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तीर्थंकर कर्मों की कितनी विचित्र अवस्था होती है। छह माह पर्यन्त महोपवास के पश्चात् भी कर्म के विपाक की इतनी तीव्रता है कि तीर्थंकर भगवान को भी शरीर यात्रा के हेतु आहार प्राप्ति का सुयोग नहीं मिल रहा है । आहार के लिए प्रभु का प्रतिदिन विहार हो रहा रहा है । अब एक वर्ष हो चुका । चैत्र सुदी नवमी फिर आ गई, किन्तु स्थिति पूर्ववत् है। भगवान् अत्यन्त प्रसन्न तथा प्रशान्त हैं । वे क्षुधा, तृषा रूप परीषहों को बड़ी समता पूर्वक सहन करते हुए कर्मों की निर्जरा कर रहे हैं । ऐसी तपस्या के द्वारा ही चिरसंचित कर्मों के पहाड़ नष्ट हुना करते हैं।
अंतराय का उदय
वे भगवान धनवान् अथवा निर्धन, सभी के घर पर आहार हेतु जाते थे। उनकी यह चर्या चांद्री-चर्या कही गई है, क्योंकि वे चन्द्रमा के समान प्रत्येक के घर पर जाते थे। अपने दर्शन द्वारा सबको अानन्द प्रदान करते थे । सारा जगत् चिन्ता निमग्न था। कर्म का विपाक भी विलक्षण होता है। तीर्थंकर हों या सामान्य जन हों, कर्मोदय समान रूप से सब को शुभ, अशुभ फल प्रदान करता है।
गुणभद्रस्वामी ने आत्मानुशासन में लिखा है "कि देव की गति बड़ी विचित्र है । यह अलंघनीय है । देखो ! भगवान वृषभदेव के गर्भ में आने के छह माह पहले से ही इन्द्र सेवक के समान हाथ जोड़े रहता था, जो इस कर्म भूमि रूपी जगत् के विधाता हैं; नवनिधियों के स्वामी चक्रवर्ती भरत जिनके पुत्र हैं; वे भी छहमाह पर्यन्त इस पृथ्वी पर बिना आहार प्राप्त किए विहार करते थे ।" ।
१ पुरा गर्भादिन्द्रो मुकुलितकरः किंकर इव । स्वयं सष्टा सष्टे: पतिस्थनिधीनां निजसुतः ।। क्षधित्वा षण्मासान् स किल पुरुरप्याट जगतीमहो केनाप्यस्मिन् विलसितमलंध्यं हतविधेः । ११६॥
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