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( २३ ) जिनकी दष्टि साम्प्रदायिकता के विकार से विमक्त है, वे यदि जैन धर्म तथा उससे सम्बन्धित सामग्री का परिशीलन करें तो महत्वपूर्ण सत्य प्रकाश में आवे । तुलनात्मक धर्म के विशेषज्ञ बैरिस्टर चंपतराय जी ने यह महत्वपूर्ण बात लिखी है, कि जैनधर्म में चौबीस तीर्थकर कहे गए हैं, अन्य धर्मों में भी चौबीस महापुरुषों का उल्लेख पाया जाता है। उनके शब्द इस प्रकार है :--
"There is a special fascination in the number four and twenty; the Hindus have twenty-four Avataras (incarnation ) of their favourite God Vishnu; there were twentyfour Counsellor gods of the ancient Babylonians, the Buddhists posit four and twenty previous Buddhas, that is teaching gods. The Zoroastrians also have twenty-four Ahuras who are regarded as the mightiest to advance desire and dominion of blessings” (Rishabha Deva, page 58 ).
"चविंशति इस संख्या के प्रति विशेष आकर्षण पाया जाता है। हिन्दुओं में उनके प्रिय परमेश्वर विष्णु के चौबीस अवतार कहे गए हैं; प्राचीन बेबीलोनियनों में चौबीस पारिषद ईश्वर माने गए हैं, बौद्धों में पूर्वकालीन चौबीस बुद्धों का सद्भाव स्वीकार किया गया है, पारसियों में चौबीस अहूर कहे गए हैं, वे इच्छापूर्ति करने में अत्यन्त समर्थ है; तथा उनके आशीर्वाद का साम्राज्य भी महान है।" तुलनात्मक धर्म के साहित्य का अभ्यास यह बताता है कि तीर्थंकर ऋषभदेव आदि का उपदेश पूर्णतया वैज्ञानिक तथा बुद्धिगम्य रहा है। विद्यावारिधि चंपतरायजी ने उपरोक्त विषय को इस प्रकार प्रकाशित किया है :---
Jainism, then, is the Scientific Religion discovered and disclosed by man for the benefit of man and the advantage of all other living beings. ( Introduction of Rishabha Deva, VI)
पुरातन भारतीय साहित्य का सूक्ष्म रीति से परिशीलन करने पर दो पक्षों का सद्भाव स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है । अहिंसा की विचारधारा को अपनानेवाला वर्ग क्षत्रिय था; पशुबलिदान द्वारा इष्ट सिद्धि के पक्ष का पोषण विप्रवर्ग करता था । अहिंसा की विशुद्ध धारा के समर्थक तथा प्रवर्धक समुदाय को पश्चात् जैन धर्मी कहा गया है । कुरुपांचाल देश के क्रियाकाण्डी याज्ञिक विप्रवर्ग मगध तथा विदेह को निषिद्ध भूमि समझते थे, क्योंकि वहाँ अहिंसात्मक यज्ञ का प्रचार था। इसके पदचात् जनक सदृश
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