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________________ सद्गुरुतत्त्व भाग २.. २ कागळस्वरुप गुरु ए मध्यम छे. ते संसारसमुद्रने पोते तरी शके नहीं; परंतु कंइ पून्य उपार्जन करी शके. ए बीजाने तारी शके नहीं ३ पथ्थरस्वरुप ते पोते बुडे अने परने पण बुडाडे. काष्टस्वरुप गुरु मात्र जिनेश्वर भगवंतना शासनमा छे. बाकी बे प्रकारना जे गुरु रह्या ते कर्मावरणने वृद्धि करनार छे. आपणे बधा उत्तम वस्तुने चाहिए छीए; अने उत्तमथी उत्तम मळी शके छे. गुरु जो उत्तम होय तो ते भवसमुद्रमा नाविकरुप थई सद्धर्मनावमां बेसाडी पार पमाडे. तत्वज्ञानना भेद, स्वस्वरुपभेद लोकालोक विचार, संसारस्वरुप ए सघळू उत्तम गुरु विना मळी शके नहि त्यारे तने प्रश्न करवानी इच्छा थशे के एवा गुरुनां लक्षण कयां कयां ? ते कहुं छ. जिनेश्वर भगवाननी भाखेली आज्ञा तेने यथातथ्य पाळे, जाणे, अने बीजाने बोधे, कंचन कामिनीथी सर्व भावथी त्यागी होय, विशुद्ध आहारजळ लेता होय, बाविश प्रकारना परिसह सहन करता होय, शांत, दांत, निरारंभि अने जितेंद्रिय होय, सिद्धांतिक ज्ञानमां निमग्न होय, धर्म माटे थइने मात्र शरीरनो निर्वाह करता होय, निर्गथ-पंथ पाळतां कायर न होय, सळी मात्र पण अदत्त लेता न होय, सर्वे प्रकारना अहार रात्रिये त्याग्या होय, समभावि होय, अने निरागताथी सत्योपदेशक होय. टुंकामां तेओने काष्टस्वरुप सद्गुरु जाणवा. पुत्र ! गुरुना आचार, ज्ञान ए सम्बन्धी आगममां बहुं विवेकपूर्वक वर्णन कर्यु छे. जेम तुं आगळ विचार करतां शीखतो जइश, तेम पछी हुं तने ए विशेष तत्वो बोधतो जइश. पुत्र-पीताजी! आपे मने टुंकामां पण बहु उपयोगी अने कल्याणमय कहुं हुं निरंतर ते मनन करतो रहीश.
SR No.006234
Book TitleBalavbodh Mokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Ravjibhai Mehta
PublisherMansukhlal Ravjibhai Mehta
Publication Year1915
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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