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तीर्थकर
[ २६७ है, अनन्तशक्ति है, और भी अनन्त गुण उनमें विद्यमान हैं। यदि वे दुःखी जीवों के हितार्थ कुछ कृपा करें, तो जीवों को बड़ी शान्ति मिलेगी।
__ समाधान-वस्तु का स्वभाव हमारी कल्पना के अनुसार नहीं बदलता है । पदार्थ के स्वभाव को स्वाश्रित कहा है। बीज के दग्ध हो जाने पर पुनः अंकुरोत्पादन कार्य नहीं होता है, इसी प्रकार कर्म के बीज रूप राग-द्वेष भावों का सर्वथा शय हो जाने से पुनः लोक कल्याणार्थ प्रवृत्ति के प्रेरक कर्मों का भी अभाव हो गया है। अब वे वीतराग हो गए हैं।
आचार्य अकलंकदेव ने राजवार्तिक में एक सुन्दर चर्चा की है। शंकाकार कहता है--"स्यात् एतत् व्यसनार्णवे निमग्नं जगदशेष जानतः पश्यतश्च कारुण्यमुत्पद्यते ।" सम्पूर्ण जगत् को दुःख के सागर में निमग्न जानते तथा देखते हुए सिद्ध भगवान के करुणाभाव उत्पन्न होता होगा । शंकाकार का भाव यह है कि अन्य सम्प्रदाय में परमात्मा जीवों के हितार्थ संसार में आता है । ऐसा ही सिद्ध भगवान करते होंगे। "ततश्च बंध:"--जब भगवान के मन में करुणाभाव इस प्रकार उत्पन्न होगा, तो वे बंध को भी प्राप्त होंगे। •
___ समाधान-"तन्न, कि कारणं? सर्वास्रव-परिक्षयात् । भक्ति-स्नेह-कृपा-स्पृहादीनां रागविकल्पत्वाद्वीतरागे न ते संतीति" (पृष्ठ ३६२, ३६३-१०-४) । ऐसा नहीं है, कारण भगवान के सर्व कर्मों का आस्रव बंद हो गया है । भक्ति, स्नेह, कृपा, इच्छा आदि राग भाव के ही भेद हैं । वीतराग प्रभु में उनका सद्भाव नहीं है ।
पुनरागमन का अभाव
प्रश्न- यदि भगवान कुछ काल पर्यन्त मोक्ष में रहकर पुनः संसार में आ जावें, तो क्या बाधा है ?
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