________________
तीर्थकर
तिलोयपण्णत्ति में कहे गए सिद्धान्त का, कि अंतिम शरीर से एक तृतीयांश भाग न्यून प्रमाण सिद्धों की अवगाहना रहती है, रहस्य विचारणीय है।
समाधान
संपूर्ण दृश्यमान शरीर की अवगाहना को लक्ष्य में रखकर किंचित् ऊन चरम शरीर प्रमाण कथन किया गया है । सूक्ष्म दृष्टि से विचारने पर ज्ञात होगा कि शरीर के भीतर मुख, उदर अादि में जीव-प्रदेश शून्य भाग भी है, उसको घटाने पर शरीर का घनफल एक तृतीय भाग न्यून होगा, यह अभिप्राय तिलोयपण्णत्तिकार का प्रतीत होता है । इस दृष्टि से उपरोक्त कथनों में समन्वय करना सयुक्तिक प्रतीत होता है । स्व प्रात्मा के प्रदेशों में, शुद्ध दृष्टि से, उनका निवास कहा जा सकता है । गुणी प्रात्मा अपने अनंत गुणों में विद्यमान है; अतएव सिद्धों की आत्मा की अवगाहना ही यथार्थ में ब्रह्म लोक है।
ब्रह्म-लोक
व्यवहार दृष्टि से अाकाश के जिन प्रदेशों में नित्य, निरंजन सकलज्ञ सिद्धों का निवास है, वह ब्रह्म-लोक है। इसके सिवाय और कोई ब्रह्मलोक नहीं है । शुद्ध प्रात्मा का वाचक ब्रह्म शब्द है । उस शुद्ध प्रात्मा के निवास का स्थल ब्रह्मलोक है । उस ब्रह्मलोक में स्थित प्रभु के ज्ञान में लोकालोक के पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं ।
निर्मलता तथा सर्वज्ञता
आत्मा की निर्मलता का सकलज्ञता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसी भ्रान्त प्रात्मा को परमात्मप्रकाश का यह दोहा महत्व पूर्ण प्रकाश प्रदान गरता है :--
तारायणु जलि बिबियउ, जिम्मलि दीसह जेम। अप्पए णिम्मलि बिबियउ, लोयालोउवि तेम ॥१०॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org