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________________ शान संबंधी बे बोल भाग ४. ११९ जाणवा रुप छे तेनी संसर्ग ऋद्धि जाणवा रुप छे; तेमज अजीव तेना रुपी अरुपी पुद्गल आकाशादिक विचित्र भाव काळचक्र इ० जाणवा रुप छे. जीवाजीव जाणवानी प्रकारांतरे सर्वज्ञ सर्वदर्शीए नव श्रेणि रुप नवतत्त्व कह्यां छे. जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्चव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष. एमांना केटलांक ग्राह्यरुप, केटलांक जाणवारुप केटलांक सागवा रुप छे. सघळां ए तत्त्वो जाणवा रुप तो छेज. ५. जाणवानां साधन-सामान्य विचारमा ए साधनो जो के जाण्यां छे, तो पण विशेष कंइक जाणीए, भगवाननी आज्ञा अने तेनुं शुद्ध स्वरुप यथातथ जाणवू. स्वयं कोइकज जाणे छे. नहीं तो निग्रंथज्ञानी गुरु जणावी शके, निरागी ज्ञाता सर्वोत्तम छे. एटला माटे श्रद्धानुं बीज रोपनार के तेने पोषनार गुरु ए साधन रुप छे ए साधनादिकने माटे संसारनी निवृत्ति एटले शम, दम ब्रह्मचर्यादिक अन्य साधनो छे. ए साधनो प्राप्त करवानी वाट कहीए तो पण चाले. ६. ए ज्ञाननो उपयोग के परिणामनां उत्तरनो आशय उपर आवी गयो छे; पण काळभेदे कंइ कहेवानुं छे. अने ते एटलुंज के दिवसमां बे घडीनो वखत पण नियमित राखीने जिनेश्वर भगवानना कहेला तत्त्वबोधनी पर्यटना करो. वीतरागना एक सिद्धांतिक शब्दपरथी ज्ञानावरणीनो बहु क्षयोपशम थशे एम हुँ विवेकथी कहुं छु.
SR No.006234
Book TitleBalavbodh Mokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Ravjibhai Mehta
PublisherMansukhlal Ravjibhai Mehta
Publication Year1915
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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