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________________ अशुचि कोने कहेवी? उत्तम अने शांत मुनिओनो समागम, विमळआचार, विवेक तेमज दया, क्षमा आदिनु सेवन करवू. तुच्छ बुद्धिथी शंकित थर्बु नहीं, एमां आपणुं परम मंगळ छे ए वीसर्जन करवू नहीं. शिक्षापाठ ५४ अशुचि कोने कहेवी ? जिज्ञासुः-मने जैन मुनिओना आचारनी वात बहु रुची छे. एओना जेवो कोइ दर्शनना संतोमा आचार नथी. गमे तेवा शीयाळानी टाढमां अमुक वस्त्रवडे तेओने रेडवर्बु पडे छे उनाळामां गमे तेवा ताप तपता छतां पगमां तेओने पगरखां के माथापर छत्री लेवाती नथी. उनी रेतीमां आतापना लेवी पडे छे. याव जीवंत उनुं पाणी पीए छे, गृहस्थने घेर तेभो बेसी शकता नथी. शुद्ध ब्रह्मचर्य पाळे छे. फुटी बदाम पण पासे राखी शकता नथी. अयोग्य वचन तेथी बोली शकातुं नथी. वाहन तेओ लइ शकता नथी. आवा पवित्र आचारो, खरे ! मोक्षदायक छे. परंतु नववाडमां भगवाने स्नान करवानी ना कही छे ए वात तो मने यथार्थ बेसती नथी. सत्यः-शा माटे बेसती नथी ? जिज्ञासुः-कारण एथी अशुचि वधे छे. सत्यः-कइ अशुचि वधे छे ? जिज्ञासुः-शरीर मलिन रहे छे ए. सत्यः-भाइ, शरीरनी मलिनताने अशुचि कहेवी ए वात कंड विचारपूर्वक नथी. शरीर पोते शानुं बन्युं छे एतो विचार करो. रक्त, पित, मळ, मूत्र, श्लेष्मनो ए भंडार छे ते पर मात्र त्वचा छे छता ए पवित्र केम थाय ? वळी साधुए एवं कंइ संसारी कर्तव्य कयु न होय के जेथी तेओने स्नान करवानी आवश्यक रहे.
SR No.006234
Book TitleBalavbodh Mokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Ravjibhai Mehta
PublisherMansukhlal Ravjibhai Mehta
Publication Year1915
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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