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तीर्थकर
बाह्य परिग्रह द्वारा जीव घात
बाह्य परिग्रह में जिनको दोष नहीं दिखता है, वे कम से कम यह तो सोच सकते हैं कि वस्त्रादि को स्वच्छ रखने में, उनको धोने आदि के कार्य में स- स्थावर जीवों का घात होता है, वह हिंसा समर्थ आत्मा बचा सकती है, अतः बाह्य परिग्रह के त्याग द्वारा हिंसादि की परिपालना होती है, यह बात समन्वयशील न्यायबुद्धि मानव को ध्यान में रखना उचित है ।
कोई-कोई सोचते हैं, कि हमारे यहाँ शास्त्रों में वस्त्रादि परिग्रह के त्याग बिना भी साधुत्व माना जाता है । ऐसे लोगों को आत्महितार्थ गहरा विचार करना चाहिए । यह सोचना चाहिए कि मनुष्य जीवन का पाना खिलवाड़ नहीं है । आत्मकल्याण के लिए भय, संकोच, मोहादि का त्याग कर सत्य को शिरोधार्य करना सत्पुरुष का कर्तव्य है ।
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संपूर्ण कर्मों का नाश करने वाले सिद्ध परमेष्ठी की पदवी अरहंत भगवान से बड़ी है, यद्यपि भगवान शब्द दोनों के लिए उपयोग में आता है ।
सिद्धों के विशेष गुण
इन सिद्धों के चार अनुजीवी गुण कहे गए हैं । जो घातिया कर्मों के विनाश से अरहंत अवस्था में ही उत्पन्न होते हैं, वे गुण भावात्मक कहे गए हैं । ज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञान, दर्शनावरण के विनाश से केवलदर्शन, मोहनीय के उच्छेद से अविचलित सम्यक्त्व तथा अंतराय के नाश द्वारा अनंतवीर्यता रूप गुणचतुष्टय प्राप्त होते हैं । अघातिया कर्मों के प्रभाव में चार प्रतिजीवी गुण उत्पन्न होते हैं । वेदनीय के विनाश से अव्याबाधत्व प्रगट होता है । गोत्र के नाश होने पर अगुरुलघुगुण प्राप्त होता है । नाम कर्म के प्रभाव में अवगाहनत्व तथा आयुकर्म के (जिसे जगत् मृत्यु, यमराज आदि नाम से पुकारता
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