________________
२७८ ]
तीर्थकर जव नेमिनाथ प्रभु का परिनिर्वाण हो चुका, तब इंद्र और चारों प्रकार के देवों ने जिनेन्द्रदेव के अंतिम शरीर सम्बन्धी निर्वाणकल्याणक की पूजा की।
गंध-पुष्पादिभिदिव्यः पूजितास्तनवः क्षणात् । जैनाद्या द्योतयत्यो द्यां विलीना विद्युतो यथा। ॥१२॥
जिस प्रकार विद्युत् देखते देखते शीघ्र विलय को प्राप्त होती है, उसी प्रकार गंध पुप्पादि दिव्य पदार्थों से पूजित भगवान का शरीर श्रणभर में दष्टि के अगोचर हो गया।
वायं जिनादीनां शरीरपरमाणवः । '' त स्कन्धतामंते क्षणात क्षणरुचामिव ॥१३॥
यह स्वभाव है कि जिन भगवान के शरीर के परमाणु अंत समय में स्कन्धरुपता का परित्याग करते हैं और बिजली के समान तत्काल विलय को प्राप्त होते हैं।
निर्वाण स्थान के चिह्न
हरिवंशपुराण में यह भी कहा है :ऊर्जयंतगिरी वज्रा वज्रणालिख्य पावनं।।
लोके सिद्धिशिलां चक्रे जिनलक्षण-पंक्तिभिः॥१४ सर्ग ६५॥
गिरनार पर्वत पर इंद्र ने परम पवित्र 'सिद्धि-शिला' निर्मापी तथा उसे वज्र द्वारा भगवान के लक्षणों के समूह से अंकित किया ।
स्वामी समंतभद्र ने स्वयंभू स्तोत्र में भी यह बात कही है, कि गिरनार पर्वत पर इन्द्र ने निर्वाणप्राप्त जिनेन्द्र नेमिनाथ के चिन्ह अंकित किए थे । यहां हरिवंश पुराण से यह विशेष बात ज्ञात होती है कि इन्द्र एक विशेष शिला-सिद्धिशिला की रचना करके उस पर जिनेन्द्र के निर्वाण सूचक चिन्हों का निर्माण करता है। आज परंपरा से प्राप्त चरण-चिन्हों की निर्वाणभूमि में अवस्थिति देखने से यह अनुमान किया जा सकता है, कि इंद्र ने मुक्ति प्राप्त करने वाले भगवान के स्मारक रूप में चरणचिन्हों की स्थापना का कार्य किया था।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org