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________________ शान संबंधी बे बोल भाग १. शिक्षापाठ ७७ज्ञानसंबधी बेबोल भाग १. जेवडे वस्तुनुं स्वरुप जाणीए ते ज्ञान. ज्ञान शब्दनो आ अर्थ छे. हवे यथामति विचारवानुं छे के ए ज्ञाननी कंइ आवश्यकता छे ? जो आवश्यकता छ तो ते प्राप्तिनां कंइ साधन छे ? जो साधन छे तो तेने अनुकुळ देशकाल भाव छे ? जो देशकाळादिक अनुकुळ छे तो क्यां सुधी अनुकुळ छे ? विशेष विचारमा ए ज्ञानना भेद केटला छे? जाणवारुप छे शुं ? एना वळी भेद केटला छे ? जाणवानां साधन कयां कयां छे ? कयी कयी वाटे ते साधनो प्राप्त कराय छे ? ए ज्ञाननो उपयोग के परिणाम शुं छे ? ए जाणवू अवश्यतुं छे.. १. ज्ञाननी शी आवश्यकताछे ? ते विषे प्रथम विचार करीए. आ चतुर्दश रजवात्मक लोकमां, चतुर्गतिमां अनादिकाळथी सकमस्थितिमा आ आत्मानुं पर्यटन छे. मेषानुमेष पण सुखनो ज्यां भाव नथी एवां नर्कनिगोदादिक स्थानक आ आत्माए बहु बहु काळ वारंवार सेवन कयाँ छे; असह्य दुःखोने पुनः पुनः अने कहो तो अनंतिवार सहन कर्यां छे. ए उतापथी निरंतर तपतो आत्मा मात्र स्वकर्मविपाकथी पर्यटन करे छे. पर्यटनकारण अनंत दुःखद ज्ञानावरणादि कर्मों छे, जेवडे करीने आत्मा स्वस्वरुपने पामी शकतो नथी; अने विषयादिक मोहबंधनने स्वस्वरुप मानी रह्यो छे. ए सघळांनुं परिणाम मात्र उपर कहुं तेज छे के अनंत दुःख अनंत भावे करीने सहेवू; गमे तेटलं अप्रिय, गमे तेटलं खेददायक अने गमे तेटलुं रौद्र छतां जे दुःख अनंतकाळथी अनंतिवार सहन करवू पडयुं ते दुःख मात्र सह्यं ते अज्ञानादिक कर्मथी, माटे ए अज्ञानादिक टाळवा माटे ज्ञाननी परिपूर्ण आवश्यकता छे.
SR No.006234
Book TitleBalavbodh Mokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Ravjibhai Mehta
PublisherMansukhlal Ravjibhai Mehta
Publication Year1915
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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