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________________ तत्त्वावबोध भाग १६. १३९ छता अमने बहु आश्चर्य लागे छे के केवळ शुद्ध परमात्मतत्त्वने पामेला, सकळ दूषणरहित, मृषा कहेवानुं जेने कंइ निमित्त नथी एवा पुरुषनां कहेलां पवित्र दर्शनने पोते तो जाण्यु नहि, पोताना आत्मानुं हित तो कर्यु नहीं, पण अविवेकथी मतभेदमा आवी जइ केवळ निर्दोष अने पवित्र दर्शनने कहेनाराओए नास्तिक शा माटे कडं हशे ? पण ए कहेनारा एनां तत्त्वने जाणता नहोता. वळी एनां तत्त्वने जाणवाथी पोतानी श्रद्धा फरशे, त्यारे लोको पछी पोताना आगळ कहेला मतने गांठशे नहीं; जे लौकिक मतमा पोतानी आजीविका रही छे, एवा वेदादिनी महत्ता घटाडवाथी पोतानी महत्ता घटशे; पातानुं मिथ्या स्थापित करेलुं परमेश्वर पद चालशे नहीं. एथी जैनतत्वमा प्रवेश करवानी रुचिने मूळथीज बंध करवा लोकोने एवी भ्रमभुरकी आपी के जैन नास्तिक छे. लोको तो बिचारा गभरुगाडर छे एटले पछी विचार पण क्याथी करे ? ए कहेवू केटलं मृषा अने अनर्थकारक छे ते जेणे वीतराग प्रणीत सिद्धांतो विवेकथी जाण्या छे, ते जाणे. अमारूं कहेवू मंद बुद्धिओ वखते पक्षपातमा लई जाय. शिक्षापाठ ९७ तत्त्वावबोध भाग १६. - पवित्र जैन दर्शनने नास्तिक कहेवरावनाराओ एक मिथ्या दलीलथी फाववा इच्छे छे, के जैनदर्शन आ जगत्ना कर्त्ता परमेश्वरने मानतुं नथी. अने जगत्कर्ता परमेश्वरने जे नथी मानता ते तो नास्तिकज छे, एवी मानी लीधेली वात भद्रिकजनोने शीघ्र चोंटी रहे छे. कारण तेओमां यथार्थ विचार करवानी प्रेरणा नथी. पण जो ए उपरथी एम विचारवामां आवे के सारे जैन
SR No.006234
Book TitleBalavbodh Mokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Ravjibhai Mehta
PublisherMansukhlal Ravjibhai Mehta
Publication Year1915
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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