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तीर्थकर
२९० ] सिद्ध-प्रतिमा
सिद्ध परमात्मा का ध्यान करने के लिए भी जिनेन्द्र देव की प्रतिमा उपयोगी है । सिद्ध प्रतिमा के स्वरूप पर प्राचार्य वसुनंदि सिद्धांतचक्रवर्ती ने मूलाचार की टीका में इस प्रकार प्रकाश डाला है :-"अष्टमहाप्रातिहार्यसमन्विता अर्हत्प्रतिमा, तद्रहिता सिद्धप्रतिमा ।"-जो प्रतिमा अष्टप्रातिहार्य समन्वित हो, वह अरहंत भगवान की प्रतिमा है । अष्टप्रतिहार्य रहित प्रतिमा को सिद्ध-प्रतिमा जानना चाहिए । इस विषय में यह कथन भी ध्यान देने योग्य है; "अथवा कृत्रिमा: यास्ता अर्हत्प्रतिमाः, अकृत्रिमाः सिद्धप्रतिमाः" (पृष्ठ ३१ गाथा २५)-अथवा संपूर्ण कृत्रिम जिनेन्द्र प्रतिमाएं अरहंत प्रतिमा हैं। अकृत्रिम प्रतिमाओं को सिद्ध प्रतिमा कहा है ।
इस आगम वाणी के होते हुए धातु विशेष में पुरुषाकार शन्य स्थान बनाकर उसके पीछे दर्पण को रखकर उसे सिद्ध प्रतिमा मानने का जब आगम में विधान नहीं है तब आगम की आज्ञा को शिरोधार्य करने वाला व्यक्ति अपना कर्तव्य और कल्याण स्वयं विचार सकता है। यह बात भी विचारणीय है, कि पोलयुक्त मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा करते समय मंत्र-न्यास विधि किस प्रकार संपन्न की जायेगी, उसके अभाव में प्रतिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित मूर्ति में किस प्रकार भेद किया जा सकेगा ? मंत्र न्यास प्रतिष्ठा का मुख्य अंग है । (आशाधर प्रतिष्ठासारोद्धार ४, १४६) दक्षिण भारत के प्राचीन और महत्वपूर्ण जिन मंदिरों में इस प्रकार की सिद्ध प्रतिमाएं नहीं पाई जाती, जैसी उत्तर प्रांत में कहीं-कहीं देखी जाती है। प्रागम-प्राण सत्पुरुषों को परमागम प्रतिपादित प्रवृत्तियों को ही प्रोत्साहन प्रदान करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए। निर्वाण पद और दिगम्बरत्व
सिद्ध पद को प्राप्त करने के लिए संपूर्ण परिग्रह का त्याग कर वस्त्र रहित (अचेल) मुद्रा का धारण करना अत्यंत आवश्यक
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