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________________ धर्मध्यान भाग १. १११ पडे छे. तेनुं जे चिंतन करवुं ते ' अपायविचय ' नामे बीजो भेद छे. अपाय एटले दुःख. ३ विपाकविचय. हुं जे जे क्षणे जे जे दुःख सहन करूं छु, भवाटविमां पर्यटन करूं लुं, अज्ञानादिक पाएं छं, ते सघकुं कर्मनां फळना उदय बडे छे; एम चिंतवनुं ते धर्मध्याननो त्रीजो 'कर्मविपाक' चिंतन भेद छे. ४ संस्थानविचय. ऋणलोकनुं स्वरूप चिंतवनुं ते. लोकस्वरुप सुप्रतिष्टिकने आकारे छे. जीव अजीवे करीने संपूर्ण भरपुर छे. असंख्यात योजननी कोटानुकोटी त्रिच्छो लोक छे. ज्यां असंख्याता द्वीप - समुद्र छे. असंख्याता ज्योतिष्यि, वाणव्यंतरादिकना निवास छे. उत्पाद, व्यय अने ध्रुवतानी विचित्रता एमां लागी पडी छे. अढीद्दीपमां जघन्य तीर्थंकर २०, उत्कृष्टा एकसो सितेर होय. तेओ तथा केवळी भगवान अने निर्ग्रथ मुनिराज विचरे छे, तेओने “वंदामि, नमसामि, सकारेमि, समाणेमि, कल्लाणं, मंगळं, देवयं, चेइयं पज्जुवासामि " एम तेमज त्यां वसतां श्रावक, श्राविकानां गुणग्राम करीए. ते त्रिछालोकथकी असंख्यात गुणो अधिक उर्द्ध लोक छे. त्यां अनेक प्रकारना देवताओना निवास छे. पछी इषत् प्राग्भारा छे. ते पछी मुक्तात्माओ विराजे छे. तेने “वंदामि, यावत् पज्जुवासामि " ते उर्द्ध लोकधी कंइक विशेष अधो लोक छे, त्यां अनंत दुःखी भरेला नर्कावास अने भुवन पतिनां भुवनादिक छे. ए aण लोकनां सर्व स्थानक आ आत्माएं सम्यक्त्वरहितकरणीथी अनंतिवार जन्म मरण करी स्पर्शि मूक्यां छे, एम जे चिंतन कर ते संस्थान विचय नामे धर्मध्याननो चोथो भेद छे. ए चार भेद विचारीने सम्यक्त्वसहित श्रुत अने चारित्र धर्मनी आराधना करवी. जेथी ए अनंत जन्म मरण टळे. ए धर्मध्यानना चार भेद स्मरमां राखवा.
SR No.006234
Book TitleBalavbodh Mokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Ravjibhai Mehta
PublisherMansukhlal Ravjibhai Mehta
Publication Year1915
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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