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तीर्थकर
[ २७५ उस समय निर्वाण कल्याणक की पूजा की इच्छा करते हुए सब देव वहां पाए । उन्होंने पवित्र, उत्कृष्ट, मोक्ष के साधन, स्वच्छ तथा निर्मल ऐसे भगवान के शरीर को उत्कृष्ट मल्यवाली पालकी में विराजमान किया । तदनंतर अग्निकुमार नाम के भवनवासी देवों के इन्द्र के रत्नों की कांति से दैदीप्यमान ऐसे अत्यन्त उन्नत मुकुट से उत्पन्न की गई चंदन, अगर, कपूर, केशर आदि सुगंधित पदार्थों से तथा घृत, क्षीरादि के द्वारा वृद्धि को प्राप्त अग्नि से त्रिभुवन में अभूत पूर्व सुगंध को व्याप्त करते हुए उस शरीर को अग्नि संस्कार द्वारा भस्म रुप पर्यायान्तर को प्राप्त करा दिया ।
अग्नित्रय
अभ्यचिताग्निकुंडस्य गंध-पुष्पादिभिस्तथा । तस्य दक्षिणभागेऽ भूद्गणभृत-संस्क्रियानलः ॥३४७।। तस्यापरस्मिन् दिग्भागे शेष-केदलिकायगः ।
एवं वह्नित्रयं भूमाववस्थाप्यामरेश्वराः ॥३४८॥
देवों ने गंध, पुष्पादि द्रव्यों से उस अग्नि कुंड की पूजा की, उसके दाहिनी ओर गणधर देवों की अंतिम संस्कार वाली गणधराग्नि स्थापित की, उसके वाम भाग में शेष केवलियों की अग्नि स्थापना की। इस प्रकार देवेन्द्रों ने पृथ्वी पर तीन प्रकार की अग्नि स्थापना की।
भस्म की पूज्यता
ततो भस्म समादाय पंच-कल्याणभागिनः । वयं चैवं भवामेति स्वललाटे भुजद्वये ॥३४६।। कण्ठे हृदयदेशे च तेन संस्पृश्य भक्तितः ।
तत्पवित्रतमं मत्वा धर्मराग-रसाहिताः ॥३५०॥
तदनंतर देवों तथा देवेन्द्रों ने भक्ति-पूर्वक पंचकल्याण प्राप्त जिनेन्द्र के देहदाह से उत्पन्न वह भस्म लेकर 'हम भी ऐसे हों' यही विचार करते हुए अपने मस्तक, भुज युगल, कंठ तथा छाती में
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