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मोक्षमाळा-पुस्तक बीजं. शिक्षापाठ १८ चार गति.
. संसारवनमां शुभाशुभ जीव सातावेदनीय, असातावेदनीय वेदतो कर्मनां फळ भोगववा आ चार गतिमां भम्या करे छे तो ए चार गति खचीत जाण! जोइए.
१ नर्कगति-महारंभ, पदीरापान, मांस भक्षण, इत्यादिक तीव्र हिंसाना करनार जीवो अघोर नर्कमां पडे छे. त्यां लेश पण शाता, विश्राम के सुख नथी. महा अंधकार व्याप्त छे. अंगछेदन सहन करवू पडे छे. अग्निमां बळवू पडे छे अने छरपलानी धार जेवं जळ पीयूँ पडे छे. अनंत कुःखथी करीने ज्यां प्राणीभूते सांकड, अशाता अने विलविलाट स न करवा पडे छे. आवा जे दुःखने केवलज्ञानीओ पण कही शकता नथी. अहोहो ! ! ते दुःख अनंतिवार आ आत्माए भोगव्यां छे.
२ तिर्यचगति-छल, जउ, प्रपंच इत्यादिक करीने जीव सिंह, वाघ, हाथी, मृग, गाय, भेरे, बळद इत्यादिक तिर्यचना शरीर धारण करे छे. ते तिर्यंचगतिमां भूख, तरश, ताप, वध, बंधन, ताडन, भारवहन इत्यादिनां दुःखने सहन करे छे.
३ मनुष्यगति-खाद्य, अखाद्य, विषे विवेकरहित छ लज्जाहीन, माता पुत्री साथे काम गमन करवामां जेने पापापापर्नु भान नथी; निरंतर मांसभक्षण, चरी, परस्त्रीगमन वगेरे महा पातक कर्या करे छे. एतो जाणे अनार्यदेशनां अनार्य मनुष्य छे. आर्यदेशमां पण क्षत्रि, ब्राह्मण, संश्य प्रमुख मतिहीन, दरिद्रि, अज्ञान अने रोगथी पीडित मनुष्यो छे. मान, अपमान इत्यादि अनेक प्रकारनां दुःख तेओ भोगवी रह्यां छे.
४ देवगति-परस्पर वेर, झेर, क्लेश, शोक मत्सर, काम,