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________________ १६ ओगणीसें ने बेतालीसें, वैराग्य धार रे. अद्भुत ओगणीसें ने सुडनालीसें, समकित शुद्ध प्रकाश्यं रे; श्रुत अनुभव वधती दशा, निज स्वरुप अवभास्युं रे. त्यां आव्यों रे उदय कारमो, परिग्रह कार्य प्रपंच रे; जेम जेम ते हडमेलीए, तेम वधे न घटे रंच रे. वधतुं एम चालियं, हवे दीसे क्षीण कांइ रे; क्रमे करीने ते जरो, एम भासे मन मांहि रे. यथा हेतु जे चिनो, सत्य धर्मनो उद्धार रे; थशे अवश्य आ देहथी, एम थयो निरधार रे. आवी अपूर्व वृत्ति अहो, थशे अप्रमत योग रे; केवळ लगभग भूमिका, स्पर्शिने देह वियोग रे. अवश्य कर्मनो भोग छे, भोगववो अवशेष रे; तेथी देह एकज धारीने, जाशुं स्वरुप स्वदेश रे. धन्य० धन्य० धन्य ० धन्य० धन्य० धन्य० धन्य ०
SR No.006234
Book TitleBalavbodh Mokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Ravjibhai Mehta
PublisherMansukhlal Ravjibhai Mehta
Publication Year1915
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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