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तीर्थंकर
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अर्थात् आत्म स्वभाव में अवस्थित सिद्ध भगवान के विषय में लगाना
अनुचित है । कहा भी है
नार्थः क्षुत्तृड्-विनाशात् विविध रसयुतैरन्नपानैरशुच्या । नास्पृष्टगंध - माल्यै नहि मृदुशयनै ग्लानि निद्रा द्यभावात् । श्रातं कार्तेरभावे तदुपशमनसद्वेषजा - नर्थ तावद् । दीपानर्थक्यवद्वा व्यपगत- तिमिरं दृश्यमाने समस्ते ॥ ८ ॥ अवर्णनीय इंद्रियजनित सुख का अनुभव लेने वाले सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र सदा यही अभिलाषा करते हैं कि किस प्रकार उनको सिद्धों का स्वाधीन, इंद्रियातीत अविनाशी सुख प्राप्त हो । सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्रों में पूर्णतया समानता रहने से पुण्यात्माओं का परिपूर्ण साम्य पाया जाता है, ऐसा ही साम्य इनसे द्वादश योजन ऊंचाई पर विराजमान सिद्धों के मध्य पाया जाता है । यह प्राध्यात्मिक विभूतियों के मध्य स्थित साम्य है । अहमिन्द्रों का साम्य तेतीस सागर की आयु समाप्त होने पर तत्क्षण समाप्त होता है अर्थात् वहां से आयु क्षय होने पर अवस्थान्तर में आना पड़ता है । सिद्धों के मध्य का साम्य अविनाशी है । वे सब आत्माएं परिपूर्ण तथा स्वतंत्र हैं । एक दूसरे के परिणमन में न साधक हैं, न बाधक हैं ।
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सुख की कल्पना
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आचार्य रविषेण ने पद्मपुराण में बड़ी सुन्दर बात कही है जनेभ्यः सुखिनो भूपाः भूपेभ्य श्चक्रवर्तिनः ।
चक्रिभ्यो व्यंतरास्तेभ्यः सुखिनो ज्योतिषोऽमराः । १०५ -- १८७ ॥ ज्योति भवनावासास्तेभ्यः कल्पभुवः क्रमात् ।
ततो ग्रैवेयकावासास्ततोऽनुत्तरवासिनः ॥ १८८ ॥ अनंतानंत गुणतस्तेभ्यः सिद्धि-पदस्थिताः ।
सुखं नापरमुत्कृष्टं विद्यते सिद्धसौख्यतः ॥ १८६॥
मनुष्यों की अपेक्षा राजा सुखी है । राजाओं की अपेक्षा चक्रवर्ती सुखी है । चक्रवर्ती की अपेक्षा व्यंतरदेव तथा व्यंतरों की पेक्षा ज्योतिषीदेव सुखी हैं । ज्योतिषी देवों की अपेक्षा भवनवासी
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