Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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१८१ सूत्र, द्वितीय पादमें २२३ सूत्र, तृतीय पादमें १९५ सूत्र और चतुर्थ पादमें १३२३ सूत्र हैं | द्वितीय अध्यायके प्रथम पादमें २२९ सूत्र, द्वित्तीय पादमें १७२ सूत्र, तृतीय पादमें ११३ सूत्र और चतुर्थ पादमें २३९, सूत्र हैं । तृतीय अध्यायके प्रथम पादमें २०१ सूम, द्वितीय पादमें २२७ सत्र, नतीय पादौ १८१ गूत्र और चतुर्थ पादमें १४६ सूत्र हैं । चतुर्थ अध्यायके प्रथम पादमे २७१ सूत्र, द्वित्तीयपादमें २६१ सूत्र, तृतीयपादमें २८९ सूत्र और चतुर्थ पादमें १८६ सूत्र हैं। इस प्रकार प्रथम अध्याय ७२२, द्वितीय अध्यायमें ७५३, तृतीय अध्यायमें ७९५ और चतुर्थ अध्यायम १००७ सूत्र है। इन सूत्रोंकी कुल संख्या ३,२३७ है | यह शब्दानुशासन अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है। रचयित्ताकी अमोघवत्तिके अतिरिक्त प्रभाचन्द्रका 'शाकटायन-न्यास', यक्षवर्माकी चिन्तामणि-टीका', अजितसेनाचार्यको 'मणिप्रकाशिका टोका', अभयचन्द्राचार्यकी 'प्रक्रियाटीका', भावसेन विद्यकी 'शाकटायनटीका', एवं दयापाल मुनिको 'रूपसिद्धि' टीकाएँ पायी जाती हैं। ___ शाकटायनव्याकरण प्रत्याहारशैली में लिखा गया है । इसके प्रत्याहारसूत्रोंकी यह विशेषता है कि इसमें लण्' सूत्रको स्थान नहीं दिया है और 'ल' वर्णको पूर्व सूत्रमें ही रख दिया गया है । इसमें सभी वर्णके प्रथमादि अक्षरोंके क्रमसे अलगअलग प्रत्याहार सूत्र दिये गये हैं। केवल वोके प्रथम वर्गोंके ग्रहणके लिये दो सूत्र है-'पाणिनीयवर्णसमाम्नाय' की भाँति शाकटायनव्याकरणमें भी हकार दो बार आया है। पाणिनीयव्याकरणमें ४१-४३ या ४४ प्रत्याहारसूत्रोंकी उपलब्धि होती हैं। किन्तु शाकटायनमें केवल ३८ प्रत्याहार ही उपलब्ध हैं । इस व्याकरणमें निम्नलिखित प्रत्याहार सूत्र आये हैं
अइउण् ||१|| ऋक् ।।२। एओ ॥३|| ऐओच् ।।४।। हयवरल ।।५।। अमडणनम् ।।६।। जबगडदश ||७|| झभघढधषु ।।८।। खफछठथट् ॥२|| चटत |१०|| कपम् ||११|| शषस अंअः, क, पर् ॥१सा हल् ॥१३॥
यहाँ एक विशेषता यह है कि शाकटायनमें प्रत्याहारसूत्रोंका संग्रह पाणिनि जैसा ही नहीं है, प्रत्युत उन्होंने सूत्रोंमें संशोधन और परिवर्तन किया है । उदाहरणार्थ शाकटायनमें 'ल' स्वरको माना ही नहीं गया है | इसका अन्तर्भाव 'ऋ' वर्ण में ही कर लिया गया है। इसी तरह अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय
और उपध्मानीयकी गणना व्यञ्जनोंके अन्तर्गत की गयी है । पाणिनिने अनुस्वार विसगं जिह्वामूलीय और उपध्मानीयको विकृत व्यञ्जन कहा है। वास्तवमें अनुस्वार मकार या नकार जन्य होनेके कारण व्यञ्जन है । विसर्ग कहीं सकारसे और कहीं रेफसे स्वतः उत्पन्न होता है। अतः यह भी व्यञ्जन है । जिह्वामूलीय और उपध्मानीय दोनों क्रमशः 'क', 'ख, तथा 'प', 'फ' के पूर्व विसर्गके ही
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचर्त्य : २१