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________________ धर्मना मतभेद भाग १. ८३. आत्मानी सत् शांति नथी; कारण र धर्ममत गणीए तो आखो संसार धर्ममतयुक्तज छे. प्रत्येक गृहस्थनुं घर एज योजनाथी भरपूर होय छे. छोकरांछैयां, स्त्री, रंग राग तान त्यां जाम्युं पडयुं होय छे अने ते घर धर्ममंदिर कहेतुं तो पछी अधर्मस्थानक कयुं ? अने जेम वर्त्तिए छीए तेम वर्त्तवाथी खोडं पण शुं ? कोइ एम कहे के पेलां धर्ममंदिरमां तो प्रभुनी भक्ति थइ शके छे तो तेओने माटे खेदपूर्वक आटलोज उत्तर देवानो हो के ते परमात्मतत्व अने वैराग्यमय भक्तिने जाणता नथी. गमे तेम हो पण आपणे आपणा मूळ विचारपर आवकुं जोइए. तत्वज्ञानानी द्रष्टि आत्मा संसारमां विषयादिक मलिनताथी पर्यटन करे छे. ते मलिनतानो क्षय विशुद्ध भाव जळथी होवो जोइए. अर्हतना तत्वरुप साबु अने वैराग्यरुपी जळ वडे, उत्तम आचाररुप पथ्थरपर, आत्मवस्त्रने धोनार निथ गुरु छे, आमां जो वैराग्यजळ न होय तो बीजां वधां साहित्यो कंड करी शकतां नथी, माटे वैराग्यने धर्मनुं स्वरूप कही शकीए अर्हतप्रणीत तत्व वैराग्यज बोध छे, तो तेज धर्म तुं स्वरूप एम गणवु. शिक्षापाठ ५८ धर्मना मतभेद भाग १. पडेला छे. तेवा : आ जगतमां अनेक प्रकारथी धर्मना मत मतभेद अनादिकाळथी छे, ए न्यायसिद्ध छे. पण ए मत भेदो देश काळादि योगे कई कंइ रुपांतर पामे खरा. ए संबंधी केटलोक विचार करीए. केटलाक परस्पर मळता अने केटलाक परस्पर विरुद्ध छे, केटलाक केवळ नास्तिकना पाथरेला पण छे. केटलाक सामान्य
SR No.006234
Book TitleBalavbodh Mokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Ravjibhai Mehta
PublisherMansukhlal Ravjibhai Mehta
Publication Year1915
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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