजवानी शक्ति आ काळमां आ क्षेत्रथी विच्छेद गयेली छतां ते परत्वे जे जे सुंदर आशयो समजाय छे ते ते आशयो अति अति गंभिर तत्त्वथी भरेला छे. पुनः पुनः ते आशयो मनन कराय तो चार्वाकमतिना चंचळ मनुष्यने पण सद्धर्ममा स्थिर करी दे तेवा छ. संक्षेपमा सर्व प्रकारनी सिद्धि, पवित्रता, महाशील, निर्मळ उंडा अने गंभिर विचार, स्वच्छ वैराग्यनी भेट ए तत्त्वज्ञानथी मळे छे. - - शिक्षापाठ ८६ तत्वावबोध भाग ५, एकवार एक समर्थ गिद्वान साथे निग्रंथप्रवचननी चमत्कृति संबंधी वातचित थइ; तेना संबंधमां ते विद्वाने जणाव्यु के आटलं हुँ मान्य राखुं छं के महावीर ए एक समर्थ तत्वज्ञानी पुरुष हता; एमणे जे बोध कर्यो छे, से झीली लइ प्रज्ञावंत पुरुषोए अंग उपांगनी योजना करी छे ते ना जे विचारो छे ते चमत्कृति भरेला छे; परंतु ए उपरथी लोकालोकनुं ज्ञान एमां रयुं छे एम हुं कही न शकुं. एम छतां जो तमे भाइ ए संबंधी प्रमाण आपता हो तो Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरबावबोध भाग ६. १२७ हुँ ए वातनी कंइ श्रद्धा लावी शकुं. एना उत्तरमा में एम कयु के हुं कंइ जैन वचनामृतने यथार्थ तो शुं पण विशेष भेदे करीने पण जाणतो नथी; पण जे सामान्य भावे जाणुं छु एथी पण प्रमाण आपी शकुं खरो. पछी नवतत्त्वविज्ञान संबंधी वातचित नीकळी. में कह्यु: एमां आखी सृष्टिनुं ज्ञान आवी जाय छे, परंतु यथार्थ समजवानी शक्ति जोइए. पछी तेओए ए कथननुं प्रमाण मांग्युं, त्यारे आठ कर्म में कही बताव्यां; तेनी साथे एम सूचव्युं के ए शिवाय एनाथी भिन्न भाव दर्शावे एवं नवमुं कर्म शोधी आपो; पापनी अने पुण्यनी प्रकृतियो कहीने कह्यु. आ शिवाय एक पण वधारे प्रकृति शोधी आपो. एम कहेतां अनुक्रमे वात लीधी. प्रथम जीवना भेद कही पूछ्युं एमां कंइ न्यूनाधिक कहेवा मांगो छो ? अजीवद्रव्यना भेद कही पूछयु. कंइ विशेषता कहो छो ? एम नव तत्त्वसंबंधी वातचित थइ त्यारे तेओए थोडीवार विचार करीने कह्यु: आतो महावीरनी कहेवानी अद्भुत चमत्कृति छे के जीवनो एक नवो भेद मळतो नथी, तेम पापपुण्यादिकनी एक प्रकृति विशेष मळती नथी; अने नवमुं कर्म पण पळतुं नथी. आवां आवां तत्त्वज्ञाननां सिद्धांतो जैनमा छे ए मारुं लक्ष नहोतुं. आमां आखी {ष्टिनुं तत्त्वज्ञान केटलेक अंशे आवी शके खलं. शिक्षापाठ ८७ तत्वावबोध भाग ६. एनो उत्तर आ भणीथी एम थयो के हजु आप आटलं कहो छो ते पण जैनना तत्त्वविचारो आपना हृदये आव्या नथी त्यां सुधी; परंतु हुं मध्यस्थताथी सत्य कहुं छं के एमां जे विशुद्धज्ञान बताव्युं छे ते क्यांय नथी; अने सर्व मतोए जे ज्ञान बताव्युं छे Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ मोक्षमाळा - पुस्तक बीजं• ते महावीरना तत्त्वज्ञानना एक भागमां आवी जाय छे. एनुं कथन स्याद्वाद छे, एक पक्षी नथी, तमे कछु के केटलेक अंशे सृष्टिनुं तत्वज्ञान एमां आवी शके खरं; परंतु ए मिश्रवचन छे. अमारी समजाववानी अल्पज्ञताथी एम बने खरं, परंतु एथी ए तोमां कंइ अपूर्णता छे एम तो नथीज, आ कंइ पक्षपाती कथन नधी. विचार करी आखी सृष्टिमांथी. ए शिवायनुं एक दशमं तत्वं शोधतां कोइ काळे ते मळनार नथी. ए संबंधी प्रसंगोपात आपणे ज्यारे वातचित अने मध्यस्थ चर्चा थाय त्यारे निःशंकता थाय. 44 उत्तरमा तेओए कछु के आ उपरथी मने एम तो निःशंकता छेके जैन अद्भुत दर्शन श्रेणिपूर्वक तमे मने केटलाकं नवतत्वना भाग कही बताव्य एथी हुं एम बेधडक कही शकुं छं के महावीर गुप्तभेदने पामेला पुरुष हता. एम सहजमाज वात करीने " उपन्नेवा, “ विघनेवा " " धुवेवा " ए लब्धिवाक्य मने तेओए कं. ते कही बताव्या पर्छ । तेओए एम जणाव्युं के आ शब्दोना सामान्य अर्थमां तो कंइ चमत्कृति देखाती नथीः उपजबुं नाश थ अने अचळता, एम ए त्रण शब्दोना अर्थ छं. परंतु श्रीमान गणधरोए तो एम दर्शित कर्यु छे के ए वचनो गुरुमुखथी श्रवण करतां आगळना भाविक शिष्योने द्वादशांगीनुं आशयभरित ज्ञान थतुं हतुं ? ए माटे में कंइक विचारो पहोंचाडी जोया छतां मने तो एम लाग्युं के ए बनवुं असंभवित छे, कारण अति अति सूक्ष्म माने सिद्धांतिक ज्ञान एपां क्यांथी समाय ? ए संबंधी तमे कंइ लक्ष पहोंचाडी शकशो ? 生 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वावबोध भाग ७० १२९ शिक्षापाठ ८८ तत्त्वावबोध भाग ७. उत्तरां में कछु के आ काळमां त्रण महाज्ञान भारतथी विच्छेद छे; तेम छतां हुं कइ सर्वज्ञ के महाप्रज्ञावंत नथी छतां मारुं जेटलं सामान्य लक्ष पहोंचे तेटलं पहोंचाडी कंइ समाधान करी शकीश एम मने संभव रहे छे. त्यारे तेमणे कः जो तेम संभव तो होय तो ए त्रिपदी जीवपर "ना" ने "हा" विचारे उतरो. ते एम के जीव शुं उत्पत्तिरुप छे ? तो के ना. जीव शुं विघ्नतारुप छे? तो के ना. जीव शुं ध्रुवतारुप छे ? तो के ना. आम एक बखत उतारो अने बीजी वखत जीव शुं उत्पत्तिरूप छे ? तो के हा. जीव शुं विघ्नतारुप छे ? तो के हा. जीव शुं ध्रुवतारुप छे ? तो के हा. आम उतारो. आ विचारो आखा मंडळे एकत्र करी योज्या छे. ए जो यथार्थ कही न शकाय तो अनेक प्रकारथी दूषण आवी शके. विघ्नरूपे होय ए वस्तु ध्रुव रूपे होय नहीं, ए पहेली शंका. जो उत्पत्ति, विघ्नता अने ध्रुवता नथी तो जीव कयां प्रमाणथी सिद्ध करशो ? ए वीजी शंका. विघ्नता अने ध्रुवताने परस्पर विरोधाभास ए त्रीजी शंका. जीव केवळ ध्रुव छे तो उत्पत्तिमां हा कही ए असत्य. ए चोथो विरोध. उत्पन्न जीवनो ध्रुव भाव कहो तो उत्पन्न कोणे कर्यो ? ए पांचमी शंका अने विरोध. अनादिपशुं जतुं रहे छे ए छड़ी शंका. केवळ ध्रुव विघ्नरुपे छे एम कहो तो चार्वाकमिश्र वचन थयुं ए सातमो दोष. उत्पत्ति अने विघ्नरुप कहेशो तो केवळ चार्वाकनो सिद्धांत ए आठमो दोष. उत्पत्तिनी ना, विघ्नतानी ना अने ध्रुवतानी ना कही पछी त्रणेनी हा कही एना वळी पाछा छ दोष. एटले सर्वाळे चौद दोष. केवळ ध्रुवता जतां तीर्थंकरनां वचन त्रुटी जाय ए Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० मोक्षमाळा- पुस्तक बीजं. पंदरमो दोष. उत्पत्ति ध्रुवता लेतां कर्त्तानी सिद्धि थाय जेथी सर्वज्ञ वचन त्रुटी जाय ए सोळमो दोष. उत्पत्ति विघ्नता रुपे पापपुण्यादिकनो अभाव एटले धर्माधर्म सघळं गयुं ए सत्तरमो दोष. उत्पत्ति, विघ्नता अने सामान्य स्थितिथी ( केवळ अचळ नहीं ) त्रिगुणात्मक माया सिद्ध थाय छे ए अढारमो दोष. शिक्षापाठ ८९ तत्त्वावबोध भाग ८. एटला दोष ए कथनो सिद्ध न थतां आवे छे. एक जैनमुनिए मने अने मारा मित्रमंडळने एम कां हतुं के जैनसप्तभंगी नय अपूर्व छे, अने एथी सर्व पदार्थ सिद्ध थाय छे. नास्ति, अस्तिना एमां अगम्यभेद रह्या छे. आ कथन सांभळी अमे बधा घेर आव्या पछी योजना करता करतां आ लब्धिवाक्यनी जीवपर योजना करी. हुं धारं छं के एवी नास्ति अस्तिना बन्ने भाव जीवपर नहि उतरी शके. लब्धिवाक्यो पण क्लेशरूप थइ पडशे. तोपण ए भणी मारी कंइ तिरस्कारनी द्रष्टि नथी. आना उत्तरमां अमे कयुं के आपे जे नास्ति अने अस्ति नय जीवपर उतारवा धार्यों ते सनिक्षेप शैलीथी नथी, एटले वखते माथी एकांतिक पक्ष लेइ जवाय; तेम वळी हुं कंइ स्याद्वाद शैलीनो यथार्थ जाणनार नथी, मंदमतिथी लेश भाग जाणुं हुं. नास्ति अस्ति नय पण आपे यथार्थ शैली पूर्वक उतार्यो नथी. एटले हुं तर्कथी जे उत्तर दइ शकुं ते आप सांभळो. उत्पत्तिमां "ना" एवी जे योजना करी छे ते एम यथार्थ थइ शके के "जीव अनादि अनंत छे." Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१. तत्त्वावबोध भाग ९. , विघ्नतामां "ना" एवी जे योजना करी छे ते एम यथार्थ थइ शक के "एनो कोइ काळे नाश नथी." । ध्रुवतामा "ना" एवी जे योजना करी छे ते एम यथार्थ थइ शके के "एक देहमां ते सदैवने माटे रहेनार नथी." शिक्षापाठ ९० तत्त्वावबोध भाग ९. उत्पत्तिमां "हा" एवी जे योजना करी छे ते एम यथार्थ थइ शके के "जीवनो मोक्ष थया सुधी एक देहमांथी च्यवन पामी ते. बीजा देहमां उपजे छे." विघ्नतामां "हा" एवी जे योजना करी छे ते एम यथार्थ यह शके के " ते जे देहमांथी आव्यो त्यांथी विघ्न पाम्यो वा क्षण क्षण प्रति एनी आत्मिक ऋद्धि विषयादिक मरणवडे रुंधाई रही छे, ए रुपे विघ्नता योजी शकाय छे." ध्रुवतामा "हा" एवी जे योजना कही छे ते एम यथार्थ थइ शके के "द्रव्ये करी जीव कोइ काळे नाशरुप नथी, त्रिकाळ सिद्ध छे." ___हवे एथी करीने एटले ए अपेक्षाओ लक्षमा राखतां योजेला दोष पण हुं धारु छ के टळी जशे. १. जीव विघ्नरुपे नथी माटे ध्रुवता सिद्ध थइ. ए पहेलो दोष टळ्यो. २. उत्पत्ति, विघ्नता अने ध्रुवता ए भिन्न भिन्न न्याये सिद्ध थइ एटले जीवनुं सत्यत्व सिद्ध थयु ए बीजो दोष गयो. । ३. जीवनां सत्यस्वरुपे ध्रुवता सिद्ध थइ.एटले विघ्नता गइ. ए त्रीजो दोष गयो. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. ४. द्रव्य भावे जीवनी उत्पत्ति असिद्ध थइ ए चोथो दोष गयो. ५. अनादि जीव सिद्ध थयो एटले उत्पत्ति संबंधीनो पांचमो दोष गयो. ६. उत्पत्ति असिद्ध थइ एटले कर्ता संबंधीनो छठो दोष गयो. ७. ध्रुवता साथे विघ्नता लेतां अबाध थयुं एटले चार्वाक मिश्रवचननो सातमो दोष गयो. ८. उत्पत्ति अने विघ्नता प्रथक् प्रथक् देहे सिद्ध थइ माटे केवळ चार्वाकसिद्धांत ए नामनो आठमो दोष गयो. १४. शंकानो परस्परनी विरोधाभास जतां चौद सुधीना दोष गया. १५. अनादि अनंतता सिद्ध थतां स्याद्वादवचन सत्य थयु ए पंदरमो दोष गयो. १६. कर्ता नथी ए सिद्ध थतां जिनवचननी सत्यता रही ए सोळमो दोष गयो. १७. धर्माधर्म, देहादिक पुनरावर्तन सिद्ध थतां सत्तरमो दोष गयो. . १८. ए सर्व वात सिद्ध थतां त्रिगुणात्मक माया असिद्ध थइ ए अढारमो दोष गयो. शिक्षापाठ ९१ तत्त्वावबोध भाग १०. आपनी योजेली योजना हुँ धाएं छु के आथी समाधान पामी हशे. आ कंइ यथार्थ शैली उतारी नथी, तोपण एमां कंइ पण विनोद मळी शके तेम छे. ए उपर विशेष विवेचनने माटे बोहोळो वखत जोइए एटले वधारे कहतो नथी; पण एक बे टुंकी वात आपने कहेवानी छे ते जो आ समाधान योग्य थयुं होय तो कहुं. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वावबोध भाग १०. पछी तेओ तरफथी मनमानतो उत्तर मल्यो, अने एक बे वात जे कहेवानी होय ते सहर्ष कहो एम तेओए कहूं. __पछी में मारी वात संजीवन करी लब्धि संबंधी कह्यु, आप ए लब्धि संबंधी शंका करो के एने क्लेशरुप कहो तो ए वचनोने अन्याय मळे छे. एमां अति अति उज्वळ आत्मिक शक्ति गुरुगम्यता अने वैराग्य जोइए छीए. ज्यां सुधी तेम नथी, त्यां सुधी लब्धि विष शंका रहे खरी; पण हुं धारूं छु के आ वेळा ए संबंधी कहेला बे बोल निरर्थक नहीं जाय. ते ए के जेम आ योजना नास्ति अस्तिपर योजी जोइ, तेम एमां पण बहु सूक्ष्म विचार करवाना छे. देहे देहनी पृथक् पृथक् उत्पत्ति, च्यवन, विश्राम, गर्भाधान, पर्याप्ति, इंद्रिय, सत्ता, ज्ञान, संज्ञा आयुष्य विषय इ. अनेक कर्मप्रकृति प्रत्येक भेदे लेतां जे विचारो ए लब्धिथी नीकळे ते अपूर्व छे. ज्यां सुधी लक्ष पहोंचे त्यां सुधी सघळा विचार करे छे. परंतु द्रव्यार्थिक भावार्थिक नये आखी सृष्टिनुं ज्ञान ए त्रण शब्दोमा रहुं छे, तेनो विचार कोइज करे छे; ते सद्गुरु मुखनी पवित्र लब्धिरुपे ज्यारे आवे त्यारे द्वादशांगी ज्ञान शा माटे न थाय? जगत् एम कहेतांज मनुष्य एक घर, एक वास, एक गाम, एक शेहेर, एक देश, एक खंड एक पृथ्वि ए सघल्लं मूकी दइ असंख्यात द्वीप समुद्रादिथी भरपूर वस्तु केम समजी जाय छे ? एनुं कारण मात्र एटलुंज के ते ए शब्दनी बहोळताने समज्युं छे, किंवा एनुं लक्ष एवी अमुक बहोळताए पहोंच्यु छे; जेथी जगत् एम कहेता एवडो मोटो मर्म समजी शके छे तेमज ऋजु अने सरळ सत्पात्र शिष्यो निग्रंथ गुरुथी ए त्रण शब्दोनी गम्यता लइ द्वादशांगी ज्ञान पामता हता. आवी रीते ते लब्धि अल्पज्ञता छतां विवेके जोतां क्लेशरुप पण नथी.. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. शिक्षापाठ ९२ तत्त्वावबोध भाग ११. एमज नवतत्त्व संबंधी छे. जे मध्य वयना क्षत्रियपुत्रे "जगत" अनादि छे, एम बेधडक कही कर्त्ताने उडाडयो हशे, ते ते पुरुषे शुं कंइ सर्वज्ञताना गुप्त भेद विना कयु हशे ? तेम एनी निर्दोषता विषे ज्यारे आप वांचशो त्यारे निश्चय एवो विचार करशो के ए परमेश्वर हता. कर्ता नहोता अने जगत् अनादि हतुं तो तेम कर्दा. एना अपक्षपाति अने केवळ तत्वमय विचारो आपे अवश्य विशोधवा योग्य छे. जैन दर्शनना अवर्णवादीओ जैनने नथी जाणता एटले एने अन्याय आपे छे, ने ममत्वथी अधोगति सेवशे. ___ आ पछी केटलीक वातचित थइ. प्रसंगोपात ए तत्व विचारवानुं वचन लइने सहर्ष अमारुं त्यांथी उठवू थयु. .. तस्वावबोधना संबंधमां आ कथन कहेवायु. अनंतभेदथी भरेला ए तत्त्व विचारो काळभेदी जेटला ज्ञेय थाय तेटला जाणवा; ग्राह्य थाय तेटला ग्रहवा; अने त्याज्य देखाय तेटला त्यागवा. एतत्वीने जे यथार्थ जाणं छे ते अनंत चतुष्टयिथी विराजमान थाय छे ए सत्य समजवू; ए नवतत्वनां क्रमवार नाम मूकवामां पण अरधुं सूचवन जीवने मोक्षनी निकटतानुं जणाय छे ! शिक्षापाठ ९३ तत्त्वावबोध भाग १२. एतो तमारा लक्षमा छे के जीव अजीव ए अनुक्रमथी छेवटे मोक्ष नाम आवे छे. हवे ते एक पछी एक मूकी जइए तो जीव अने मोक्षने अनुक्रमे आयंत रहे पडशे. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वावबोध भाग १२. . १३५ AAAAAAA जीव अजीव. पुण्य. . पाप. आश्रव. संवर. निर्जरा, बंध. मोक्ष. आगळ कहेवायुं छे के, ए नाम मूकवामां जीव अने मोक्षने निकटता छे. छतां आं निकटता तो न थइ? पण जीव अने अजीवने निकटता थइ. वस्तुतः एम नथी. अज्ञानवडे तो ए बनेनेज निकटता रही छे पण ज्ञानवडे जीव अने मोक्षने निकटता रही छे जेमके: | अजीव आश्रव नवतत्वनामकचक्र. मोक्ष / वश . हवे जुओ ए बनेने कंइ निकटता आवी छे ? हा कहेली निकटता आवी गइ छे. पण ए निकटता तो द्रव्यरुप छे. ज्यारे Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ मोक्षमाला - पुस्तक बीजं. भावे निकटता आवे त्यारे सर्व सिद्धि थाय. ए द्रव्य निकटतानुं साधन सत्परमात्मतत्व, सद्गुरुतत्व अने सद्धर्मतत्व ओळखी सर्द ए छे. भावनिकटता एटले केवळ एकज रूप थवा ज्ञान, दर्शन अने चारित्र साधनरूप छे. ए चक्रथी एवी पण आशंका थाय के ज्यारे बन्ने निकट छे त्यारे शुं वाकीनां त्यागवां ? उत्तरमां कहेवानुं के जो सर्व त्यागी शकता हो तो त्यागी यो एटले मोक्षरूपज थशो. नहि तो हेय, ज्ञेय, उपादेयनो बोध ल्यो, एटले आत्मसिद्धि प्राप्त थशे. शिक्षापाठ ९४ तत्त्वावबोध भाग १३. जे जे कहेवायुं छे ते ते कंइ केवळ जैनकुळथी जन्म पामेला पुरुषने माटे नथी, परंतु सर्वने माटे छे. तेम आ पण निःशंक मानजी के जे कंइ कहेवाय छे ते अपक्षपाते अने परमार्थबुद्धिथी कहेवाय छे. तमने जे धर्मतत्व कहेवानुं छे, ते पक्षपात के स्वार्थबुद्धिथी कहेवानुं अमने कंइ प्रयोजन नथी; पक्षपात के स्वार्थथी तमने अधर्मत्व बोधी अमे अधोगतिने शा माटे साधिये ? वारंवार तमने निग्रंथनां वचनामृतो माटे कहवाय छे, तेनुं कारण ते वचनामृतो तत्वमां परिपूर्ण छे, ते छे. जिनेश्वरोने एवं कोइ पण कारण नहोतुं के ते निमित्ते तेओ मृषा के पक्षपाती बोधे; तेम एओ अज्ञानी नहता, के एथी मृषा बोधाइ जवाय. आशंका करशो के ए अज्ञानी होता एशा उपरथी जणाय ? तो तेना उत्तरमां एओना पवित्र सिद्धांतोनां रहस्यने मनन करवानुं कहिये छीए. अने एम जे करश ते तो पुनः आशंका लेश पण नहीं करे. जैनमत प्रवर्त्तका प्रति अमारे Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त वावबोध भाग १४. १३७ कंइ राग बुद्धि नथी, के ए माटे पक्षपाते अमे कंइ पण तमने कहिये; तेमज अन्यमत प्रवर्त्तकोप्रति अमारे कई वैरबुद्धि नथी के मिथ्या एनुं खंडन करिये. बन्नेमां अमे तो मंदमति मध्यस्थरुप छिए. बहु बहु मननथी अने अमारी मति ज्यां सुधी पहोंची त्यां सुधीना विचारथी अमे विनयथी कहीये छीए, के प्रिय भव्यो ! जैन जेवुं एके पूर्ण अने पवित्र दर्शन नथी, वीतराग जेवो एके देव नथी, तरीने अनंत दुःखथी पार पामनुं होय तो ए सर्वज्ञ दर्शनरूप कल्पवृक्षने सेवो. शिक्षापाठ ९५ तत्त्वावबोध भाग १४. जैन ए एटली बधी सूक्ष्म विचारसंकळनाथी भरेलुं दर्शन छे के एमां प्रवेश करतां पण बहु वखत जोइए. उपर उपरथी के को प्रतिपक्षीना कहेवाथी अमुक वस्तु संबंधी अभिप्राय बांधवो के आपको ए विवेकीनुं कर्त्तव्य नथी. एक तळाव संपूर्ण भर्यु होय, तेनुं जळ उपरथी समान लागे छे; पण जेम जेम आगळ चालीए छीए तेम तेम वधारे वधारे उंडापणुं आवतुं जाय छे; छत उपर तो जळ सपाटज रहे छे; तेम जगत्ना सघळा धर्ममतो एक तळाव रूप छे, तेने उपरथी सामान्य सपाटी जोड़ने सरखा कही देवा ए उचित नथी. एम कहेनारा तत्त्वने पामेला पण नथी. जैनना अक्का पवित्र सिद्धांतपर विचार करतां आयुष्य पूर्ण थाय, तो पण पार पमाय नहीं तेम रहुं छे. बाकीना सघळा धर्ममतोना विचार जिनप्रणीत वचनामृतसिंधु आगळ एक बिंदुरुप पण नथी. जैनमत जेणे जाण्यो, अने सेव्यो ते केवळ निरागी अने सर्वज्ञ थइ जाय छे. एना प्रवर्त्तको केवा पवित्र पुरुषो हता ! Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ मोक्षमाला-पुस्तक बीजूं. एना सिद्धांतो केवा अखंड संपूर्ण अने दयामय छे ! एमां दूषण तो कांइ छेज नहि ! केवळ निर्दोष तो मात्र जेनुं दर्शन छे ! एवो एके पारमार्थिक विषय नथी के जे जैनमां नहीं होय अने एवं एक्के तत्त्व नथी के जे जैनमां नी; एक विषयने अनंनभेदे परिपूर्ण कहेनार ते जैनदर्शन छे. प्रयोजन भूततत्त्व एना जेवू क्यांय नथी. एक देहमांबे आत्मा नथी; तेम आखी सृष्टिमांबे जन एटले जैननी तूल्य बीजु दर्शन नथी. आम कहेवानुं कारण शुं ? ते मात्र तेनी परिपूर्णता, निरागीता, सत्यता अने जगद् हितैषिता. - शिक्षापाठ ९६ तत्त्वावबोध भाग १५. ___ न्यायपूर्वक आटलं अमारे पण मान्य राखq जोइए के ज्यारे एकदर्शनने परिपूर्ण कही वात सिद्ध करवी होय त्यारे प्रतिपक्षनी मध्यस्थ बुद्धिथी अपूर्णता दीववी जोइए. पण ए बे वातपर विवेचन करवा जेटली अहीं जग्यो नथी; तो पण थोडं थोडं कहेता आव्या छीए. मुख्यत्वे कहेवान के ए वात जेने रुचिकर थती न होय के असंभवित लागती होय तेणे जैनतत्त्वविज्ञानी शास्त्रो अने अन्य तत्त्वविज्ञानी शास्त्रो मध्यस्थ बुद्धिथी मनन करी न्यायने कांटे तोलन करवू. ए उपरथी अवश्य एटलं महावाक्य नीकळशे, के जे आगळ नगारापर डांडी ठोकीने कहेवायुं हतुं ने खरुं छे. __ जगत् गाडरियो प्रवाह छे. धर्मना मतभेद संबंधीना शिक्षापाठमां दर्शाव्या प्रमाणे अनेक धर्ममतनी जाल लागी पडी छे. विशुद्ध आत्मा कोइकज थाय छे. विवेकथी तत्त्वने कोइकज शोधे छे. एटले जैन तत्त्वने अन्यदर्शनियां सा माटे जाणता नथी ए खेद के आशंका करवा जेवूज नथी. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वावबोध भाग १६. १३९ छता अमने बहु आश्चर्य लागे छे के केवळ शुद्ध परमात्मतत्त्वने पामेला, सकळ दूषणरहित, मृषा कहेवानुं जेने कंइ निमित्त नथी एवा पुरुषनां कहेलां पवित्र दर्शनने पोते तो जाण्यु नहि, पोताना आत्मानुं हित तो कर्यु नहीं, पण अविवेकथी मतभेदमा आवी जइ केवळ निर्दोष अने पवित्र दर्शनने कहेनाराओए नास्तिक शा माटे कडं हशे ? पण ए कहेनारा एनां तत्त्वने जाणता नहोता. वळी एनां तत्त्वने जाणवाथी पोतानी श्रद्धा फरशे, त्यारे लोको पछी पोताना आगळ कहेला मतने गांठशे नहीं; जे लौकिक मतमा पोतानी आजीविका रही छे, एवा वेदादिनी महत्ता घटाडवाथी पोतानी महत्ता घटशे; पातानुं मिथ्या स्थापित करेलुं परमेश्वर पद चालशे नहीं. एथी जैनतत्वमा प्रवेश करवानी रुचिने मूळथीज बंध करवा लोकोने एवी भ्रमभुरकी आपी के जैन नास्तिक छे. लोको तो बिचारा गभरुगाडर छे एटले पछी विचार पण क्याथी करे ? ए कहेवू केटलं मृषा अने अनर्थकारक छे ते जेणे वीतराग प्रणीत सिद्धांतो विवेकथी जाण्या छे, ते जाणे. अमारूं कहेवू मंद बुद्धिओ वखते पक्षपातमा लई जाय. शिक्षापाठ ९७ तत्त्वावबोध भाग १६. - पवित्र जैन दर्शनने नास्तिक कहेवरावनाराओ एक मिथ्या दलीलथी फाववा इच्छे छे, के जैनदर्शन आ जगत्ना कर्त्ता परमेश्वरने मानतुं नथी. अने जगत्कर्ता परमेश्वरने जे नथी मानता ते तो नास्तिकज छे, एवी मानी लीधेली वात भद्रिकजनोने शीघ्र चोंटी रहे छे. कारण तेओमां यथार्थ विचार करवानी प्रेरणा नथी. पण जो ए उपरथी एम विचारवामां आवे के सारे जैन Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाला-पुस्तक बीजं. जगत्ने अनादि अनंत कहे २ ते कन्या न्यायथी कहे छे ? जगत्कर्ता नथी एम कहेवामां एमनुं निमित्त शुं छे ? एम एक पछी एक भेदरुप विचारथी तेओ जैन नी पवित्रतापर आवी शके. जगत् रचवानी परमेश्वरने अवश्य यी हती ? रच्यु तो सुख दुःख मूकवार्नु कारण शुं हतुं ? रचीने मोत शा माटे मूक्युं ? ए लीला कोने बताववी हती ? रच्यु तो कयां कर्मथी रच्युं ? ते पहेला रचवानी इच्छा कां नहोती ? इश्वर कोण ? जगत्ना पदार्थ कोण ? अने इच्छा कोण ? रच्यु तो जगहमां एकज धर्मनुं प्रवर्तन राखq हतुं आम भ्रमणामां नाखवानी अवश्य शी हती ? कदापि एम मानो के ए बिचारानी भूल थइ हशे ! क्षमा करीए ! पण एवं दोढ डहापण क्यांथी मूज्यु के एनेज मूळथी उखेडनार एवा महावीर जेवा पुरुषोने जन्म आप्यो ? एवानां कहेलां दर्शनने जगत्मां विद्यमानता कां आपी ? पोत ना पगपर हाथे करीने कुहाडो मारवानी एने शुं अवश्य हती? एक तो जाणे ए प्रकारे विचार, अने बाकी वीजा प्रकारे ए विचार के जैनदर्शन प्रवर्तकोने एनाथी कंइ द्वेप हतो ? जगत्कर्ता होत तो एम कहेवाथी एओना लाभने कंइ हानि पहोंचती हती ? जगत्कर्ता नथी, जगत् अनादि अनंत छे एम कहेवामां एमने कंइ महत्ता मळी जती हती ? आवा अनेक विचारो विचारतां जणाइ आवशे के जगत्तुं स्वरुप छे तेमज ते पवित्र पुरुषोए कह्यं छे. एमां भिन्नभाव कहेवार्नु एमने लेशमात्र प्रयोजन नहोतुं. मूक्ष्ममां सूक्ष्म जंतुनी रक्षा जेणे प्रणीत करी छे, एक रजकणथी करीने आखा जगत्ना विचारो जेणे सर्व भेदे कह्या छे तेवा पुरुषोनां पवित्र दर्शनने नास्तिक कहेनारा कयी गतिने पामशे ए वेचारतां दया आवे छे ! Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वावबोध भाग १७. शिक्षापाठ ९८ तत्त्वावबोध भाग १७.. जे न्यायथी जय मेळवी शकतो नथी; ते पछी गाळो भांड छे; तेम पवित्र जैनना अखंड तत्वसिद्धांतो शंकराचार्य, दयानंद संन्यासी वगरे ज्यारे तोडी न शक्या त्यारे पछी जैन नास्तिक है, सो चार्वाकमेंसे उत्पन्न हुआ है एम कहेवा मांडयुं. पण ए स्थळे कोइ प्रश्न करे, के महाराज ! ए विवेचन तमे पछी करो. एवा शब्दो कहेवामां कंइ वखत विवेक के ज्ञान जोइतुं नथी; पण आनो उत्तर आपो के जैनवेदथी कयी वस्तुमां उतरतो छे. एनुं ज्ञान, एनो बोध, एर्नु रहस्य, अने एनुं सत्शील के, छे ते एकवार कहो ? आपना वेद विचारो कयी बावतमां जैनथी चढे छे ? आम ज्यारे मर्मस्थानपर आवे त्यारे मौनता शीवाय तेओ पासे बीजें कंइ साधन रहे नहीं. जे सत्पुरुषोनां वचनामृत अने योगबळथी आ सृष्टिमां सत्यदया, तत्त्वज्ञान अने महाशील उदय पामे छे, ते पुरुषो करतां जे पुरुषो शृंगारमा राच्या पडया छे, सामान्य तत्त्वज्ञानने पण नथी जाणता, जेनो आचार पण पूर्ण नथी, तेने चढता कहेवा,-परमेश्वरने नामे स्थापवा अने सत्यस्वरुपनी अवर्ण भाषा बोलवी, परमात्म स्वरुप पामेलाने नास्तिक कहेवा, ए एमनी केटली बधी कर्मनी बहोलतानुं सूचवन करे छे ? परंतु जगत् मोहांध छे मतभेद छे त्यां अंधारुं छे. ममत्व के राग छे त्यां सत्य तत्त्व नथी. ए वात आपणे शा माटे न विचारवी? हुँ एक मुख्य वात तमने कहुं हुं के जे ममत्वरहितनी अने न्यायनी छे. ते ए छे के गमे ते दर्शनने तमे मानो; गमे तो पछी तमारी द्रष्टिमां आवे तेम जैनने कहो, सर्व दर्शननां शास्त्रतत्त्वने जुओ तेम जैनतत्त्वने पण जुओ. स्वतंत्र आत्मिकशक्तिए जे योग्य Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ मोक्षमाळा - पुस्तक बीजं. लागे ते अंगीकार करो. मारुं के बीजा गमे तेनुं भले एकदम तमे मान्य न करो पण तत्त्वने विचारो ! शिक्षापाठ ९९ समाजनी अगत्य. आंग्लभौमियो संसारसंबंधी अनेक कळा कौशल्यमां शाथी विजय पाया छे ? ए विचार करतां आपणने तत्काल जणाशे के तेओनो बहु उत्साह अने ए उत्साहमा अनेकनुं मळवुं. कळाकौशयना ए उत्साही काममां ए अनेक पुरुषोनी उभी थएली सभा के समाजे परिणाम शुं मेळव्युं ? तो उत्तरमां एम आवशे के लक्ष्मी, कीर्त्ति अने अधिकार ए एमनां उदाहरण उपरथी ए जातिनां कलाकौशल्यो शोधवानो हुं अहीं बोध करतो नथी, परंतु सर्वज्ञ भगवाननुं कहेलुं गुप्त तत्त्व प्रमाद स्थितिमां आवी पड छे, तेने प्रकाशित करवा तथा पूर्वाचार्यानां गुंथेलां महान शास्त्रो एकत्र करवा, पडेला गच्छना मतमतांतरने टाळवा; तेमज धर्मविद्याने प्रफुल्लित करवा सदाचरणी श्रीमंत अने धीमंत बन्नेए मळीने एक महान समाज स्थापन करवानी अवश्य छे, एम दर्शानुं हुं. पवित्र स्याद्वादमतनुं ढंकायलं तत्त्व प्रसिद्धिमां आणवा ज्यां सुधी प्रयोजन नथी, त्यां सुधी शासननी उन्नति पण नथी. लक्ष्मी, कीर्त्ति अने अधिकार संसारी कळाकौशल्यथी मळे छे, परंतु आ धर्मकलाकौशल्यथी तो सर्व सिद्धि सांपडशे. महान् समाजना अंतर्गत उपसमाज स्थापवा वाडामां बेसी रहेवा करतां मतमतांतर तजी एम कर उच्चित छे. हुं इच्छं छं के ते कृतनी सिद्धि थ‍ जैनांतर्गच्छ मतभेद टळो; सत्य वस्तु उपर मनुष्य मंडळनुं लक्ष आवो; अने ममत्व जाओ ! Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोनिग्रहन विघ्न. शिक्षापाठ १०० मनोनिग्रहनां विघ्न. १४३ वारंवार जे बोध करवामां आव्यो छे तेमांथी मुख्य तात्पर्य नीकले छे ते ए छे के आत्माने तारो अने तारवा माटे तत्त्वज्ञाननो प्रकाश करो; तथा सत्शीलने सेवो. ए प्राप्त करवा जे जे मार्ग दर्शाव्या ते ते मार्ग मनोनिग्रहाने आधीन छे मनोनिग्रहता थवा लक्षनी बहोळता करवी जरुरनी छे. ए बहोळतामां विनरुप नीचेना दोष छे. १ आळस. २ अनियमित उंघ. ३ विशेष आहार. ४ उन्माद प्रकृति. ५ मायाप्रपंच. ६ अनियमित काम. ७ अकरणीयविलास. ८ मान. ९ मर्यादाउपरांतकाम. ११ तुच्छवस्तुथी आनंद. १२ रसगारवलुब्धता. १३ अतिभोग. १४ पारर्कु अनिष्ट इच्छवं. १५ कारणविनानुं रळवुं. १६ झाझानो स्नेह. १७ अयोग्यस्थळे जवुं. १८ एके उत्तम नियम साध्य न करवो. १० आपवडाइ• ज्यां सुधी आ अष्टादश विघ्नथी मननो संबंध छे, त्यां सुधी अष्टादश पापस्थानक क्षय थवानां नथी. आ अष्टादश दोष जवाथी मनोनिग्रहता अने धारेली सिद्धि थइ शके छे. ए दोष ज्यांसुधी मनथी निकटता धरावे छे त्यां सुधी कोइपण मनुष्य आत्मसाथक करवानो नथी. अति भोगने स्थळे सामान्य भोग नहीं, पण केवळभोग त्यागवृत्त जेणे धर्यु छे, तेमज ए एक्के दोषनुं मूळ जेना हृदयमां नथी ते सत्पुरुष महभागी छे. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. शिक्षापाठ १०१ स्मृतिमा राखवायोग्य महावाक्यो. १. एक भेदे नियम एज आ जगत्नो प्रवर्तक छे.. २. जे मनुष्य सत्पुरुषोनां चरित्ररहस्यने पामे छे ते मनुष्य परमेश्वर थाय छे. ३ चंचळ चित्त ए सर्व विषम दुःखनुं मुळियुं छे. ४ झाझानो मेळाप अने थोडा साथे अति समागम ए बने समान दुःखदायक छे. ५ समस्वभाविनुं मळवू एने ज्ञानीओ एकांत कहे छे. ६ इंद्रियो तमने जीते अने सुख मानो ते करतां तेने तमे जीतवामांज सुख, आनंद अने परमपद प्राप्त करशो. ७ रागविना संसार नथी अने संसारविना राग नथी. ८ युवावयनो सर्व संग परित्याग परमपदने आपे छे. ९ ते वस्तुना विचारमा पहोंचो के जे वस्तु अतींद्रिय स्वरुप छे. १० गुणीना गुणमा अनुरक्त थाआ. - - - शिक्षापाठ १०२ विविध प्रश्नो भाग १. आजे तमने हुँ केटलांक प्रश्नो निग्रंथप्रवचनानुसार उत्तर आपवा माटे पूछु छु. कहो धर्मनी अगत्य शी छे ? Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रश्नो भाग १. उ.-अनादि काळथी आत्मानी कर्मजाळ टाळवा माटे... प्र.-जीव पहेलो के कर्म? . उ.-बन्ने अनादि छेज. जीव पहेलो होय तो ए विमळ वस्तुने मळ वळगवानुं कंइ निमित्त जोइए. कर्म पहेलां कहो तो जीव विना कर्म कर्या कोंणे ? ए न्यायथी बन्ने अनादि छेज. म.-जीव रुपी के अरुपी? उ.-रुपी पण खरो, अने अरुपी पण खरो. प्र.-रुपी कया न्यायथी अने अरुपी कया न्यायथी ते कहो ? उ.-देह निमित्ते रुपी अने स्वस्वरुपे अरुपी. प्र.-देह निमित्त शाथी छे ? , उ.-स्वकर्मना विपाकथी. प्र.-कर्मनी मुख्य प्रकृतियो केटली छे ? उ.-आठ. ...प्र.-कयी कयी ? उ.-ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, नाम, मोत्र, आयुष्य अने अंतराय. प्र.-ए आठे कर्मनी सामान्य समज कहो ? उ.-ज्ञानावरणी एटले आत्मानी ज्ञान संबंधीनी जे अनंतशक्ति छे तेंने आच्छादन थइ जq ते. दर्शनावरणी एटले आत्मानी जे अनंत दर्शनशक्ति छे तेने आच्छादन थइ जq ते. वेदनीय एटले देहनिमित्ते शाता आशाता बे प्रकारनां वेदनीय कर्म एथी अव्यायाध सुखरुप आत्मानी शक्ति रोकाइ रहेवी ते. मोहनीय कर्म एटले आत्मचारित्र रुप शक्ति रोकाइ रहेवी ते. नामकर्म एटले अमूर्तिरुप दिव्य शक्ति रोकाइ रहेवी ते. गोत्रकर्म एटले अटल अवगाहनारुप आत्मिकशक्ति रोकाइ रहेवी ते. आयुकर्म Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. एटले अक्षय स्थिति गुण रोकाइ रहेवो ते. अंतराय कर्म एटले अनंत दान, लाभ, वीर्य, भोगोपभोग शक्ति रोकाइ रहेवी ते. शिक्षापाठ १०३ विविध प्रश्नो भाग २. प्र.-ए कर्मो टळवाथी आत्मा क्यां जाय छे ? उ.-अनंत अने शाश्वत मोक्षमां. प्र.-आ आत्मानो मोक्ष कोइवार थयो छे ? उ.-ना. प्र.-कारण ? उ.-मोक्ष थयेलो आत्मा कर्ममल रहित छे. एथी पुनर्जन्म एने नथी. प्र. केवळीनां लक्षण शुं ? उ.-चार घनघाती कर्मनो क्षय करी शेष चार कर्मने पातळां पाडी जे पुरुष त्रयोदश गुणस्थानकवर्ति विहार करे छे ते. प्र.-गुणस्थानक केटलां? उ.-चौद. प्र.-तेनां नाम कहो ? उ.-१ मिथ्यात्वगुणस्थानक. २ सास्वादनगुणस्थानक. ३ मिश्रगुणस्थानक. ४ अविरतिसम्यग्द्रष्टि गुणस्थानक. ५ देशविरतिगुणस्थानक. ६ प्रमत्तसंयत्तगुणस्थानक. ७ अप्रमत्तसंयतगुणस्थानक. ८ अपूर्वकरणगुणस्थानक. ९ अनिवृत्तिवादरगुणस्थानक. १० सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानक. ११ उपशांतमोहगुणस्थानक. १२क्षीणमोहगुणस्थानक.१३ सयोगीकेवळीगुणस्थानक. १४ अयोगीकेवळीगुणस्थानक. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' विविध प्रश्नो भाग ३. शिक्षापाठ १०४ विविध प्रश्नो भाग ३, प्र.-केवली अने तीर्थकर ए बन्नेमां फेर शो ? उ.-केवली अने तीर्थकर शक्तिमा समान छे; परंतु तीर्थकरे पूर्वे तीर्थकर नामकर्म उपायुं छे, तेथी विशेषमां बार गुण अने अनेक अतिशय प्राप्त करे छे. प्र.-तीर्थकर पर्यटन करीने शा माटे उपदेश आपे छे ? ए तो निरागी छे ? उ.-तीर्थकरनामकर्म जे पूर्वे बांध्युं छे ते वेदवा माटे तेओने अवश्य तेम करवू पडे छे. प्र.-हमणां प्रवर्ते छे ते शासन कोर्नु छे ? उ.-श्रमण भगवन् महावीरनु. प्र.-महावीर पहेलां जैनदर्शन हतुं ? . प्र-ते कोणे उत्पन्न कर्यु हतुं? उ.-ते पहेलाना तीर्थकरोए. प्र.-तेओना अने महावीरना उपदेशमा कइ भिन्नता खरी के ? ... उ.-तत्त्वस्वरुपे एकज छे. भिन्न भिन्न पात्रने लइने उपदेश होवाथी अने कंइक काळभेद होवाथी सामान्य मनुष्यने भिन्नता लागे खरी; परंतु न्यायथी जोतां ए भिन्नता नथी. . . प्र.-एओनो मुख्य उपदेश शुंछे ? उ.-आत्माने तारो आत्मानी अनंतशक्तियोनो प्रकाश करो. एने कर्मरुप अनंत दुःखथी मुक्त करो ए. म.-ए माटे तेओए कयां साधनो दर्शाव्यां छे ? Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा - पुस्तक बीजं• उ. - व्यवहारनयथी सदेव, सद्धर्म, अने सद्गुरुनुं स्वरुप जाणवुं; सद्देवना गुणग्राम करवा; त्रिविध धर्म आचरवो अने निग्रंथ गुरुथी धर्मनी गम्यता पामवी ते. - त्रिविध धर्मकयो ? उ - सम्यग्ज्ञानरूप, सम्यग्दर्शनरूप अने सम्यक् चारित्ररूप. शिक्षापाठ १०५ विविध प्रश्नो भाग ४. प्र. - आवुं जैनदर्शन ज्यारे सर्वोत्तम छे, त्यारे सर्व आत्माओ एना बोधने केम मानता नथी ? उ. - कर्मनी बाहुल्यताथी, मिथ्यात्वना जामेला दळियांथी, अने सत्समागमना अभावथी. प्र. - जैनना मुनियोना मुख्य आचाररूप शुं छे ? उ. - पांच महावृत्त, दशविधि यतिधर्म, सप्तादशविधिसंयम, दशविधि वैयावृत्य, नवविधि ब्रह्मचर्य, द्वादश प्रकारना तप, क्रोधादिक चार प्रकार कषायनो निग्रह. विशेषमां सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन, सम्यक्चारित्रनुं आराधन इत्यादिक अनेक भेद छे. प्र. - जैनमुनियोना जेवांज संन्यासियोनां पंचयाम छे, अने बौद्धधर्मनां पांच महाशील छे. एटले ए आचारमां तो जैनमुनियो अने संन्यासियो तेमज बौद्धमुनियो सरखा खरा के ? उ.- नहीं. म. - केम नहीं ? उ. - एओनां पंचयाम अने पंचमहाशील अपूर्ण छे. महावृत्तना प्रतिभेद जैनमां अति सूक्ष्म छे. पेला बेना स्थूळ छे. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • विविध प्रश्नो भाग ५. -म. - सूक्ष्मताने माटे द्रष्टांत आपो जोइए ? उ.- द्रष्टांत देखीतुंज छे. पंचयामियो कंदमूळादिक अभक्ष्य खाय छे, सुखशय्यामां पोढे छे, विविध जातनां वाहनो अने पुष्पनो उपभोग ले छे, केवळ शीतळ जळथी तेओनो व्यवहार छे. रात्रिये भोजन ले छे. एम थतो असंख्याता जंतुनो विनाश, ब्रह्मचर्यनो भंग ए आदिनी सूक्ष्मता तेओना जाणवामां नथी. तेमज मांसादिक अभक्ष्य अने सुखशीलियां साधनोथी बौद्धमुनियो युक्त छे. जैन सुनियो तो केवळ एथी विरक्तज छे. शिक्षापाठ १०६ विविध प्रश्नो भाग ५. प्र. - वेद अने जैन दर्शनने प्रतिपक्षता खरी के ?. उ.- जैनने कंइ असमंजस भावे प्रतिपक्षता नथी; परंतु सत्यथी असत्य प्रतिपक्षी गणाय छे, तेम जैनदर्शनथीं वेदनो संबंध छे. प्र. - ए मां सत्यरूप तमे कोने कहोछो ? उ. - पवित्र जैनदर्शनने . प्र - वेददर्शनियो वेदने कहे छे तेनुं केम ? १४९ उ.- एतो मतभेद अने जैनना तिरस्कार माटे छे; परंतु न्यायपूर्वक बन्नेनां मूळतो आप जोइ जजो . म- आटलं तो मने लागे छे के महावीरादिक जिनेश्वरनुं कथन न्यायना कांटापर छे; परंतु जगत्कर्त्तानी तेओ ना कहे छे, अने जगत् अनादि अनंत छे एम कहे छे. ते विषे कंइ कंइ शंका थाय छे के आ असंख्यात द्वीपसमुद्रयुक्त, जगत् वगर बनाव्ये क्यांथी होय १ 1 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमाळा- पुस्तक बीजं. उ.- आपने ज्यांसुधी आत्मानी अनंत शक्तिनी लेश पण दिव्य प्रसादी मळी नथी त्यांसुधी एम लागे छे; परंतु तत्वज्ञाने एम नहीं लागे. “सम्मतितर्क" आदिग्रंथनो आप अनुभव करशो एटले ए शंका नीकळी जशे. १५० प्र. - परंतु समर्थ विद्वानो पोतानी मृषा वातने पण द्रष्टांतादिकधी सिद्धांतिक करी दे छे; एथी ए त्रुटी शके नहीं, पण सत्य केम कहेवाय ? उ.- पण आने कंइ मृषा कथवानुं प्रयोजन नहोतुं, अने पळभर एम मानीये, के एम आपणने शंका थइ के ए कथन मृषा हशे ? तो पछी जगत्कर्त्ताए एवा पुरुषने जन्म पण केम आप्यो ? नामबोळक पुत्रने जन्म आपवा शुं प्रयोजन हतुं ? तेम वळी ए पुरुषो तो सर्वज्ञ हता; जगत्कर्त्ता सिद्ध होत तो एम कहेबायी ओने कंइ हानि नहोती. शिक्षापाठ १०७ जिनेश्वरनी वाणी. मनहर छंद. अनंत अनंत भाव भेदथी भरेली भली, अनंत अनंत नय निक्षेपे व्याख्यानी छे, सकळ जगत हितकारिणी हारिणी मोह, तारिणी भवान्धि मोक्षचारिणी प्रमाणी छे; उपमा आप्यानी जेने, तमा राखवी ते व्यर्थ, आपवाथी निज मति मपाइ में मानी छे, अहो ! राज्यचंद्र बाल, ख्याल नथी पामता ए, जिनेश्वर तणी वाणी, जाणी तेणे जाणी छे, १ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णमालिका मंगल. शिवापाठ १८ मालिक माळ शिक्षापाठ १०८ पूर्णमालिका मंगल. उपजाति. सप्पोपध्याने रविरुप थाय, ए साधिने सोम रही सुहाय महान ते मंगळ पंक्ति पामे आवे पछी ते बुधना प्रणामे. १ निग्रंथ ज्ञाता गुरु सिद्ध दाता, कांतो खयं शुक्र प्रपूर्ण ख्याता ... त्रियोग त्यां केवळ मंद पामे स्वरुप सिद्ध विचरी विरामे. .. २ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sppppppps aaoooooooooobs // इति श्रीमद् राज्यचंद्र प्रणीत.॥ मोक्षमाळा पुस्तक बीजं. // . . बाळावबोध शिक्षा ठ समाप्त. apppppppppppps Mooooooo