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तत्त्वावबोध भाग ७०
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शिक्षापाठ ८८ तत्त्वावबोध भाग ७.
उत्तरां में कछु के आ काळमां त्रण महाज्ञान भारतथी विच्छेद छे; तेम छतां हुं कइ सर्वज्ञ के महाप्रज्ञावंत नथी छतां मारुं जेटलं सामान्य लक्ष पहोंचे तेटलं पहोंचाडी कंइ समाधान करी शकीश एम मने संभव रहे छे. त्यारे तेमणे कः जो तेम संभव
तो होय तो ए त्रिपदी जीवपर "ना" ने "हा" विचारे उतरो. ते एम के जीव शुं उत्पत्तिरुप छे ? तो के ना. जीव शुं विघ्नतारुप छे? तो के ना. जीव शुं ध्रुवतारुप छे ? तो के ना. आम एक बखत उतारो अने बीजी वखत जीव शुं उत्पत्तिरूप छे ? तो के हा. जीव शुं विघ्नतारुप छे ? तो के हा. जीव शुं ध्रुवतारुप छे ? तो के हा. आम उतारो. आ विचारो आखा मंडळे एकत्र करी योज्या छे. ए जो यथार्थ कही न शकाय तो अनेक प्रकारथी दूषण आवी शके. विघ्नरूपे होय ए वस्तु ध्रुव रूपे होय नहीं, ए पहेली शंका. जो उत्पत्ति, विघ्नता अने ध्रुवता नथी तो जीव कयां प्रमाणथी सिद्ध करशो ? ए वीजी शंका. विघ्नता अने ध्रुवताने परस्पर विरोधाभास ए त्रीजी शंका. जीव केवळ ध्रुव छे तो उत्पत्तिमां हा कही ए असत्य. ए चोथो विरोध. उत्पन्न जीवनो ध्रुव भाव कहो तो उत्पन्न कोणे कर्यो ? ए पांचमी शंका अने विरोध. अनादिपशुं जतुं रहे छे ए छड़ी शंका. केवळ ध्रुव विघ्नरुपे छे एम कहो तो चार्वाकमिश्र वचन थयुं ए सातमो दोष. उत्पत्ति अने विघ्नरुप कहेशो तो केवळ चार्वाकनो सिद्धांत ए आठमो दोष. उत्पत्तिनी ना, विघ्नतानी ना अने ध्रुवतानी ना कही पछी त्रणेनी हा कही एना वळी पाछा छ दोष. एटले सर्वाळे चौद दोष. केवळ ध्रुवता जतां तीर्थंकरनां वचन त्रुटी जाय ए