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________________ सत्संग. एटले 'बोकड' पण 'व्रीही' नहि. तेज वेळा देवताए सिंहासनथी उछाळी हेठो नाख्यो; वसु काळपरिणाम पामी नरके गयो. ३३ आ उपरथी सामान्य मनुष्योए सत्य, तेमज राजाए न्यायमां अपक्षपात अने सत्य बन्ने ग्रहण करवायोग्य छे ए मुख्य बोध मळे छे. जे पांच महाव्रत भगवाने प्रणीत कर्या छे; तेमांना प्रथम महाव्रतनी रक्षाने माटे बाकीनां चार व्रत वाडरुपे छे, अने तेमां पण पहेली वाड ते सत्य महाव्रत छे. ए सत्यना अनेक भेद सिद्धांतथी श्रुत करवा अवश्यना छे. शिक्षापाठ २४ सत्संग सत्संग ए सर्व सुखनुं मूळ छे. सत्संगनो लाभ मळ्यो के तेना प्रभाववडे वांछित सिद्धि थइज पडी छे. गमे तेवा पवित्र थवाने माटे सत्संग श्रेष्ट साधन छे. सत्संगनी एक घडी जे लाभ दे छे ते कुसंगनां एक कोट्याविधि वर्ष पण लाभ न दई शकतां अधोगतिमय महा पाप करावे छे तेमज आत्माने मलिन करे छे. सत्संगनो सामान्य अर्थ एटलो छे के उत्तमनो सहवास. ज्यां सारी हवा नथी आवती त्यां रोगनी वृद्धि थाय छे; तेम ज्यां सत्संग नथी त्यां आत्मरोग वधे छे. दुर्गंधथी कंटाळीने जेम नाके वस्त्र आडुं दइए छीए तेम कुसंगथी सहवास बंध करवानुं अवश्यनुं छे. संसार ए पण एक प्रकारनो संग छे, अने ते अनंत कुसंगरुप तेमज दुःखदायक होवाथी त्यागवा योग्य छे. गमे ते जातनो सहवास होय परंतु जे वडे आत्मसिद्धि नथी ते सत्संग नथी. आत्माने सत्य रंग चढावे ते सत्संग. मोक्षनो मार्ग बतावे ते मैत्रि. उत्तम शास्त्रमां निरंतर एकाग्र रहेनुं ते पण सत्संग छे, सत्पुरुषोनो समा
SR No.006234
Book TitleBalavbodh Mokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Ravjibhai Mehta
PublisherMansukhlal Ravjibhai Mehta
Publication Year1915
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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