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तीर्थकर
[ २९५ सुरेन्द्रेणास्य दुग्धाब्धि-पयोभिरभि षेचनात् । क्रमयो स्तत्प्रवाहस्य गंगायाः संगमे सति ॥१५०॥ तदाप्रभति तीर्थत्वं गंगाप्यस्मिन्नुपागता । कृत्वोत्कृष्टं तपो गंगातटे सौ निर्वृति गतः ॥१-१४१॥
वैदिक लोग भी कैलाशगिरि को पूज्य मानते हैं-वे हिमालय पर्वत के समीप जाकर कैलाश की यात्रा करते हैं ।कैलाश का जैसा वर्णन उत्तरपुराण में किया गया है, वैसी सामग्री का सद्भाव अब तक ज्ञात नहीं हो सका है। उसके विषय में यदा कदा कोई लेख भी छपे हैं, किन्तु उनके द्वारा ऐसी सामग्री नहीं मिली है, जिसके आधार पर उस तीर्थ की वंदना का लाभ उठाया जा सके । कैलाश नाम के पर्वत का ज्ञान होने के साथ निर्वाण स्थल के सूचक कुछ जैनचिन्हों का सद्भाव ही उस तीर्थ के विषय में संदेहमुक्त कर सकेगा । अब तक तो उसके विषय में पूर्ण अजानकारी है ।
उपयोगी चिंतवन
___ भव्यात्माओं को मोक्ष प्राप्त तीर्थकरों के विषय में यह विचार करना चाहिये कि चैतन्य-ज्योति समलंकृत चौबीसों भगवान सिद्धालय में विराजमान हैं। भगवान ऋषभदेव, वासुपूज्य और नेमिनाथ ने पद्मासन से मोक्ष प्राप्त किया, शेष इक्कीस तीर्थंकरों की मुक्ति खङ्गासन से हुई थी, अत: उनका उसी आसन में चितवन करना चाहिये । जैसे दीपावली के प्रभात समय महावीर प्रभु के विषय में ध्यान करते समय सोचना चाहिए कि पावापुरी के चरणों के ठीक ऊपर लोक के अग्रभाग में खङ्गासन से सात हाथ ऊँचाई वाली आत्मज्योति विराजमान है । तिलोयपण्णत्ति में कहा है
उसहो य वासुपुज्जो मी पल्लंकबद्धया सिद्धा। ___ काउसग्गेण जिणा सेसा मुत्ति समावण्णा ॥४-१२१०॥
मोक्ष की प्राप्ति के योग्य स्थान कर्मभूमि मानी गई हैं । पन्द्रह कर्मभूमियाँ जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड तथा पुष्कराध द्वीप में हैं।
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