SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९७ - सुख विषे विचार भाग ६. आख्यायिका कही. आप अवश्य कोइ महात्मा छो. पूण्यानुबंधीपुण्यवान जीव छो, विवेकी छो, आपनी विचारशक्ति अद्भूत छे; हुं दरिद्रताथी कंटाळीने जे इच्छा राखतो हतो ते एकांतिक हती. आवा सर्व प्रकारना विवेकी विचार में कर्या नहोता. आवो अनुभव-आवी विवेकशक्ति हुं गमे तेवो विद्वान छु छतां मारामां नथी, ए वात हुं सत्यज कहुं छु. आप मारे माटे जे योजना दर्शावी ते माटे आपनो बहु उपकार मार्नु छ; अने नम्रतापूर्वक ए हुं अंगि: कार करवा हर्ष बताq छु. हुं उपाधिने चाहतो नथी. लक्ष्मीनो फंद उपाधिज आपे छे. आपन अनुभवसिद्ध कथन मने वहु रुच्यु छे. संसार बळतोज छे. एमां सुख नथी. आपे निरुपाधि मुनिसुननी प्रशंसा कही ते सत्य छे. ते सन्मार्ग परिणामे सर्वोपाधि, आधि व्याधिथी तेमज सर्व अज्ञानभावथी रहित एवा शाश्वत मोक्षनो हेतु छे. शिक्षापाठ ६६ सुख विषे विचार भाग ६. धनाढ्यः-आपने मारी वात रुची एथी हुँ निराभिमानपूर्वक आनंद पामुंछु. आपने माटे हुं योग्य योजना करीश. मारा सामान्य विचारो कथानुरूप अहीं कहेवानी हुँ आज्ञा लउं छं. ... जेओ मात्र लक्ष्मीने उपार्जन करवामां कपट, लोभ अने मायामां मुंझाया पड्या छे ते बहु दुःखी छे. तेनो ते पुरो उपयोग के अधुरो उपयोग करी शकता नथी. मात्र उपाधिज भोगवे छे. ते असंख्यात पाप करे छे. काळ अचानक लइने उपाडी जाय छे. अधोगति पामी ते जीव अनंतसंसार वधारे छे. मळेलो मनुष्य देह निर्माल्य करी नाखे छे जेथी ते निरंतर दुःखीज छे.......
SR No.006234
Book TitleBalavbodh Mokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Ravjibhai Mehta
PublisherMansukhlal Ravjibhai Mehta
Publication Year1915
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy