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तीर्थंकर
[ २६५ निर्मल जल में तारागण का प्रतिबिंब बिना प्रयत्न के स्वयमेव दृष्टिगोचर होता है, इसी प्रकार रागादि मल रहित निर्मल श्रात्मा में लोक तथा अलोक स्वयमेव प्रतिबिंबित होते हैं। इसके लिए उन प्रभु को कोई उद्योग नहीं करना पड़ता है।
शिवादि पद वाच्यता
इन मुक्ति प्राप्त आत्माओं को ही जैन धर्म में शिव, विष्णु आदि शब्दों के द्वारा वाच्य माना है । ब्रह्मदेव सूरि का यह कथन महत्वपूर्ण है, "व्यक्तिरूपेण पुनर्भगवान् अर्हन्नेव मुक्तिगत-सिद्धात्मावा परमब्रह्मा विष्णुः शिवो वा भण्यते । यत्रासौ मुक्तात्मा लोकाग्रे तिष्ठति स एव ब्रह्मलोकः स एव विष्णुलोकः स एव शिवलोको नान्यः कोपीति भावार्थः (परमात्मप्रकाश पृ० ११३)
सिद्ध का अर्थ
लोक में किसी तपस्वी कुशल साधु को देखकर उसे सिद्धपुरुष कह दिया जाता है। काव्यग्रंथों में किन्हीं देवताओं का नाम सिद्ध रूप से उल्लेख किया जाता है। इनसे सिद्ध भगवान सर्वथा भिन्न हैं। उक्त व्यक्ति जन्म, जरा, मृत्यु के चक्र से नहीं बचे हैं; किन्तु सिद्ध भगवान इस महा व्याधि से सदा के लिए मुक्त हो चुके हैं ।
भ्रम निवारण
कोई यह सोचते हैं कि सिद्ध भगवान के द्वारा जगत् के भव्यों के हितार्थ कुछ संपर्क रखा जाता है । वे संदेश भी भेजते हैं । यह धारणा जैनागम के प्रतिकूल है । पुद्गलात्मक शरीर रहित होने से उन अशरीरी आत्म-द्रव्य सिद्ध भगवान् का पुद्गल से सम्बन्ध नहीं रहता है, अतः उसके माध्यम द्वारा संदेशादि प्रसारित करना कल्पना मात्र है। वे भव्यों के लिए आदर्श रूप हैं।
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