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तीर्थंकर झल रहे थे। बाल्यकाल के प्यारः और दुलार से लेकर अन्त तक प्रभु ने क्या-क्या नहीं दिया ? जैसे जैसे भरतराज अतीत का स्मरण करते थे, वैसे-वैसे उनके हृदय में एक गहरी वेदना होती थी। पराक्रम पुंज भरत के नेत्रों में कभी अश्रु नहीं पाए थे । विपत्ति में भी वह तेजस्वी म्लान मुख न हुआ। उसके नेत्रों से उस समय अवश्य अश्रधारा बहती थी, जब कि वह भगवान की भक्ति तथा पूजा के रस में निमग्न हो आनन्द विभोर हो जाता था । वे अानन्दाच थे; अभी शोकाश्रु हैं। देव, इन्द्र आदि आत्मीय भाव से चक्रवर्ती को समझते हैं कि इस आनन्द की वेला में शोक करना आप सदृश ज्ञानी के लिए उचित नहीं है। भरत के दुःखी मन को सबका समझाना सान्त्वना दायक नहीं हुआ।
गरणधर द्वारा सांत्वना
इस विषम परिस्थिति में भरत के बन्धु वृषभसेन मणधर ने अपनी तात्विक देशना द्वारा भरत के मोहज्वर को दूर किया । गणधर देव के इन शब्दों ने भरतेश्वर को पूर्ण प्रतिबुद्ध कर दिया ।
प्रागक्षि-गोचरः सप्रत्येष चेतसि वर्तते। भगवांस्तत्र कः शोकः पश्यनं तत्र सर्वदा ॥४७, ३८६ म० पु०
अरे भरत ! जो भगवान पहले नेत्र इन्द्रिय के गोचर थे, वे अब अंतः करण में विराजमान हैं; इसलिए इस संबंध में किस बात का शोक करते हो? तुम उन भगवान का अपने मनोमंदिर में सदा दर्शन कर सकते हो।
तत्वज्ञानी भरत की अंतर्दष्टि खुल गई। चक्रवर्ती की समझ में आ गया कि स्वात्मानुभूति के क्षण में चैतन्य ज्योति का मैं दर्शन करता हूँ। भगवान ने आज सिद्ध पदवी प्राप्त की है। इसमें और मेरे प्रात्म-स्वरूप में कोई अंतर नहीं है। इस दिव्य विचारों से भरतेश्वर को विशेष प्रेरणा प्राप्त हुई। चक्रवर्ती भी व्यथा त्यागकर उस आनंदोत्सव में देवों के साथी हो गए। भरत के नेत्रों में आनंदाश्रु मा गए ।
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