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तीर्थकर
[ ३०१ कथन का भाव यह है कि विदेह सदृश कर्मभूमि में सदा मोक्षमार्ग चालू रहता है। अन्य कर्मभूमि के क्षेत्रों में काल कृत परिवर्तन होने से मोक्षमार्ग रुक गया । ऐसे काल में भी देवादि के द्वारा लाया जीव इन क्षेत्रों से मुक्त हो सकता है, जहां मुक्ति जाने योग्य चतुर्थ काल का सद्भाव नहीं है।
प्रश्न :--जब समस्त पैतालीस लाख योजन प्रमाण मनुष्य क्षेत्र को निर्वाणस्थल माना है, तब पावापुरी, चम्पापुरी आदि कुछ विशेष स्थानों को निर्वाण स्थल मानकर पूजने की पद्धति का अन्तरंग रहस्य क्या है ?
समाधान-पागम में लिखा है कि छठवें काल के अन्त में जब उनचास दिन शेष रहते हैं, तब जीवों को त्रासदायक भयंकर प्रलयकाल प्रवृत्त होता है । उस समय महा गंभीर एवं भीषण संवर्तक वायु बहती है, जो सात दिन पर्यन्त वृक्ष, पर्वत और शिला आदि को चूर्ण करती है । इससे जीव मूच्छित होते हैं और मरण को प्राप्त करते हैं। मेघ शीतल और क्षार जल तथा विष जल में से प्रत्येक को सातसात दिन तक बरसाते हैं। इसके सिवाय वे मेघ-धूम, धूलि, वज्र तथा अग्नि की सात-सात दिन तक वर्षा करते हैं। इस क्रम से भरत क्षेत्र के भीतर आर्य खण्ड में चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित वृद्धिंगत एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जाती है। वज्र और महाअग्नि के बल से आर्य खण्ड की बढ़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्वरूप को छोड़कर धूलि एवं कीचड़ की कलुषता से रहित हो जाती है । (तिलोयपण्णत्ति ३४७ पृष्ठ) । उत्तरपुराण में लिखा है :
ततो धरण्याः वैषम्यविगमे सति सर्वतः।
भवेच्चित्रा समा भूमिः समाप्तात्रावसपिणी ॥७६-४५३॥
उनचास दिन की अग्नि आदि की वर्षा से पृथ्वी का विषमपना दूर होगा और समान चित्रा पृथ्वी निकल आयगी । यहाँ पर ही अवसर्पिणी काल समाप्त हो जायगा। इसके पश्चात् उत्सर्पिणी
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