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तीर्थकर लगाई। उन्होंने उस भस्म को अत्यंत पवित्र माना तथा वे धर्म के रस में निमग्न हो गए।
अन्वर्थ अमरत्व की आकांक्षा
जिनेन्द्र भगवान ने सचमुच में मृत्यु के कारण रूप आयु कर्म का क्षय करके अन्वर्थ रूप में अमर पद प्राप्त किया है। देवताओं को मृत्यु के वशीभूत होते हुए भी नाम निक्षेप से अमर कहते हैं । इसी से उन अमरों तथा उनके इंद्रों ने उस भस्म को अपने अंगों में लगा कर यह भावना की, कि हम नाम के अमर न रहकर सचमुच में वृषभनाथ भगवान के समान सच्चे अमर होवें । 'वयं चैवं भवामः ।'
चतुविधामराः सेन्द्रा निस्तंद्रारन्द्रभक्तयः। कृत्वांत्येष्टि तलगत्म स्वं स्वामावासमाश्रयन् ॥६३--५००॥
बड़ी भक्ति को धारण करने वाले प्रमाद रहित इन्द्रों सहित चारों प्रकार के देव वहां आए और भगवान के शरीर की अंत्येष्टि (अंतिम पूजा) कर अपने अपने स्थान को चले गए।
अंत्य-इष्टि का रहस्य
देवेन्द्रादि के द्वारा निर्वाण कल्याणक की लोकोत्तर पूजा को अंत्येष्टि संस्कार कहते हैं । अन्य लोगों में मरण प्राप्त व्यक्ति के देह दाह को अंत्येष्टि-क्रिया कहने की पद्धति पाई जाती है । इस अर्थ शून्य शब्द का इतर संप्रदाय में प्रयोग जैन प्रभाव को सूचित करता है। निर्वाण कल्याणक में शरीर की अंतिम पूजा, अग्नि संस्कार आदि की महत्ता स्वतः सिद्ध है, किन्तु पशु पक्षियों की भांति अज्ञानपूर्वक मरने वाले शरीर की पूजा की कल्पना अयोग्य है ।
वीरनाथ के शरीर का दाह संस्कार
महावीर भगवान का पावानगर के उद्यान से कायोत्सर्ग आसन से मोक्ष होने पर देवों द्वारा शरीर का दाह संस्कार पावानगर
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