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परिग्रहने संकोचवो. पर पुष्कळ विवेचन थाय; एवो सत्संग ते महा दुर्लभ छे. कोइ एम कहे के सत्संग मंडळमां कोइ मायावि नहि होय ? तो तेनुं समाधान आ छे:-ज्यां माया अने स्वार्थ होय छे त्यां सत्संगज होतो नथी. राजहंसनी सभानो काग देखावे कदापि न कळाय तो अवश्य रागे कळाशे; मौन रह्यो तो मुखमुद्राए कळाशे. पण ते अंधकारमा जाय नहि. तेमज मायावियो सत्संगमां स्वार्थे जइने शुं करे ? त्यां पेट भर्यानी वात तो होय नहि. बे घडी त्यां जइ ते विश्रांति लेतो होय तो भले ले के जेथी रंग लागे. नहि तो बीजीवार तेनुं आगमन होय नहि. जेम पृथ्वीपर तराय नहि, तेम सत्संगथी बुडाय नहि. आवी सन्संगमां चमत्कृति छे. निरंतर एवा निर्दोष समागममा माया लइने आवे पण कोण ? कोइज दुर्भागी, अने ते पण असंभवित छे.
सत्संग ए आत्मानुं परम हितकाारे औषध छे. शिक्षापाठ २५ परिग्रहने संकोचवो.
जे प्राणीने परिग्रहनी मर्यादा नथी, ते प्राणी सुखी नथी. तेने जे मळ्युं ते ओछं छे; कारण जेटलं जाय तेटलांथी विशेष प्राप्त करवा तेनी इच्छा थाय छे. परिग्रहनी प्रबळतामां जे कंइ मळ्युं होय तेनुं सुख तो भोगवातुं नथी परंतु होय ते पण वखते जाय छे. परिग्रहथी निरंतर चळविचळ परिणाम अने पापभावना रहे छे; अकस्मात् योगथी एवी पापभावनामां आयुष्य पूर्ण थाय तो बहुधा अधोगतिनुं कारण थइ पडे. केवळ परिग्रह तो मुनिश्वरो त्यागी शके, पण गृहस्थो एनी अमुक मर्यादा करी शके. मर्यादा थवाथी उपरांत परिग्रहनी उत्पत्ति नथी, अने एथी करीने विशेष भावना पण बहुधा थती नथी, अने वळी जे मळ्युं छे तेमां संतोष राख