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त वावबोध भाग १४.
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कंइ राग बुद्धि नथी, के ए माटे पक्षपाते अमे कंइ पण तमने कहिये; तेमज अन्यमत प्रवर्त्तकोप्रति अमारे कई वैरबुद्धि नथी के मिथ्या एनुं खंडन करिये. बन्नेमां अमे तो मंदमति मध्यस्थरुप छिए. बहु बहु मननथी अने अमारी मति ज्यां सुधी पहोंची त्यां सुधीना विचारथी अमे विनयथी कहीये छीए, के प्रिय भव्यो ! जैन जेवुं एके पूर्ण अने पवित्र दर्शन नथी, वीतराग जेवो एके देव नथी, तरीने अनंत दुःखथी पार पामनुं होय तो ए सर्वज्ञ दर्शनरूप कल्पवृक्षने सेवो.
शिक्षापाठ ९५ तत्त्वावबोध भाग १४.
जैन ए एटली बधी सूक्ष्म विचारसंकळनाथी भरेलुं दर्शन छे के एमां प्रवेश करतां पण बहु वखत जोइए. उपर उपरथी के को प्रतिपक्षीना कहेवाथी अमुक वस्तु संबंधी अभिप्राय बांधवो के आपको ए विवेकीनुं कर्त्तव्य नथी. एक तळाव संपूर्ण भर्यु होय, तेनुं जळ उपरथी समान लागे छे; पण जेम जेम आगळ चालीए छीए तेम तेम वधारे वधारे उंडापणुं आवतुं जाय छे; छत उपर तो जळ सपाटज रहे छे; तेम जगत्ना सघळा धर्ममतो एक तळाव रूप छे, तेने उपरथी सामान्य सपाटी जोड़ने सरखा कही देवा ए उचित नथी. एम कहेनारा तत्त्वने पामेला पण नथी. जैनना अक्का पवित्र सिद्धांतपर विचार करतां आयुष्य पूर्ण थाय, तो पण पार पमाय नहीं तेम रहुं छे. बाकीना सघळा धर्ममतोना विचार जिनप्रणीत वचनामृतसिंधु आगळ एक बिंदुरुप पण नथी. जैनमत जेणे जाण्यो, अने सेव्यो ते केवळ निरागी अने सर्वज्ञ थइ जाय छे. एना प्रवर्त्तको केवा पवित्र पुरुषो हता !