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तीर्थकर कृत्य कहा गया है (ईश्वरः सदामुक्तोपि जगन्निर्मापणे कृतादरत्वेनाकृतकृत्यः) ।
वे लोकत्रय के ऊपर तनुवातवलय के अंत में निवास करते हैं (तनुवातप्रांते निवासिनः स्थास्नवः) । इससे मांडलिक मत का निवारण होता है, जो मानता है कि मुक्त जीव विश्राम न कर निरन्तर ऊपर ही ऊपर चले जाते हैं (आत्मनः उर्ध्वगमन-स्वाभाव्यात् मुक्तावस्थायां क्वचिदपि विश्रामाभावात् उपर्युपरि गमनमिति वदन्मांडलिकमतं प्रत्यस्तं । गो० जी० टीका पृष्ठ १७८) ।
पंचम सिद्धगति
मुक्तात्माओं की गति को सिद्धगति कहा है । यह चार गतियों से भिन्न है, जिनके कारण संसार में परिभ्रमण होता है । इस पंचम गति के विषय में नेमिचंद्राचार्य कहते हैं :
जाइ-जरा-मरण-भया संजोगविजोग-दुक्ख-सण्णाम्रो।
रोगादिगा य जिस्से ण संति सा होदि सिद्धगई ।। गो० जी० १५२॥
जिस गति में जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग वियोग-जनित दुःख,' आहारादि संज्ञाएं, शारीरिक व्याधि का अभाव है, वह सिद्धगति है।
१ इस सिद्धगति के विषय में गोम्मटसार जावक ण्ड के अंग्रेजी अनुवाद में स्व० जस्टिस जे० एल० जैनी लिखित यह अंश मामिक है :--
“The condition of liberated souls is described here. Liberation implies freedom from Karmic matter, which shrouds the real glory of the soul, drags it into various conditions and makes it experience multifarious pleasures and pains. But when all the karmas are destroyed, the soul which by nature has got an upward motion rises to the highest point of the universe-the Siddha-Shila and there lives for endless time in the enjoyment of its own glorious qualities un-encumbered by the worldly pleasures or pains. This is the ideal condition of a soul. (Gommatasara-Page 101)
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