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तीर्थकर
[ २५५ समाधान
केवली भगवान के उपचार से ध्यान कहे गए हैं । राजवातिक में “एकादशजिने" सूत्र की टीका में अकलंकस्वामी लिखते हैं, केवली भगवान में एकादश परीषह उपचार से पाई जाती हैं । इस विषय के स्पष्टीकरण हेतु प्राचार्य लिखते हैं----"यथा निरवशेषनिरस्तज्ञानावरणे परिपूर्णज्ञाने एकाग्रचिता-निरोधाभावेपि कर्मरजो-विधूननफलसंभवात् ध्यानोपचारः तथा क्षुधादि-वेदनाभावपरीषहाऽऽभावेपि वेदनीयकर्मोदयद्रव्यपरीषहसद्भावात् एकादशजिने संतीति उपचारो युक्तः” (पृष्ठ ३३८, राजवार्तिक)-जिस प्रकार ज्ञानावरण कर्म के पूर्ण क्षय होने से केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर एकाग्र चिंता-निरोध रूप ध्यान के अभाव होने पर भी कर्मरज के विनाशरूप फल को देखकर ध्यान का उपचार किया जाता है, उसी प्रकार क्षुधा, तृषादि की वेदनारूप भाव परीषह के अभाव होते हुए भी वेदनीय कर्मोदय द्रव्यरूप कारणात्मक परीषह के सद्भाव होने से जिन भगवान में एकादश परीषह होती हैं, ऐसा उपचार किया जाता है ।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि केवली भगवान के आयु कर्ग की अंतर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति शेष रहने के पूर्व ध्यान का सदभाव नहीं कहा गया है, इसी कारण धवलाटीका में सयोगी जिनके विषय में लिखा है-- सयोगिकेवली ण किचि कम्मं खवेदि" (पृष्ठ २२३, भाग १)--सयोगी केवली किसी कर्म का क्षय नहीं करते हैं । कर्मक्षपण कार्य का अभाव रहने से सयोगी जिन के ध्यान का अभाव है। इतना विशेष है कि अयोगी केवली होने के पूर्व सयोगी जिन अघातिरुप कर्मों की स्थिति के असंख्यात भागों को नष्ट करते हैं तथा अशुभ कर्मों के अनुभाग को नष्ट करते हैं। उस समय उनके सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाति शुक्लध्यान की पात्र उत्पन्न होती है । वो प्राचार्य परंपराएँ ___इस अवस्थावाली सभी आत्माएँ समुद्घात करती हैं, ऐसा
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